‘सरकार किसानों को बिचौलियों से मुक्ति दिलाना चाहती है और बिचौलियों को खत्म करने के लिए ही नए कानून बनाए गए हैं।’ अखबार में छपी इन पंक्तियों को पढ़ते हुए राकेश कुमार गुस्से से भर जाते हैं और अखबार एक तरफ पटक देते हैं। उन्हें गुस्सा इसलिए आया, क्योंकि जिन बिचौलियों को खत्म करने की बात अखबार में लिखी गई है, वे उन्हीं कथित बिचौलियों में से एक हैं।’
60 साल के राकेश कुमार एक आढ़ती हैं और यही उनका पुश्तैनी काम है। पंजाब के मानसा जिले की पुरानी मंडी में करीब 70 साल पहले उनके दादा ने आढ़त का काम शुरू किया था। आज उनके आप-पास के करीब 300 किसान जुड़े हुए हैं जिनका पूरा बही-खाता उनके पास दर्ज है।
राकेश कहते हैं, ‘किसानों और आढ़तियों का रिश्ता दशकों पुराना है। उनके बिना हमारा गुजारा नहीं हो सकता और हमारे बिना उनका गुजारा नहीं है। दोनों दीया और बाती की तरह हैं जो एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। ये भाजपा सरकार आज हमें बिचौलिया बताकर खत्म करने की बात कर रही है, लेकिन यही लोग जब विपक्ष में थे तो इनकी बड़ी नेता सुषमा स्वराज ने संसद में हमारे और किसानों के रिश्ते की जम कर तारीफ की थी।’
दिवंगत भाजपा नेता सुषमा स्वराज के जिस बयान की बात राकेश कर रहे हैं, वह इन दिनों सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है। 2012 में विदेशी पूंजी निवेश का विरोध करते हुए सुषमा स्वराज ने लोक सभा में कहा था, ‘ग्रामीण अर्थव्यवस्था कहती है कि बैंकों के एटीएम तो आज आए हैं, आढ़ती किसान का पारंपरिक एटीएम है।
किसान को बेटी की शादी करनी हो, बुआ का भात भरना हो, बहन का छुछक देना हो, बच्चे की पढ़ाई करानी हो, बाप की दवाई करानी हो, किसान सिर पे साफा बांधता है और सीधा मंडी में आढ़ती के यहां जाकर खड़ा हो जाता है। मैं पूछना चाहती हूं क्या वॉलमार्ट और टेस्को उसे (किसान को) उधार देगा? क्या उसे संवेदना होगी बेटी की शादी या बहन का भात भरने की?
उसे तो धोती और साफे वाले किसान से बदबू आएगी। कौन किसान से सीधा खरीदेगा? अरे नई एजेंसियां खड़ी होंगी, नए बिचौलिये खड़े हो जाएंगे। इसलिए ये कहना कि बिचौलिये को आप समाप्त कर देंगे, ये बात सिरे से गलत है।’ सुषमा स्वराज की कही यही बातें आज उन भाजपा नेताओं के लिए मुश्किल खड़ी कर रही हैं जो दावा कर रहे हैं कि नए कानून लागू होने से बिचौलिये खत्म हो जाएंगे।
मानसा आढ़तिया एसोसिएशन के अध्यक्ष मुनीश बब्बू दानेवालिया कहते हैं, ‘सबसे पहले तो हमें बिचौलिया शब्द से ही आपत्ति है। अगर हम बिचौलिये हैं तो ये तमाम पेट्रोल पंप वाले क्या हैं जो कमिशन पर काम करते हैं। ये सभी गैस एजेंसी वाले क्या बिचौलिये नहीं हैं? इनकी ही तरह हमारा काम भी कमिशन एजेंट का है। बल्कि आढ़त का काम तो इनसे कहीं ज्यादा पुराना और पारंपरिक है।’
आढ़त की व्यवस्था देश के कई राज्यों में है, लेकिन इसका सबसे मजबूत स्वरूप हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में देखा जा सकता है। इन राज्यों में किसान लगभग पूरी तरह से ही आढ़तियों पर निर्भर होते हैं। यहां किसानों की सारी उपज आढ़तियों से होकर ही बिकती है और किसानों का सारा खर्च भी आढ़तियों से लिए गए पैसे से चलता है।
किसान की जमीन के आधार पर आढ़ती उन्हें पैसा देते हैं। पंजाब की बात करें तो यहां औसतन एक किले (एकड़) जमीन पर किसान को आढ़ती से पचास हजार तक की रकम मिलती है। इसी रकम से फिर किसान खेती की लागत में पैसा लगाता है और अपने बाकी खर्चे चलाता है। छह महीने बाद जब फसल तैयार होती है तो किसान फसल लेकर आढ़ती के पास आता है जिसे बेचकर आढ़ती अपना पैसा वसूलता है और फिर अगली फसल के लिए किसान को पैसा देता है।
यही कारण है कि अनाज की सारी बिक्री आढ़तियों के जरिए ही होती है। अनाज मंडियों में आढ़तियों की दुकान होती हैं जहां से कोई भी सरकारी या गैर-सरकारी एजेंसी फसल खरीदती हैं। इस खरीद पर एजेंसियों को टैक्स भी चुकाना होता है। ये टैक्स हर राज्य में अलग-अलग है। पंजाब में यह टैक्स साढ़े आठ फीसदी है, जिसमें से तीन फीसदी रुरल डेवलपमेंट टैक्स है, तीन फीसदी मार्केट सेस और ढाई फीसदी आढ़तियों का कमीशन।
इसी पूरे कमीशन को खत्म करने की बात अब नए कानून में कही जा रही है। नई व्यवस्था में प्रावधान है कि आगे से फसल की खरीद मंडी से बाहर भी की जा सकेगी और बाहर होने वाली खरीद पर खरीददार को कोई टैक्स नहीं चुकाना पड़ेगा। ऐसे में आढ़तियों का डर वाजिब है कि अगर मंडी से बाहर बिना किसी टैक्स के खरीद का विकल्प होगा तो कोई भी व्यक्ति मंडी में टैक्स चुकाकर क्यों खरीदने आएगा। लिहाजा मंडी व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगी और इसके साथ ही आढ़ती और उनसे जुड़े लाखों लोगों का काम-धंधा हमेशा के लिए बंद हो जाएगा।
ये डर सिर्फ आढ़तियों को ही नहीं बल्कि किसानों को भी है। मानसा के किसान बीरबल सिंह कहते हैं, ‘आढ़तियों के बिना हमारा गुजारा भी नहीं है। एक बार तो हम अपनी फसल बेच कर पैसा खा लेंगे लेकिन फिर आगे का क्या होगा। अभी तो हमें रात-बेरात कभी भी कोई जरूरत आ पड़ती है तो हम आढ़ती से पैसा ले लेते हैं। क्या प्राइवेट कंपनियां हमें ऐसे पैसा देंगी? किसानों के लिए आढ़ती उनकी जड़ के जैसे हैं। अगर जड़ ही उखड़ जाएगी तो हम कैसे पनप सकेंगे।’
बीरबल सिंह ये इसलिए कह रहे हैं क्योंकि किसानों की खेती की प्रक्रिया आढ़ती से उधार लेने से ही शुरू होती है। वह इसलिए क्योंकि किसानों के पास जमीन तो हैं लेकिन पैसा नहीं है। ऐसे में किसान को न सिर्फ खेती के लिए पैसे की जरूरत होती है बल्कि फसल पकने और बिक जाने तक के सारे खर्चों के लिए उसे आढ़ती पर निर्भर रहना पड़ता है। कुछ बड़े किसानों को छोड़ दें तो लगभग यही स्थिति सभी किसानों की है।
भारत में 86 फीसदी किसानों के पास दो हेक्टेयर से भी कम जमीन है। ऐसे में छोटे किसानों को चिंता है कि आढ़ती कमजोर होंगे तो वह पूरी व्यवस्था कमजोर हो जाएगी, जिससे उनका काम पीढ़ियों से चला आ रहा है। इसलिए किसान आंदोलन में शामिल तमाम किसान सिर्फ अपने एमएसपी की लड़ाई नहीं लड़ रहे बल्कि आढ़तियों को बचाने की लड़ाई भी लड़ रहे हैं। लेकिन इससे इतर ये भी सच है कि आढ़त व्यवस्था अपने-आप में किसानों के लिए किसी दुष्चक्र में फंसे रहने से कम नहीं है।
आढ़ती किसानों को जो पैसा देते हैं उस पर ब्याज वसूला जाता है। यह ब्याज अमूमन 12 फीसदी से लेकर 18 फीसदी तक होता है। खेती के अलावा अन्य जरूरतों के लिए भी किसान आढ़ती से पैसा लेता है। जैसा कि दिवंगत सुषमा स्वराज ने कहा था, बेटी की शादी से लेकर बच्चे की पढ़ाई करानी हो और बाप की दवाई तक हर चीज के लिए किसान आढ़ती के पास जाता है।
आढ़ती ये पैसा किसान को देता भी है लेकिन ये सब ब्याज पर दिया जाता है। फिर किसान की जब फसल बिकती है तो आढ़ती पहले अपना पैसा और ब्याज वसूलते हैं, जो अमूमन किसान द्वारा लिए गए कर्ज से कम ही रह जाता है। लिहाजा किसान फिर से अगली फसल के लिए आढ़ती से कर्ज लेने को मजबूर होता है।
पंजाब किसान यूनियन के राज्य कमिटी सदस्य सुखदर्शन नत्त कहते हैं, ‘पहले तो आढ़तियों की ये व्यवस्था और भी बुरी थी। आढ़ती तीस फीसदी से लेकर 48 फीसदी तक ब्याज किसानों से वसूला करते थे। किसान यूनियनों ने लंबी लड़ाई लड़ी तब जाकर ये ब्याज कम हुआ है।’
वे आगे बताते हैं कि हैं कि इस तरह से ब्याज पर पैसा देना गैर-कानूनी है लेकिन दोनों पक्ष सहमत रहते हैं इसलिए यह व्यवस्था चलती रहती है। इस व्यवस्था को तोड़ने और किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के कुछ विकल्प पहले भी तलाशे गए लेकिन ये कामयाब नहीं हो सके।
छोटे किसानों को बैंकों से तीन लाख रुपए तक का लोन सिर्फ चार फीसदी ब्याज पर देने की व्यवस्था बनी ताकि किसान आढ़ती पर निर्भर न रहे। लेकिन सिर्फ इतने से किसान का काम नहीं चलता। कोई न कोई खर्च ऐसा आ ही जाता है कि उसे वापस आढ़ती के पास जाना पड़ता है लिहाजा ये व्यवस्था बनी रहती है।
किसानों को मजबूत करने के लिए ये भी व्यवस्था बनी कि अनाज की बिक्री का पैसा आढ़ती की बजाय सीधे किसान के खाते में डाला जाए। लेकिन ऐसा होने पर आढ़तियों ने किसानों की चेक बुक ही अपने पास रखना शुरू कर दिया, लिहाजा ये तरीका भी विफल रहा। हालांकि पहले के मुकाबले किसानों की आढ़तियों पर निर्भरता कम जरूर हुई है।
सुखदर्शन नत्त बताते हैं, ‘आज से लगभग बीस साल पहले की अगर बात करें तो उस वक्त पंजाब में करीब 70 फीसदी किसानों पर आढ़तियों का कर्ज होता था और सिर्फ 30 फीसदी किसानों पर बैंक का। लेकिन आज ये आंकड़ा बिलकुल उलट चुका है। हालांकि अब भी आढ़त व्यवस्था में कई तरह की खामियां हैं, लेकिन उनसे निपटने का तरीका ये तो बिलकुल नहीं है जो मोदी सरकार इन कानूनों को लागू करके कर रही है।
हमारी लड़ाई इस बात की नहीं है कि आढ़ती ही खत्म कर दिए जाएं। हमारी लड़ाई है कि किसान मजबूत हो। लेकिन सरकार के इस फैसले से तो दोनों ही मारे जाएंगे इसीलिए इस आंदोलन में किसान और आढ़ती सब साथ खड़े हैं। बल्कि ये आंदोलन सिर्फ किसान या आढ़तियों का नहीं तमाम जानता का कॉरपोरेट के खिलाफ आंदोलन है। इस व्यवस्था से तो किसान की जमीन ही नहीं बचेगी तो क्या किसान रह जाएगा और क्या आढ़ती।’
लगभग यही डर उन तमाम लोगों को भी है जो आढ़तियों के साथ मुनीम या अन्य तरह का काम करते हैं और उनको भी जो मंडियों में मजदूरी का काम कर रहे हैं। मूल रूप से हरदोई के रहने वाले दिनेश कुमार कहते हैं, ‘मैं बीते 28 साल से पंजाब में एक आढ़ती के पास मुनीम का काम कर रहा हूं। मेरी ही तरह लगभग हर आढ़ती के पास दो-तीन मुनीम काम करते हैं। हमसे कहीं गुना ज्यादा संख्या उन मजदूरों की है जो आढ़तियों से जुड़े हैं या जो मंडियों में मजदूरी करते हैं। मंडियां कमजोर होंगी तो सिर्फ आढ़तियों को फर्क नहीं पड़ेगा, हम जैसे लाखों लोगों के पेट पर लात पड़ जाएगी।’
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