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संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने कहा है कि कोविड-19 की अभी तक कोई वैक्सीन नहीं है। यह समझने की जरूरत है कि हमें इसे मिलकर बनाना होगा। उन्होंने कहा कि वैक्सीन का बन जाना ही पर्याप्त नहीं है। इसे हर व्यक्ति और हर जगह पहुंचाने के लिए वैश्विक एकजुटता दिखानी होगी।
पहले भी यूएन ने चेतावनी दी थी
गुटेरेस ने पिछले महीने भी चेतावनी जारी करते हुए कहा था कि कोरोना महामारी से उपजे संकट के कारण दुनियाभर में महामंदी आने वाली है। दुनिया में भुखमरी और अकाल जैसे हालात पैदा हो सकते हैं। ऐसे में एक ही उपाय बचता है कि सभी देश मिलकर इस समस्या का समाधान तलाशें।
भारत ने कहा- हम दुनियाभर में मदद पहुंचा रहे
संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस त्रिमूर्ति ने कोरोना महामारी के दौरान आपसी साझेदारी की जरूरत पर जोर दिया है। उन्होंने कहा कि इस संकट के दौर में भारत दुनियाभर के तमाम देशों में हरसंभव मदद पहुंचाने की कोशिशों में जुटा है।त्रिमूर्ति ने कहा कि हम भारतीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग कार्यक्रम (आईटीईसी) के तहत जरूरी दवाओं, टेस्ट किट और पीपीई किट दूसरे देशों को पहुंचा रहे हैं। रैपिड रिस्पांस टीमें तैनात की जा रही और जानकारियां साझा करने के लिए प्लेटफॉर्म बनाया जा रहा है।
त्रिमूर्ति को पिछले महीने ही सैयद अकबरुद्दीन की जगह यूएन में भारत का स्थायी प्रतिनिधि नियुक्त किया गया है। इससे पहले वे विदेश मंत्रालय में आर्थिक मामलों के सचिव के पद पर रह चुके हैं।
दो राज्यों में शुक्रवार को भूकंप के झटके महसूस किए गए। झारखंड के जमशेदपुर में तीव्रता 4.7 और कर्नाटक के हम्पी में 4 आंकी गई। राष्ट्रीय भूकंप केंद्र के मुताबिक, दोनों जगहों पर एक ही समय यानी सुबह 6.55 बजे ही भूकंप आया। दोनों राज्यों में किसी तरह के नुकसान की खबर नहीं है।
दो महीने मेंदिल्ली-एनसीआर में छहबार भूकंप के झटके महसूस किए गए। हालांकि, भूकंप से कोई नुकसान नहीं हुआ। इनकी तीव्रता 5 से ज्यादा भी नहीं थी।
दिल्ली-एनसीआर में तीन फॉल्ट लाइन
राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र के मुताबिक दिल्ली-एनसीआर में तीन फॉल्ट लाइन हैं। जहां फॉल्ट लाइन होती है, वहीं पर भूकंप का एपिसेंटर बनता है। दिल्ली-एनसीआर में जमीन के नीचे दिल्ली-मुरादाबाद फॉल्ट लाइन, मथुरा फॉल्ट लाइन और सोहना फॉल्ट लाइन हैं।
6 की तीव्रता वाला भूकंप भयानक होता है
भूगर्भ वैज्ञानिकों के मुताबिक, भूकंप की असली वजह टेक्टोनिकल प्लेटों में तेज हलचल होती है। इसके अलावा उल्का प्रभाव और ज्वालामुखी विस्फोट, माइन टेस्टिंग और न्यूक्लियर टेस्टिंग की वजह से भी भूकंप आते हैं। रिक्टर स्केल पर भूकंप की तीव्रता मापी जाती है। इस स्केल पर 2.0 या 3.0 की तीव्रता का भूकंप हल्का होता है, जबकि 6 की तीव्रता का मतलब शक्तिशाली भूकंप होता है।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने कहा है कि कोविड-19 की अभी तक कोई वैक्सीन नहीं है। यह समझने की जरूरत है कि हमें इसे मिलकर बनाना होगा। उन्होंने कहा कि वैक्सीन का बन जाना ही पर्याप्त नहीं है। इसे हर व्यक्ति और हर जगह पहुंचाने के लिए वैश्विक एकजुटता दिखानी होगी।
पहले भी यूएन ने चेतावनी दी थी
गुटेरेस ने पिछले महीने भी चेतावनी जारी करते हुए कहा था कि कोरोना महामारी से उपजे संकट के कारण दुनियाभर में महामंदी आने वाली है। दुनिया में भुखमरी और अकाल जैसे हालात पैदा हो सकते हैं। ऐसे में एक ही उपाय बचता है कि सभी देश मिलकर इस समस्या का समाधान तलाशें।
भारत ने कहा- हम दुनियाभर में मदद पहुंचा रहे
संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस त्रिमूर्ति ने कोरोना महामारी के दौरान आपसी साझेदारी की जरूरत पर जोर दिया है। उन्होंने कहा कि इस संकट के दौर में भारत दुनियाभर के तमाम देशों में हरसंभव मदद पहुंचाने की कोशिशों में जुटा है।त्रिमूर्ति ने कहा कि हम भारतीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग कार्यक्रम (आईटीईसी) के तहत जरूरी दवाओं, टेस्ट किट और पीपीई किट दूसरे देशों को पहुंचा रहे हैं। रैपिड रिस्पांस टीमें तैनात की जा रही और जानकारियां साझा करने के लिए प्लेटफॉर्म बनाया जा रहा है।
त्रिमूर्ति को पिछले महीने ही सैयद अकबरुद्दीन की जगह यूएन में भारत का स्थायी प्रतिनिधि नियुक्त किया गया है। इससे पहले वे विदेश मंत्रालय में आर्थिक मामलों के सचिव के पद पर रह चुके हैं।
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दुनिया में संक्रमितों का आंकड़ा 66 लाख 97 हजार 573 हो गया है। कुल 32 लाख 44 हजार 386 लोग स्वस्थ हुए। 3 लाख 93 हजार 117 लोगों की मौत हो चुकी है। छोटे से देश पेरू में संक्रमण और मौतों का आंकड़ा अब डब्ल्यूएचओ के लिए भी परेशानी का सबब बनता जा रहा है। यहां अब तक पांच हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। सरकार ने तमाम उपाय किए हैं लेकिन, ये कारगर साबित होते नहीं दिखे। अमेरिका में अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद विरोध प्रदर्शन जारी हैं। न्यूयॉर्क के गवर्नर ने कहा है कि प्रर्दशन में हिस्सा लेने वाले लोगों को कोरोना टेस्ट कराना चाहिए।
कोरोनावायरस : 10 सबसे ज्यादा प्रभावित देश
देश
कितने संक्रमित
कितनी मौतें
कितने ठीक हुए
अमेरिका
19,24,051
1,10,173
712,252
ब्राजील
6,15,870
34,039
2,74,997
रूस
4,41,108
5,384
2,04,623
स्पेन
2,87,740
27,133
उपलब्ध नहीं
ब्रिटेन
2,81,661
39,904
उपलब्ध नहीं
इटली
2,34,013
33,689
1,61,895
भारत
2,26,713
6,363
1,08,450
जर्मनी
1,84,923
8,736
1,67,800
पेरू
1,83,198
5,031
76,228
तुर्की
1,67,410
4,630
1,31,778
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पेरू : रोज बढ़ता खतरा
गुरुवार को यहां 137 लोगों की मौत हुई। इसके साथ ही मरने वालों का आंकड़ा 5 हजार 031 हो गया। संक्रमण के नए मामले भी तेजी से सामने आ रहे हैं। 24 घंटे में 4 हजार 284 नए मामले सामने आए। अब कुल आंकड़ा एक लाख 83 हजार 198 हो गया है। लैटिन अमेरिका में ब्राजील के बाद पेरू ही सबसे ज्यादा प्रभावित है। सरकार ने कई उपाय किए हैं लेकिन, अब तक इनसे ज्यादा फायदा नहीं हुआ। इसकी वजह यह कि यहां लोगों ने लॉकडाउन का गंभीरता से पालन नहीं किया। अब डब्ल्यूएचओ की एक टीम यहां दौरा करने वाली है।
अमेरिका : प्रर्दशनकारी टेस्ट कराएं
अमेरिका में संक्रमण का सबसे ज्यादा असर न्यूयॉर्क राज्य पर पड़ा है। मुश्किल तब और बढ़ गई जब अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद विरोध प्रदर्शन हुए। ये अब भी जारी हैं। इनमें ज्यादातर लोगों ने मास्क नहीं पहने। सोशल डिस्टेंसिंग का पालन तो बिल्कुल नहीं हुआ। अब गवर्नर एंड्रू क्यूमो ने कहा है कि विरोध प्रर्दशन में हिस्सा लेने वाले सभी लोगों को टेस्ट कराना चाहिए। क्यूमो के मुताबिक, करीब 30 हजार लोगों को टेस्ट कराना चाहिए। प्रशासन इसके लिए नियम भी बना सकता है।
इंग्लैंड : नया नियम
बोरिस जॉनसन सरकार ने साफ कर दिया है कि 15 जून से पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करने वाले सभी लोगों को मास्क लगाना जरूरी होगा। हालांकि, इसमें बच्चों, बुजुर्गों या सांस की बीमारी वाले लोगों को दूर रखा गया है। ब्रिटेन के ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर ग्रांट शेपर्स के मुताबिक, संक्रमण कम करने के लिए यह बेहद जरूरी है कि लोग खुद जिम्मेदारी समझें। शेपर्स ने कहा कि जिन ट्रेनों को बंद किया गया था वो 15 जून से फिर शुरू की जा सकती हैं। इसके अलावा बस सर्विस भी फिर शुरू की जाएगी। इन सभी साधनों में सरकार के वॉलेंटियर्स तैनात किए जाएंगे।
अमेरिका : खतरा टला नहीं
सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन यानी सीडीसी के मुताबिक, अगर दम तोड़ने वालों की यही रफ्तार रही तो 27 जून तक अमेरिका में मरने वालो का आंकड़ा एक लाख 27 हजार से ज्यादा हो जाएगा। सीडीसी का यह आंकलन 20 संस्थानों के शोध पर आधारित है। हालांकि, रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि आने वाले हफ्तों में संक्रमण और मौत का आंकड़ा कम भी हो सकता है।
ये पहला मौका है जब किसी आपदा के वक्त देश के नाम दान प्रधानमंत्री राहत कोष में मंगवाने के बजाए एक नया फंड बनाकर उसमें मंगवाया जा रहा है। इसे नाम दिया है पीएम केयर फंड।
इस फंड में कितना पैसा आ रहा है और उसे कहां खर्च किया जा रहा है इसका हिसाब किताब पब्लिक नहीं है। जब सूचना के अधिकार कानून के तहत इस फंड से जुड़ी जानकारी मांगी गई तो मालूम हुआ ये आरटीआई के दायरे में नहीं आता।
कोरोनावायरस से लड़ने के लिए बनाए गए ‘पीएम केयर फंड' पर शुरू से ही सवाल खड़े हो रहे हैं। राहुल गांधी तो इसका ऑडिट करवाने की मांग तक कर चुके है।
इससे जुड़े कुछ सवाल हैं। जिनके जवाब देने वाला कोई नहीं। सबसे बड़ा ये कि जब पहले से ही प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष यानी पीएमएनआरएफ था, तो नया फंड बनाने की जरूरत क्या थी?
28 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पीएम केयर फंड का ऐलान किया था, ताकि कोरोना से लड़ने के लिए लोग अपनी इच्छा से डोनेट कर सकें। लेकिन, तीन दिन बाद ही 1 अप्रैल को ही एक आरटीआई दाखिल हुई, जिसमें इस फंड से जुड़ी सभी जानकारी मांगी गई।
आरटीआई दाखिल होने के बाद 30 दिन के भीतर ही उसका जवाब देना जरूरी है। लेकिन, यहां इसमें भी देरी हुई। 29 मई को पीएमओ ने इसका जवाब देते हुए कहा कि ‘पीएम केयर फंड पब्लिक अथॉरिटी नहीं है, लिहाजा इसकी जानकारी नहीं दी जा सकती।'
इसके बाद हमने पीएम केयर फंड को कितना डोनेशन मिला? इसके लिए 28 मार्च के बाद से 4 जून तक की सारी मीडिया रिपोर्ट्स खंगाली। इसमें पता चला कि इन 69 दिनों में इस फंड को कम से कम 9690 करोड़ रुपए तो मिले ही हैं।
हालांकि, बहुत सारी संस्थाएं और सेलेब्रिटी ऐसे भी थे, जिन्होंने पीएम केयर फंड में डोनेशन तो दिया, लेकिन ये नहीं बताया कि कितना डोनेट किया है। इसमें आम लोगों के डोनेशन की भी जानकारी नहीं है।
इसमें सिर्फ वही जानकारी पता चल सकी, जो मीडिया में आ सकी।
पीएम केयर फंड में कहां से कितना पैसा आया?
इस फंड में 28 मार्च के बाद से 4 जून तक 9690.07 करोड़ रुपए का डोनेशन आ चुका है। ये डोनेशन बॉलीवुड सेलेब्रिटी, प्राइवेट कंपनियां, प्राइवेट कंपनियों के कर्मचारियों, सरकारी संस्थाएं, केंद्र मंत्रालय के अधीन आने वाली कंपनियां या संस्थाएं, सरकारी कर्मचारियों, खेल संस्थाएं और खिलाड़ियों, कुछ एनजीओ और कुछ लोगों से मिला है।
इसमें से भी सबसे ज्यादा 5349 करोड़ रुपए सरकारी संस्थाओं, सरकारी कर्मचारियों की एक दिन की तनख्वाह से मिले हैं। जबकि, निजी संस्थाओं और कॉर्पोरेट और कारोबारियों से 4223 करोड़ रुपए से ज्यादा का डोनेशन आया है।
पीएम केयर फंड में 60% डोनेशन सिर्फ 10 जगहों से
कोविड-19 से लड़ने के लिए बनाए गए इस फंड में 60% डोनेशन अकेले 10 जगहों से ही आया है। सबसे ज्यादा 1500 करोड़ रुपए का डोनेशन टाटा सन्स और टाटा ट्रस्ट ने दिया है। टाटा सन्स ने 500 करोड़ और टाटा ट्रस्ट ने 1 हजार करोड़ रुपए दिए हैं।
उसके बाद ऊर्जा मंत्रालय की अधीन संस्थाएं, कंपनियों की तरफ से 925 करोड़ रुपए का डोनेशन मिला है। जबकि, रक्षा मंत्रालय की तरफ से 500 करोड़ रुपए मिले हैं।
सीडीएस जनरल बिपिन रावत ने तो एक साल तक हर महीने 50 हजार रुपए पीएम केयर फंड में देने का फैसला किया है।
पीएम केयर फंड से अभी सिर्फ 3100 करोड़ रुपए खर्च
13 मई को पीएमओ की तरफ से बताया गया कि पीएम केयर फंड में आए डोनेशन से 3100 करोड़ रुपए रिलीज किए गए हैं। इनमें से 2 हजार करोड़ रुपए से 50 हजार मेड इन इंडिया वेंटिलेटर खरीदे जाएंगे। जबकि, बाकी के हजार करोड़ रुपए प्रवासी मजदूरों और 100 करोड़ रुपए वैक्सीन की रिसर्च पर खर्च होंगे।
तो फिर पीएमएनआरएफ क्या है?
आजादी के बाद बंटवारे में पाकिस्तान से भारत लौट रहे लोगों की मदद के लिए जनवरी 1948 में उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लोगों की अपील पर प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष यानी प्राइम मिनिस्टर नेशनल रिलीफ फंड बनाया था
लेकिन, अब इस फंड के पैसों का इस्तेमाल बाढ़, तूफान, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं में मारे गए लोगों के परिजनों या बड़ी दुर्घटनाओं या दंगों के पीड़ितों को तत्काल राहत पहुंचाने के लिए होता है।
ये फंड पूरी तरह से जनता के पैसों से ही बना है और इसमें सरकार किसी भी तरह से कोई सहायता नहीं करती यानी सरकार की तरफ से इस फंड में कुछ नहीं दिया जाता।
पीएमएनआरएफ की वेबसाइट पर मौजूद जानकारी के मुताबिक, 16 दिसंबर 2019 तक इसमें 3 हजार 800 करोड़ रुपए जमा थे। वित्त वर्ष 2018-19 में इस फंड में 738.18 करोड़ रुपए आए थे, जिसमें से सरकार ने 212.50 करोड़ रुपए ही खर्च किए थे।
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में भारत-नेपाल सीमा पर बसा है धारचूला। यहां से एसडीएम कार्यालय के बाहर आज काफी चहल-पहल है। प्रदेश में लॉकडाउन की पाबंदियां तो लगभग खत्म हो चुकी हैं लेकिन इस सीमांत क्षेत्र में भारत-नेपाल सीमा विवाद के चलते कुछ नई तरह की पाबंदियां पैदा हो गई हैं।
एसडीएम कार्यालय पहुंचे लोग इन्हीं पाबंदियों से परेशान होकर यहां फरियाद लेकर आए हैं। ग्वालगाढ के रहने वाले रोहित सिंह भी ऐसे ही एक फरियादी हैं। कुछ ही दिनों पहले रोहित के भाई की एक कार दुर्घटना में मौत हो गई थी।
वे बताते हैं, ‘हमारे यहां परंपरा है कि मृत आत्मा की शांति के लिए उसकी अस्थियां कालापानी में विसर्जित की जाती हैं, जहां से काली नदी का उद्गम होता है। मुझे भाई की अस्थि विसर्जन के लिए कालापानी जाना है और उसी की अनुमति के लिए मैं यहां आया हूं लेकिन अनुमति नहीं मिल रही।’
कालापानी वह जगह है जो इन दिनों भारत-नेपाल सीमा विवाद का केंद्र बनी हुई है। नेपाल का दावा है कि कालापानी भारत का नहीं बल्कि नेपाल का हिस्सा है। इसके साथ ही भारत के लिपुलेख और लिंपियाधुरा को भी नेपाल ने अपने देश का हिस्सा बताया है। पिछले रविवार यहां के लोगों ने रेडियो पर ही ये खबर सुनी थी कि ‘नेपाल सरकार ने अपने देश के नक्शे में बदलाव से संबंधित संविधान संशोधन विधेयक संसद में पेश कर दिया है।
बीती 8 मई को देश के रक्षा मंत्री ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए यहां बनी एक सड़क का उद्घाटन किया था। यह सड़क धारचूला को लिपुलेख से जोड़ती है जो कि कैलाश मानसरोवर जाने वाले यात्रियों का अहम पड़ाव है। इस सड़क के बनने से कैलाश मानसरोवर की यात्रा एक हफ्ते में ही पूरी की जा सकती है जबकि पहले यह यात्रा तीन हफ्तों में होती थी।
लिपुलेख दर्रा भारत, तिब्बत और नेपाल की सीमाओं पर बसा है। भारत के लिए इस सड़क का निर्माण बेहद महत्वपूर्ण है लेकिन नेपाल ने इस सड़क निर्माण पर आपत्ति जताई है और इसके बाद ही कालापानी को अपने देश का हिस्सा बताने वाला संविधान संशोधन बिल संसद में पेश किया है।
इस सीमा विवाद के चलते पिथौरागढ़ जिले के तमाम लोगों के लिए कालापानी फिलहाल ‘कालापानी जैसा दूर' हो गया है। भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों के अलावा किसी को भी इन दिनों कालापानी जाने की इजाजत नहीं है। नई बनी सड़क ने कालापानी को सीधे धारचूला से जोड़ तो दिया है लेकिन इस सड़क पर आवागमन फिलहाल बेहद थमा-थमा है।
आम दिनों में स्थानीय लोगों के कालापानी जाने में कोई रोक-टोक नहीं होती थी। बाहर से आए लोगों को जरूर यहां पहुंचने के लिए इनर लाइन परमिट लेना होता था जो धारचूला के एसडीएम जारी करते थे।
धारचूला के एसडीएम अनिल शुक्ला कहते हैं, ‘ऊपर से ही आदेश हैं कि किसी को भी परमिट जारी नहीं किए जाएं। लॉकडाउन के पूरी तरह खुलने के बाद भी इस साल परमिट जारी नहीं होंगे।’ ऐसा क्यों है, इसका कोई स्पष्ट जवाब अनिल शुक्ला नहीं बताते लेकिन स्थानीय लोग मान रहे हैं कि यह सीमा विवाद के चलते ही हुआ है क्योंकि इस तनाव के बढ़ने से पहले अस्थि विसर्जन के लिए स्थानीय लोगों को कालापानी जाने की अनुमति दी जा रही थी।
वैसे सीमांत क्षेत्रों में बसे गांव के लोगों को अपने-अपने गांव जाने की अनुमति अब भी मिल रही है और नई बनी सड़क इन लोगों के लिए बड़ी राहत लेकर आई है। तिब्बत सीमा के पास बसे इस क्षेत्र के आखिरी गांव कुटी के रहने वाले अर्जुन सिंह बताते हैं, ‘साल 2000 तक हमें अपने गांव पहुंचने के लिए 80 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था। फिर मांग्ती तक सड़क पहुंची तो यह दूरी कुछ कम हुई लेकिन तब भी 60 किलोमीटर से ज्यादा की दूरी थी। ये पहली बार है कि हम गांव तक गाड़ी से जा सकते हैं।’
पिथौरागढ़ जिले के इस क्षेत्र में तीन घाटियां हैं - व्यास घाटी, दारमा घाटी और चौदास घाटी। इन तीन घाटियों में बसे दर्जनों गांव इस नई बनी सड़क से सीधा लाभान्वित हुए हैं। लेकिन इस सड़क के उद्घाटन के बाद भारत-नेपाल संबंधों में जो तनाव आए हैं, उसका सीधा प्रभाव भी इसी क्षेत्र के लोगों पर पड़ता है।
इस क्षेत्र में भारत और नेपाल की सिर्फ भौगोलिक सीमाएं ही करीब नहीं आती बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषायी एकता भी गहराती जाती है। यहां का सामाजिक ताना-बाना नेपाल के साथ इस खूबसूरती से गूंथा हुआ है कि अंतरराष्ट्रीय सीमाएं सिर्फ राजनीतिक नक्शों पर बनी औपचारिकताएं भर ही रह जाती हैं। कहा ही जाता है कि यहां लोगों का नेपाल के साथ ‘रोटी और बेटी का रिश्ता’ है। स्थानीय लोगों का नदी के दूसरी छोर पर बसे नेपाल में शादियां करना आम बात है।
जौलजीबी में ही हमारी मुलाकात हरीश गिरी से होती है। वे कहते हैं, ‘मेरी पत्नी मूल रूप से नेपाल की ही रहने वाली हैं। हमारे कई रिश्तेदार उस पार रहते हैं। लेकिन जब से लॉकडाउन हुआ है हमारा उस तरफ जाना या उधर से किसी का इधर आना पूरी तरह से बंद है, कोई संपर्क नहीं है। हम यहां से 70 किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ जा सकते हैं लेकिन आधा किलोमीटर दूर नेपाल नहीं जा सकते क्योंकि दोनों देश एक-दूसरे के लोगों आने-जाने नहीं दे रहे।’
इस क्षेत्र में जौलजीबी से कालापानी तक दोनों देशों की सीमाएं काली नदी के बहाव की विपरीत दिशा में समानांतर चलती हैं। इस नदी पर कई जगह पैदल पुल बनाए गए हैं जिनसे स्थानीय लोग आसानी से एक-दूसरे के देश में आते-जाते हैं। ये आवागमन हमेशा से इतना सहज रहा है कि नेपाल से कई छात्र तो हर दिन ट्यूशन पढ़ने इस तरफ आते हैं और शाम को लौट जाते हैं।
जब हम अपनी गाड़ी का रेडियो ऑटो-ट्यून करते हैं तो रेडियो पर नेपाली चैनल बजने लगता है। धारचूला के आस-पास नेपाली रेडियो स्टेशन खासे लोकप्रिय हैं, नेपाली संगीत जमकर सुना जाता है और यहां की बोली भाषा से लेकर परंपराएं तक सभी नेपाल से बेहद मिलती-जुलती हैं।
सांस्कृतिक समानता से इतर यहां मूलभूत जरूरतों के लिए भी लोग एक-दूसरे के देश पर निर्भर हैं। नेपाल के तमाम गांवों के लोग राशन इस तरफ से ले जाते हैं तो भारत के कई गांव फोन नेटवर्क नेपाल का इस्तेमाल करते हैं। बल्कि सिर्फ गांव के लोग ही नहीं, भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों के जवान भी नेपाल के सिम कॉर्ड ही इस्तेमाल करते हैं क्योंकि तवाघाट से ऊपर के इलाकों में कोई भारतीय मोबाइल नेटवर्क नहीं है जबकि नेपाली नेटवर्क अच्छे से काम करता है।
सिमखोला गांव के रहने वाले कवींद्र कहते हैं, ‘कोरोना के चलते भारत-नेपाल को जोड़ने वाले सभी पुल बंद किए गए हैं। लेकिन अब इनका पूरी तरह बंद रहना सिर्फ कोरोना के कारण नहीं बल्कि दोनों देशों के बीच आए तनाव के कारण है। ये तनाव अगर बढ़ता है तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान इस इलाके के लोगों को ही होगा। इस घाटी में नेपाल की तरफ पड़ने वाले गांव तो सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे क्योंकि उनका तो राशन तक यहां से जाता है।’
इन दिनों भारत-नेपाल सीमा के इस हिस्से में भारतीय फौज की गतिविधियां भी कुछ तेज हुई हैं और नई बनी सड़क पर भी लगातार काम चल रहा है। दूसरी तरफ नेपाल में भी बॉर्डर के पास हलचल तेज हुई है।
स्थानीय लोग बताते हैं कि यह पोस्ट करीब एक हफ्ते पहले बनाई गई और इसके लिए कुछ लोगों को हेलिकॉप्टर से नदी किनारे उतारा गया था। इसे हालिया सीमा विवाद से न जोड़ते हुए ये लोग बताते हैं कि यह पोस्ट इसलिए बनी है क्योंकि नेपाल यहां एक पैदल रास्ता बना रहा है। माल्पा में सड़क निर्माण का काम कर रहे एक स्थानीय व्यक्ति कहते हैं, ‘ये पोस्ट जल्द ही हट भी जाएगी क्योंकि हम लोग इधर सड़क बनाने के लिए लगातार ब्लास्ट कर रहे हैं। जब आगे ब्लास्ट होंगे तो वह पोस्ट सुरक्षित नहीं रहेगी। इसलिए उन्हें वह हटानी ही होगी।’
लिपुलेख तक बनी नई सड़क अभी कच्ची है और सिर्फ बड़ी एसयूवी या फोर-बाई-फोर गाड़ियां ही इस पर चल सकती हैं। जगह-जगह भूस्खलन के कारण भी यह सड़क आए दिन ब्लॉक हो रही है। लेकिन इसे तुरंत ही खोल भी दिया जाता है और बीआरओ इस सड़क को बेहतर बनाने के लिए लगातार काम कर रहा है।
नाबी गांव के रहने वाले रवि कहते हैं, ‘जब ये सड़क बन रही थी तो कई जगह मशीने पहुंचाना इतना मुश्किल था कि ये मशीनें नेपाल की सीमा से होकर आगे पहुंचाई गई। तब नेपाल ने कोई आपत्ति नहीं जताई कि सड़क क्यों बन रही है। अब हमने टीवी में सुना कि भारत-नेपाल के बीच तनाव बढ़ रहा है। यहां तो कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ। कहने को ये बॉर्डर है पर कभी महसूस ही नहीं हुआ। उस पार हमारे घर जैसे संबंध हैं। ये देशों के बीच तनाव टीवी तक ही रहे, यहां बॉर्डर तक न पहुंचे।’
इंसानों के जंगलों में दखल के बाद पहले ही पेड़ों की संख्या तेजी से घट रही थी लेकिन एक और नकारात्मक बदलाव दिख रहा है। अब पर्यावरण बदल रहा है। दुनियाभर के जंगलों में पेड़ों की लम्बाई छोटी हो रही है और उम्र घट रही है। जैसे तापमान और कार्बन डाइ ऑक्साइड बढ़ रही है, वैसे-वैसे ये बदलाव बढ़ता रहा है। इसकी शुरुआत एक दशक पहले ही शुरू हो चुकी है।
यह रिसर्च अमेरिका के पेसिफिक नॉर्थवेस्ट नेशनल लेबोरेट्री ने दुनियाभर के जंगलों पर की है। रिसर्च कहती है कि अब दुनियाभर के जंगल और पर्यावरण बदल रहे हैं। जंगलों में आग, सूखा, तेज हवा के कारण होने वाला डैमेज मिलकर जंगलों की उम्र को घटा रहे हैं और पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है।
पुराने जंगल अधिक कार्बन डाइ ऑक्साइड सोखते
रिसर्च के प्रमुख शोधकर्ता मैकडॉवेल का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के साथ यह बदलाव बढ़ रहा है। नए जंगल के मुकाबले पुराने जंगलों में विभिन्नताएं हैं और ये ज्यादा कार्बन डाई ऑक्साइड सोखते हैं लेकिन इन पर नकारात्मक असर दिख रहा है। आने वाले समय में हम जो पड़े उगा रहे हैं उसके मुकाबले पुराने जंगल काफी हद तक बदल जाएंगे। जलवायु परिवर्तन को रोकने के दो ही बड़े मंत्र है कार्बन को सोखना और जैव-विविधता यानी बायोडाइवर्सिटी।
इंसान जंगलों को बर्बादी की कगार पर ऐसे ले गए
जंगलों में जो बदलाव दिख रहे हैं वह इंसानों की कारगुजारी का नतीजा हैं। नतीजा है कि दुनियाभर के पुराने जंगल तेजी से खत्म हो रहे हैं। शोधकर्ताओं ने इसे समझने के लिए सैटेलाइट इमेज का इस्तेमाल करके विश्लेषण तो पाया ऐसे पिछले एक दशक हो रहा है। यह पूरे पर्यावरण को बदल रहा है। शोधकर्ताओं ने इसकी दो बड़ी वजह बताई हैं।
पहला- इंसानों को जंगलों में बढ़ता दखल और दूसरी प्राकृतिक आपदाएं जैसे आग, कीट और पेड़ों में फैलती बीमारियां। तेजी से कटते पेड़ तीन तरह से असर डालते हैं, पहला- यहां लोग बढ़ते हैं, दूसरा- कार्बन की मात्रा बढ़ती है और तीसरा पौधे खत्म होने लगते हैं।
जंगलों का दम घोट रहा है बढ़ता तापमान
शोधकर्ता मैकडॉवेल के मुताबिक, तेजी से बढ़ता तापमान और प्राकृतिक आपदा पेड़ों का दम घोट रही है। पिछले 100 सालों में हमने काफी पुराने जंगल खोए हैं। इनकी जगह पर ऐसे पेड़ उगे हैं जो जंगलों की प्रजाति से मेल नहीं खाते थे। इस दौरान नए जंगल उगे। लेकिन तेजी से कटते पेड़ जानवरों और पेड़ों के बीच स्थितियां बदल रही हैं।
एक्सपर्ट ओपिनियन
ये जैसे घटेंगे, इंसान का जीवन मुश्किल होता जाएगा
द इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, मुम्बई के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. उमेश बी काकड़े का कहना है कि पेड़ों और जंगलों को संरक्षित करने की जरूरत है। खाली पड़ी जमीन पर आबादी के मुताबिक अलग-अलग तरह के पेड़ लगाएं। सिर्फ ऑक्सीजन के लिए नहीं बल्कि जानवरों और पक्षियों के लिए ये बेहद जरूरी है। धरती पर ऑक्सीजन और भोजन का यही एकमात्र स्रोत हैं जैसे-जैसे ये खत्म होंगे, इंसान का जीवन मुश्किल होता जाएगा।
इंसानों के जंगलों और वाइल्डलाइफ में दखल का उदाहरण कोरोनावायरस
मुम्बई की पर्यावरणवि्द और आवाज फाउंडेशन की फाउंडर सुमैरा अब्दुलाली कहती हैं, आज हम इंसान अपने जंगलों को ऐसे मैनेज करते हैं ताकि ज्यादा ज्यादा टिम्बर ले सकें। इसलिए जंगलों को एक खास अवधि में काटा जाता है और फिर पौधारोपण किया जाता है। ऐसे जंगलों का मुख्य उद्देश्य टिंबर पैदा करना होता और यहां पर पेड़ों को कभी भी उनकी पक्की उम्र तक बढ़ने नहीं दिया जाता और उन्हें पहले ही काट लिया जाता है इसके अलावा इंसानों के कारण जंगलों में फैली आग और जलवायु परिवर्तन का असर पुराने जंगलों पर हो रहा है। इन्हें बचाने की जरूरत है, दुनियाभर के जंगल यह समस्या झेल रहे हैं।
पर्यावरणवि्द सुमैरा अब्दुलाली कहती हैंकोरोनावायरस जानवरों से इंसानों में पहुंचने की एक वजह यह भी है कि इंसानों का जंगलों और वाइल्डलाइफ में हस्तक्षेप बढ़ रहा है। जिसका असर दुनियाभर में लॉकडाउन के रूप में दिखा। यह बताता है कि इंसान और कुदरत एक-दूसरे पर निर्भर हैं। इस समय पुराने जंगलों को बचाने और संरक्षित करने की जरूरत है। अगर हमने पौधों की प्रजातियां खो दीं तो बदले हुए पर्यावरण का सीधा असर इंसानों और जानवरों पर दिखेगा।
पर्यावरण संरक्षण और प्लास्टिक के खिलाफ मुहिम चलाने वाले 'अ प्लास्टिक प्लैनेट' संगठन ने खास तरह की पीपीई शील्ड तैयार की है। यह दुनिया की पहली प्लास्टिक फ्री पीपीई शील्ड है। इसे लकड़ी से निकलने वाले सेल्यूलोज और कागज की मदद से तैयार किया गया है। जल्द ही इसकी ब्रिकी शुरू होगी। एक पीपीई शील्ड की कीमत 48 रुपए है। 150 पीपीई वाला पैकेट 7000 रुपए में उपलब्ध कराया जाएगा।
4 पॉइंट : क्यों खास है प्लास्टिक-फ्री पीपीई शील्ड
ऑर्गेनिक कचरे के साथ डिस्पोज कर सकते हैं :इसे तैयार करने वाले 'अ प्लास्टिक प्लैनेट' संगठन के डिजाइनर के मुताबिक, हेडबैंड को आसानी से एडजस्ट किया जा सकता है। एक बार इस्तेमाल किए जाने के बाद इसे आर्गेनिक वेस्ट के साथ डिस्पोज किया जा सकता है।
इससे वायरस फैलने का खतरा नहीं :अमेरिकी कम्पोस्टिंग काउंसिल का कहना है कि इससे कोरोनावायरस फैलने का कोई खतरा नहीं है। प्लास्टिक फ्री होने के कारण यह पीपीई कचरे में 3 दिन के अंदर अपने आप खत्म हो जाता है।
लक्ष्य प्लास्टिक पॉल्यूशन को घटाना है :संगठन के को-फाउंडर सियान सुथरलैंडका कहना है कि इसे तैयार करने का लक्ष्य प्लास्टिक पॉल्यूशन को घटाना है। वर्तमान में इस्तेमाल हो रहीं पीपीई एक बार पहनने के बाद सदियों तक पर्यावरण में मौजूद रहेंगी। इसलिए ऐसी पीपीई को तैयार किया गया है जो आर्गेनिक कचरे में खुद-ब-खुद खत्म हो जाएगी।
प्लास्टिक फ्री ट्रस्ट मार्क संगठन से पीपीई को अप्रूवल मिला:पीपीई पर यूरोपियन इकोनॉमिक एरिया ने भी अपनी मुहर लगाई है। इसकी जांच प्लास्टिक फ्री ट्रस्ट मार्क संगठन ने भी जांचा हैऔर अप्रूव किया है। इसे सिंगल या पैकेट दोनों तरह से खरीदा जा सकेगा। जल्द ही मार्केट में उपलब्ध कराया जाएगा।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, मास्क का इस्तेमाल करने के बाद लोग इसे कहीं भी फेंक रहे हैं। हाल ही में हॉन्गकॉन्ग के सोको आइलैंड के बीच पर सैंकड़ों मास्क मिले थे। जो संक्रमण का खतरा फैलाने के साथ पर्यावरण के लिए भी समस्या बढ़ा रहे हैं। इसकी एक तस्वीर भी वायरल हुई थी।
अगर कोरोना के संक्रमण का पता लग गया है तो कफ सिरप लेने से बचें। ये कोरोनावायरस की संख्या को और भी बढ़ा सकता है। यह दावा है कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने किया है। शोधकर्ताओं के मुताबिक, कफ सिरप में मौजूद डेक्सट्रोमेथोर्फेन ड्रग कोरोना को रेप्लिकेट यानी संख्या बढ़ाने में मददगार साबित हो सकता है। सिरप में डेक्सट्रोमेथोर्फेनड्रग का इस्तेमाल खांसी रोकने के लिए किया जाता है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि जरूरी नहीं कोरोना के हर मामले में इसे लेने से स्थिति गंभीर हो जाए या खतरा बढ़े लेकिन वायरस की संख्या बढ़ सकती है।
संक्रमित बंदरों में और बढ़ा संक्रमण
शोधकर्ताओं ने इसकी रिसर्च हरे अफ्रीकन बंदरों पर की जो दवा के असर के मामले में इंसानों जैसे ही हैं। पेरिस के पॉश्चर इंस्टीट्यूट में शोधकर्ताओं की टीम पहुंची। कोरोना से संक्रमित बंदर को जब डेक्सट्रोमेथोर्फेन दिया गया तो उसकी कोशिकाओं में संक्रमण की दर बढ़ी। शोधकर्ता प्रो. ब्रिएन के मुताबिक, ऐसे परिणाम सामने आने के बाद लोगों तक यह बात पहुंचनी जरूरी थी।
बिना डॉक्टरी सलाह लिए जाते हैं ऐसे ड्रग
कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर नेविन क्रोगेन का कहना है कि हमने इस ड्रग को अलग अलग किया जो अक्सर बिना डॉक्टरी सलाह के लिया जाता है। ये संक्रमण को बढ़ावा देता है। लोगों को ऐसे ड्रग लेने से बचना चाहिए। इन पर अभी और रिसर्च की जानी है। यह पता लगाया जाना बाकी है कि कोरोना संक्रमण से पहले ऐसे ड्रग का इस्तेमाल किया जाना चाहिए या नहीं।
यह ड्रग ब्रेन से निकले खांसी के सिग्नल को दबाता है
शोधकर्ताओं के मुताबिक, डेक्सट्रोमेथोर्फेन का इस्तेमाल सर्दी-खांसी की दवाओं में किया जाता है। यह ड्रग मस्तिष्क के उन सिग्नल को दबाते हैं जो खांसी के लिए जिम्मेदार होते हैं। सर्दी-खांसी की ज्यादातर दवाओं में इसका इस्तेमाल होने के कारण कोरोना के लक्षण दिखते ही लोग ऐसे सिरप का इस्तेमाल करना शुरू करते है।
कोरोना को रोकने वाले ड्रग का चल रहा ट्रायल
यह रिसर्च 22 शोधकर्ताओं की टीम ने मार्च में की थी। शोधकर्ताओं के मुताबिक, कई ऐसे ड्रग भी चिन्हित किए गए हैं जो वायरस की बढ़ोतरी को रोकने की कोशिश करते हैं। ऐसे ड्रग्स को कॉम्बिनेशन के रूप में जानवरों पर उनका ट्रायल किया जा रहा है।
लंबे लॉकडाउनों ने रचनात्मकता को भी बाहर लाने का अवसर दिया है, इसलिए मैं भी इस हफ्ते कोरोना काल के ‘नए’ भारत के लिए नोबेल से सम्मानित साहित्यकार रबींद्रनाथ टैगोर की एक कविता का इस्तेमाल करना चाहता हूं (गुरुदेव से माफी के साथ)।
जहां मन भय से मुक्त हो और मस्तक सम्मान से ऊंचा हो... जहां महामारी सरकार के लिए बहाना न हो, बल्कि सरकार और नागरिकों के बीच के संबंध में नागरिकों को पहले रखकर इसे फिर परिभाषित करने का अवसर हो। जहां नियमों का पालन डरकर न हो, बल्कि जानकारी और ज्ञान से हो, जहां प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री साथ में सहयोगियों की तरह काम करें, जहां स्वेच्छाचारिता की जगह लोकतांत्रिक सर्वसम्मति हो, जहां सामान्य प्रशंसक की जगह क्षेत्र में विशेषज्ञता का सम्मान हो।
जहां राष्ट्रीय लॉकडाउन ज्यादा मशविरे के बाद लागू हों, न कि 4 घंटों के नोटिस पर। जहां जरूरी फैसले देश के सबसे बुद्धिमान लोगों से बनी नेशनल टास्क फोर्स लेती हो, न कि दिल्ली-केंद्रित नौकरशाहों का एक समूह। जहां देश की स्वास्थ्य सुविधाएं दशकों में तैयार की गई हों, जहां जन स्वास्थ्य में निवेश निजी विज्ञापन में निवेश से ज्यादा जरूरी हो।
जहां संसद की इमारत फिर से बनाने के बजाय अस्पताल बनाए जाएं, जहां विशालकाय मूर्तियों की जगह स्वास्थ्य केंद्र बनाने को प्राथमिकता दी जाए। जहां झगड़े पूजास्थल के लिए न हों, बल्कि इस बात पर हों कि विवादित जमीन अस्पताल को दी जाए या स्कूल को।
जहां डॉक्टरों को सिर्फ महामारी के समय ‘कोरोना योद्धा’ न माना जाए, बल्कि अच्छे और बुरे समय, दोनों में सम्मान हो। जहां ‘सम्मान’ का मतलब दिये जलाना, ताली-थाली बजाना न हो बल्कि स्वास्थ्यकर्मियों को बेहतर जीवन और सुरक्षा उपकरण देना हो। जहां जो आर्थिक और शारीरिक विस्थापन का सामना करें, उनके साथ अदृश्य ‘प्रवासी मजदूरों’ की तरह बर्ताव न हो, बल्कि उन्हें बराबर नागरिक का दर्जा और अधिकार मिले।
जहां हमारे घर, शहर, पुल और सड़कें बनाने वाले ‘वे’ न कहलाएं, बल्कि ‘हम’ कहे जाएं और उन्हें सामाजिक-वित्तीय सुरक्षा मिलती हो। जहां विस्थापित मजदूरों का दु:ख बताने पर पत्रकारों को गिद्ध न कहा जाता हो, बल्कि सच दिखाने पर सराहा जाता हो।
जहां मजदूरों के लिए अपने गांव पहुंचने के लिए सफर का जरिया मुहैया कराना केंद्र बनाम राज्य का मसला न हो। जहां यूपी जाने वाली ट्रेन राउरकेला न पहुंचती हो, जहां पटरियां नागरिकों के खून से न रंगती हों। जहां एक बच्ची द्वारा घायल पिता को साइकिल पर 1200 किमी ले जाने पर ओलिंपिक की संभावित विजेता के रूप में न देखते हों, बल्कि यह बेहद गरीबी की स्थिति याद दिलाता हो।
जहां हम हवाई मार्ग से भारतीयों को लाने के लिए ‘वंदे भारत’ जैसे लोकप्रिय शब्द इस्तेमाल न करते हों, जब हम जमीन पर फंसे लोगों को बेहतर विकल्प न दे पा रहे हों। जहां ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ केवल संभ्रांतों का विशेषाधिकार न हो, बल्कि सभी नागरिकों के लिए उपलब्ध विकल्प हो।
जहां 50 लोग एक ही टॉयलेट इस्तेमाल न करते हों और दर्जनभर लोग एक ही कमरे में न सोते हैं, जबकि सिंगल परिवार बहुमंजिला इमारत की शान में रहते हो। जहां धारावी को एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी के रूप में न देखा जाता हो, बल्कि शहरी जीवन के पतन के प्रतिबिंब के रूप में देखा जाता हो, जो लाखों को गंदगी में रहने को मजबूर करता हो।
जहां ऑनलाइन एजुकेशन कुछ शहरी स्कूलों तक न सीमित हो, बल्कि डिजिटल असमानता को दूर कर तकनीक को सबतक पहुंचाने पर काम हो।जहां समुदाय विशेष का बहिष्कार न हो और केवल राजनीतिक एजेंडे के लिए धर्म तथा वायरस के बीच झूठी कड़ियां न जोड़ी जाती हों।
जहां मीडिया टीआरपी की दौड़ में उकसाने वाले हैशटैग के साथ खबरों को सनसनीखेज न बनाती हो, जिससे समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ता हो। जहां को-ऑपरेटिव सोसायटी या रेसीडेंट एसोसिएशन फरमानों से चलने वाली निजी जागीर न बनते हों।
जहां घरों में काम करने वालों को कोरोना लाने वाले की तरह न देखा जाता हो। जहां हमें याद रहे कि अमीर लॉकडाउन में नेटफ्लिक्स-जूम के सहारे जी लेंगे लेकिन गरीबों को आय के लिए काम की जरूरत होती है। जहां कॉर्पोरेट, पीएम केयर फंड में उदारता से दान देते हों लेकिन उनकी ‘केयर’ न भूलते हों जो उनके आस-पास हैं।
जहां सरकार ऐसा राहत पैकेज देती हो जिससे सबसे असुरक्षित लोगों को सीधे कैश मदद मिलती हो। जहां संकट में सुधार का अवसर देखते हों, लेकिन सुधार करने वाला पक्षपात न करता हो। जहां अच्छे नेटवर्क वाले उद्योगों को नहीं, बल्कि गरीबों के हितों को ध्यान में रखकर सुधारों को तैयार किया जाता हो। जहां हम ‘आत्मनिर्भर’ भारत को आकर्षक नारे की तरह नहीं बल्कि जीने की वास्तविकता की तरह देखते हों। ...उस सच्ची स्वतंत्रता के स्वर्ग में मेरा देश जागृत हो।
शुक्रवार, 5 जून की रात चंद्र ग्रहण होगा। लेकिन, ये मांद्य यानी उपच्छाया ग्रहण रहेगा। अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के मुताबिक ये ग्रहण यूरोप, एशिया, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया में दिखाई देगा। भारत में आज रात करीब 11.15 बजे से ये ग्रहण शुरू हो जाएगा और करीब 2.35 बजे खत्म होगा। ये ग्रहण मांद्य होने की वजह से इसकी धार्मिक मान्यता नहीं है। इसका सूतक नहीं रहेगा। आज ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा है और इस तिथि से संबंधित सभी पूजा-पाठ किए जा सकेंगे।
उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पं. मनीष शर्मा के अनुसार ये ग्रहण मांद्य रहेगा। मांद्य यानी न्यूनतम, मंद होने की क्रिया। इस ग्रहण में चंद्र घटता-बढ़ता दिखाई नहीं देगा। लेकिन, चंद्र की चमक कम होती है। एशिया के कुछ देशों, यूएस आदि में ये ग्रहण देखा जा सकेगा। इस ग्रहण में चंद्रमा के आगे धूल जैसी छाया दिखाई देगी। इसे आसानी से देखा नहीं जा सकेगा। इस साल 10 जनवरी को भी ऐसा ही चंद्र ग्रहण हुआ था। इसके बाद 5 जुलाई और 30 नवंबर को भी मांद्य ग्रहण होगा।
कैसे होता है मांद्य चंद्र ग्रहण
जब चंद्र, पृथ्वी और सूर्य एक सीधी लाइन में आ जाते हैं, तब पृथ्वी की छाया चंद्र पर पड़ती है। सूर्य की रोशनी सीधे चंद्र तक नहीं पहुंच पाती है। इसी स्थिति को चंद्र ग्रहण कहा जाता है। जबकि मांद्य चंद्र ग्रहण में चंद्र, पृथ्वी और सूर्य एक सीधी लाइन में नहीं रहते हैं। इस दौरान ये तीनों ग्रह एक ऐसी लाइन में रहते हैं, जहां से पृथ्वी की सिर्फ हल्की सी छाया चंद्र पर पड़ती है। चंद्र घटता-बढ़ता नहीं दिखता है, इसे मांद्य चंद्र ग्रहण कहा जाता है।
पूर्णिमा पर कौन-कौन से शुभ काम कर सकते हैं
ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा पर भगवान सत्यनारायण की कथा करें। जरूरतमंद लोगों को धन और अनाज का दान करें। अपने इष्टदेव के मंत्रों का जाप करें। मंत्र जाप की संख्या कम से कम 108 होनी चाहिए। शिवलिंग पर जल चढ़ाएं और ऊँ नम: शिवाय मंत्र का जाप करें।
21 जून को होगा सूर्य ग्रहण
पं. शर्मा के अनुसार आज के चंद्र ग्रहण के बाद 21 जून को खंडग्रास यानी आंशिक सूर्य ग्रहण होगा। ये ग्रहण भारत के अलावा एशिया, अफ्रिका और यूरोप कुछ क्षेत्रों में भी दिखेगा। ग्रहण का स्पर्श सुबह 10.14 मिनट पर, ग्रहण का मध्य 11.56 मिनट पर और ग्रहण का मोक्ष 1.38 मिनट पर होगा। ग्रहण का सूतक काल 20 जून की रात 10.14 मिनट से आरंभ हो जाएगा। सूतक जो 21 जून की दोपहर 1.38 तक रहेगा। इस वर्ष का यह एक मात्र ग्रहण होगा जो भारत में दिखेगा और इसका धार्मिक असर भी मान्य होगा। इसके बाद साल के अंत में सोमवार, 14 दिसंबर को सूर्य ग्रहण होगा, जो कि भारत में नहीं दिखेगा। इसलिए इसका सूतक यहां नहीं रहेगा।
आज कबीरदास की 622वीं जयंती है। हर साल इस दिन वाराणसी के कबीर चौरा मठ में भव्य आयोजन होते हैं और हजारों कबीर पंथी यहां पहुंचते हैं, लेकिन इस बार कोरोनावायरस की वजह से बहुत ही संक्षिप्त रूप में जयंती मनाई जा रही है। कबीर चौरा मठ के उमेश कबीर ने बताया कि इस बार जयंती के कार्यक्रमों को फेसबुक पर लाइव दिखाया जाएगा। भारत के साथ ही अन्य देशों में भी कबीरदास के अनुयायी हैं। इस वर्चुअल जन्मोत्सव में भारत के अलावा नीदरलैंड, हॉलैंड, अमेरिका, इंग्लैंड, थाइलैंड सहित दस से ज्यादा देशों के लोग शामिल होंगे।
भारत में उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ को मानने वाले काफी लोग हैं। कबीर चौरा मठ में हजारों श्रद्धालु, पर्यटक और इतिहास में रुचि रखने वाले लोग हर साल पहुंचते हैं।
कबीर जयंती पर सुबह कबीर के भजन होंगे। मठ के प्रमुख विवेकदास के प्रवचन होंगे। 2 घंटे के कार्यक्रम सुबह के समय रहेंगे। कार्यक्रम में कुछ खास स्थानीय लोग शामिल होंगे। इस दौरान सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया जाएगा। इन कार्यक्रमों का मठ के फेसबुक पेज पर लाइव प्रसारण किया जाएगा। इसके बाद शाम को कबीर के विचारों पर ऑनलाइन सेमिनार होगा। इसमें पटना यूनिवर्सिटी के हरिदासजी, डॉ. भागीरथी और उमेश कबीर शामिल होंगे। इस सेमिनार में कबीर के लाइफ मैनेजमेंट के टिप्स बताए जाएंगे।
600 साल पुराना है कबीर चौरा का इतिहास
उमेश कबीर ने बताया कि कबीर के जन्म के संबंध मान्यता है कि करीब 622 साल पहले काशी के पास स्थित लहरतारा क्षेत्र में तालाब के पास निरू और नीमा नाम के एक मुस्लिम दंपत्ति को एक शिशु मिला था। उस निरू और नीमा का विवाह हुआ ही था। वे दोनों शिशु को लेकर अपने घर आ गए। उनका घर आज के कबीर चौरा मठ क्षेत्र में ही था। यही शिशु आगे चलकर कबीरदास के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कबीर ने इसी जगह को अपनी कर्म स्थली बनाया। वे इसी जगह प्रवचन देते थे, चरखा चलाते थे। कबीरदास से संबंधित तीन प्रमुख स्थान हैं। लहरतारा में उनका जन्म हुआ, काशी जहां उनका जीवन व्यतीत हुआ और मगहर यहां उन्होंने जीवन के अंतिम दिन बिताए।
आज भी मठ में रखा हुआ है कबीर का चरखा
निरू और नीमा जुलाहा दंपत्ति थे। इन्होंने ने ही कबीर पालन किया। कबीर भी पालन करने वाले माता-पिता के साथ ही कपड़ा बनाने का काम करते थे। आश्रम में आज भी कबीर का चरखा रखा हुआ है। कबीर चौरा मठ में कबीर का लकड़ी का घड़ा, सूत भी देख सकते हैं। कुछ समय पहले कबीर की जप माला चोरी हो गई थी, उसके बाद से आश्रम में अतिरिक्त सतर्कता रखी जाती है। आश्रम में एक प्राचीन कुआं है। माना जाता है कि कबीर इसी कुएं से पानी भरते थे। यहां निरू और नीमा की मजार भी है। कबीर ने निरू और नीमा की मृत्यु के बाद अपने माता-पिता को यहीं दफनाया था।
कबीर ने मगहर में बिताए अंतिम दिन
कबीरदास अंधविश्वासों के विरोधी थे। उस समय माना जाता था कि काशी में मरने वाले को स्वर्ग नसीब होता है और मगहर में मरने वाले नर्क जाते हैं। इस अंधविश्वास को तोड़ने के लिए कबीर अंतिम दिनों में मगहर चले गए थे। यहीं उन्होंने देह त्यागी। इसके बाद हिन्दू और मुस्लिमों में मगहर में कबीर की समाधी और मजार बनाई थी। कबीर को मानने वाले लोगों के लिए ये जगह एक तीर्थ स्थान की तरह है। आज भी यहां बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं।
24वें मठ प्रमुख हैं विवेकदास
आचार्य विवेकदास कबीर चौरा आश्रम के 24वें मठ प्रमुख हैं। कबीरदास के बाद 23 लोग इस मठ के प्रमुख पद पर चयनित हो चुके हैं। मठ प्रमुख वही व्यक्ति बन सकता है जो कबीर को मानता हो, मठ से दीक्षा प्राप्त कर चुका हो, कबीर के विचारों को जीवन में उतारता हो, जिसका आचरण धर्म के अनुकूल हो, उसे ही वर्तमान मठ प्रमुख साथी आचार्यों से परामर्श के बाद भविष्य के लिए मठ प्रमुख नियुक्त करते हैं।
दुनिया दशकों से जलवायु परिवर्तन से जूझ रही है। लेकिन, दुनियाभर का नेतृत्व इसका समाधान निकालने में विफल रहा है। इसलिए अब आम आदमी को इस समस्या को अपने हाथ में लेना होगा। ऐसे में बड़ा सवाल खड़ा होता है कि आखिर आम आदमी क्या करे? मेरे हिसाब से समस्या जितनी बड़ी है, उसका समाधान उतना ही आसान है। आम आदमी को सिर्फ दो काम करने हैं- पहला, समस्या को समझना है। दूसरा, इस समस्या की जड़ पर प्रहार करना है। इसे ऐसे समझिए...
समस्या: हम जहरीले रसायन से हरियाली लाने को हरित क्रांति मान रहे हैं
वातावरण में करीब 50% ग्रीन हाउस गैसों की वजह भोजन उगाने का तरीका और भोजन की बर्बादी है।
बुनियादी समस्या ‘जलवायु परिवर्तन’ नाम में है। अगर किसी को दिल का दौरा पड़े तो हम यह नहीं कहते कि दिल बदल रहा है। जलवायु को दिल का दौरा पड़ा है और हम उसे क्लाइमेट चेंज कह रहे हैं। यह क्लाइमेट ब्रेकडाउन है। वातावरण में हानिकारक ग्रीन हाउस गैसें (कार्बन डाइऑक्साइड) बढ़ रही हैं। इससे धरती का तापमान बढ़ रहा है। सूखा, बाढ़ और तूफान की बढ़ती घटनाएं इसी का नतीजा हैं।
समाज प्रकृति के साथ जिस तरह का व्यवहार कर रहा है, पर्यावरण की बुनियादी समस्या उसी वजह से है। क्योंकि, प्रकृति हवा, पानी, जल, जंगल जैसी बहुमूल्य सेवा के लिए हमें बिल नहीं भेजती है। इसलिए हम उसकी कद्र नहीं कर रहे हैं। कोयला और तेल (फॉसिल फ्यूल) के इस्तेमाल के अलावा खेती और खानपान के हमारे तौर-तरीकों से भी ग्रीन हाउस गैसें बढ़ रही हैं।
मसलन खेती में कीटनाशकों का इस्तेमाल बेतहाशा बढ़ गया है और हम इसे हरित क्रांति मान बैठे हैं। इससे जमीन बंजर हो रही है। फसल में जहर घुल रहा है और लोग इसे खाकर बीमार हाे रहे हैं। दूसरी तरफ हम खाने को बर्बाद कर रहे हैं। अमेरिका जैसे देशों में तो लोग आधा खाना फेंक देते हैं। यह ट्रेंड भारत समेत पूरी दुनिया में बढ़ रहा है।
एक अनुमान के मुताबिक, दुनिया में कुल बने खाने का एक तिहाई हिस्सा फेंका जाता है। खाना सड़ने से बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं। ग्रीन हाउस गैसों का 50% उत्सर्जन खराब खेती, फसलों के ट्रांसपोर्ट और खाने की बर्बादी की वजह से है। हम जंगल खत्म कर रहे हैं, जो कार्बन डाइऑक्साइड सोखते हैं। यह और घातक है।
समाधान: वही खाएं जो आसपास उगे, खाली जमीन में पेड़ लगाएं
पेड़ जमीन के कपड़े और इंसानों के लिए स्वस्थ रहने की ढाल हैं। ये पर्यावरण व मौसम को हमारे लायक बनाते हैं।
किसान को अपनी जमीन से प्यार करना होगा और रसायन वाली खेती छोड़नी होगी। आखिर जंगलों में भी तो पेड़-पौधे बिना रसायन के उगते ही हैं। आम आदमी को भी किसानों से कीटनाशक रहित अनाज, फल और सब्जी की मांग करनी चाहिए। क्योंकि जब तक मांग नहीं होगी, तब तक किसान पैदा नहीं करेंगे।
हमें अपने आसपास होने वाले मौसमी फल-सब्जियां और अनाज का इस्तेमाल करना चाहिए। खाने-पीने की बाहर से मंगाई गई चीजें महंगाई बढ़ाती हैं। यह धारणा बिल्कुल गलत है कि जो चीज महंगी है, वो पौष्टिक भी होगी।
पेड़ जमीन के कपड़े और इंसानों के लिए स्वस्थ रहने की ढाल हैं। खाली जमीन पर, खास तौर पर नदियों-तालाबों के आस-पास बड़े और चौड़े पत्तों के पेड़ लगाएं। इससे जमीन में नमी रहेगी। हवा भी शुद्ध होगी।
पर्यावरण बचाने के लिए हमें आपको प्रकृति के पास जाना होगा। प्रकृति से हमें सबकुछ उपहार मेंं मिल रहा है, इसलिए हम उसकी कद्र नहीं करते। आज किसानों को फसल का उत्पादन बढ़ाने के लिए मधुमक्खियां किराए पर लेनी पर पड़ रही हैं। हमें अपने वातावरण में पल रहे अन्य जीव-जंतुओं की कद्र करना सीखना होगा।
भारत में समुदाय एक ताकतवर पूंजी है, जो दुनिया में बहुत कम देशों के पास है। लोगों को सहभागी बनाकर जल, जंगल, जमीन का संरक्षण बेहद आसानी से किया जा सकता है। लोगों को पर्यावरण की चिंता मिलजुलकर करनी होगी।
मलेरिया की दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन कोरोना का संक्रमण नहीं रोक सकती। यूनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा और कनाडा के शोधकर्ताओं ने एक स्टडी में यह दावा किया है। यह स्टडी 821 लोगों पर की गई। ये लोग कोरोना मरीजों के संपर्क में रहे थे। इनमें स्वास्थ्यकर्मी और उनके परिजन आदि शामिल हैं। हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन पर यह पहला बड़ा क्लीनिकल ट्रायल माना जा रहा है।
यह ट्रायल अमेरिका और कनाडा प्रशासन की मदद से किया गया। इसे इसलिए भी अहम माना जा रहा है क्योंकि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प कहते रहे हैं कि हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन से संक्रमण रोका जा सकता है, इसलिए वह इसका सेवन करते हैं।
शोधकर्ताओं की टीम के प्रमुख डॉ. डेविड आर बोलवारे ने कहा कि हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन संक्रमण रोकने में प्रभावी नहीं है। जिन लोगों पर स्टडी की गई वे कोरोना मरीजों से 6 फीट से कम दूरी पर कम से कम 10 मिनट तक रहे थे। इन लोगों ने मास्क और फेस शील्ड भी नहीं लगाया था।
खुलासा: व्हाइट हाउस बोला- ट्रम्प ने 2 हफ्ते ली मलेरिया की दवा, बुरा प्रभाव नहीं पड़ा
व्हाइट हाउस के डॉक्टरों की टीम ने कहा है कि राष्ट्रपति ट्रम्प ने 2 हफ्ते तक मलेरिया की दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन ली थी। टीम ने इस दौरान उनके स्वास्थ्य पर करीबी नजर रखी। टीम के सदस्य डॉ. सीन कॉनले ने कहा कि राष्ट्रपति स्वस्थ हैं। उन पर हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का बुरा प्रभाव नहीं पड़ा है। उनकी स्वास्थ्य स्थिति में मामूली बदलाव है। उनका एक पाउंड वजन बढ़ा हैजबकि कोलेस्ट्रॉल लगातार कम हो रहा है।
फैसला: ट्रम्प प्रशासन ने वैक्सीन कैंडिडेट के लिए 5 कंपनियों का चयन किया
ट्रम्प प्रशासन ने कोरोना के वैक्सीन कैंडिडेट के लिए 5 कंपनियों का चयन किया है। ये कंपनियां मॉडेर्ना, जॉनसन एंड जॉनसन, मर्क, फाइजर और ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका ग्रुप हैं। ट्रम्प चाहते हैं कि देश में कोरोना वैक्सीन जल्द से जल्द बने। इसके लिए मॉडेर्ना, जॉनसन एंड जॉनसन और ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका ग्रुप को 16610 करोड़ रु. सरकारी फंड मिल चुका है। अमेरिका में कोरोना के 19,02,779 मामले आए हैं। जबकि 1,09,159 मौतें हुई हैं।
सफलता: मरीज की एंटीबॉडी से बनाई कोरोना की दवा, ट्रायल शुरू
अमेरिका की एली लिली कंपनी ने दावा किया है कि उसने ठीक हो चुके कोरोना मरीज की एंटीबॉडी से दवा बनाई है। इससे अन्य कोरोना मरीज ठीक हो सकते हैं। इस दवा का ट्रायल शुरू हो गया है। इसे एलवाई- सीओवी 555 नाम दिया गया है। एली लिली कंपनी ने इसे बनाने में सेल्लेरा बायोलॉजी कंपनी की मदद ली है।
इससे पहले मार्च में दोनों कंपनियों में करार हुआ था। ट्रायल के पहले चरण में दवा की सुरक्षा और उसे अस्पताल में भर्ती मरीजों के सहन करने की क्षमता का पता लगाया जाएगा। ट्रायल सफल रहा तो जल्द ही इसे बाजार में लाएंगे। मरीज से ब्लड सैंपल लेने के मात्र 3 महीने के अंदर यह दवा तैयार की गई है।
इससे कोरोना के स्पाइक प्रोटीन की संरचना को निष्क्रिय किया जा सकता है। साथ ही इससे कोरोना शरीर की स्वस्थ कोशिकाओं तक नहीं पहुंच सकेगा, न ही इन्हें नुकसान पहुंचाएगा।
अमेरिका से रूस पहुंचे वेंटिलेटर
अमेरिका से 200 वेंटिलेटर रूस पहुंचे। रूस में कोरोना के 4,41,108 केस आए हैं। जबकि 5,384 मौतें हुई हैं।
केरल की मीनागड़ी पंचायत देश की पहली कार्बन न्यूट्रल पंचायत बनने जा रही है। यहां के लोग जितना कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं, उसकी भरपाई इको फ्रेंडली एक्टीविटीज से कर रहे हैं। जैसे चार साल में यहां 10 लाख पेड़ लगाए गए हैं। इससे पंचायत में फॉरेस्ट कवर 50% हो गया।
पंचायत की अध्यक्ष बीना विजयन बताती हैं कि शुरू में हमारे पास कोई याेजना नहीं थी। लेकिन, समय के साथ हमने मॉडल विकसित कर लिया है। विशेषज्ञों की टीम 4 साल से पंचायत को कॉर्बन उत्सर्जन मुक्त बनाने का काम कर रही है। अब तो 85% काम पूरा कर लिया है।
हालांकि, अभी भी हम 17 हजार टन अधिक उत्सर्जन कर रहे हैं, जिसकी हमें भरपाई करनी है। जुलाई तक हम इसे कवर कर लेेंगे। लॉकडाउन का भी हमारे प्रयासों पर सकारात्मक असर हुआ है। गांव के अब्बास बताते हैं कि अब पंचायत के हर घर में फलदार पेड़ और किचन गॉर्डन हैं।
बड़ी हरियाली का ही नतीजा है कि यहां ऐसे पक्षी भी दिखने लगे हैं, जो दिखना बंद हो गए थे। स्कूल शिक्षक रहे ओवी पवित्रन कहते हैं कि यह इसलिए हो पाया, क्योंकि सभी ने अपने हिस्से का काम किया। यहां स्कूल की 4 चार एकड़ जमीन पर भी बांस लगाए गए थे। अब यह बेंबू पार्क बन गया है।
चार साल पहले जब पंचायत में लोगों ने मौसम को लेकर चिंता जताई थी, तब राज्य सरकार के सहयोग से यह काम शुरू हुआ था। इसके लिए विशेषज्ञों की एक टीम बनाई गई थी, जिसमें स्वामीनाथन फाउंडेशन, कन्नूर यूनिवर्सिटी और नीदरलैंड्स की डेल्प्ट यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञ हैं।
पंचायत के मॉडल के 6 कदमः
पेड़ों की गणना की गई, मिट्टी और पेड़ों में कार्बन स्तर को जांचा गया
पेड़ों की गणना की। मिट्टी-पेड़ों में कार्बन स्तर का मूल्यांकन किया। यह इसलिए किया ताकि मिट्टी और वातावरण में मौजूद कार्बन की मात्रा पता की जा सके। हवा में मौजूद कार्बन पर्यावरण के लिए खतरा है।
हर परिवार के फ्यूल खर्च और कचरा उत्पादन का डेटा जुटाया गया
मीनागड़ी से गुजरने वाले मैसूर-कोझिकोड हाईवे पर आने-जाने वाले वाहनों की गिनती की। गांव के वाहनों की भी गिनती की गई। इस तरह हर परिवार का औसतन फ्यूल खर्च और कचरा उत्पादन का डेटा जुटाया गया।
गणना की गई कि हर व्यक्ति औसत कितना कार्बन उत्सर्जन कर रहा है
इन डेटा से यह गणना की गई कि औसत एक शख्स कितना कार्बन उत्सर्जन कर रहा है। फिर कार्बन उत्सर्जन घटाने की योजना बनाई गई। सबसे आसान तरीका यह था- खूब सारे पेड़ लगाए जाएं।
लोग अपनी जमीन पर पेड़ लगाएं, 85 लाख रु. की प्रोत्साहन स्कीम लाए
पंचायत ने 34 एकड़ जमीन पर 7.5 लाख पौधे लगाए। लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए 85 लाख रु की राशि जारी की। लोगों ने 3.5 लाख पेड़ अपनी जमीन पर लगाए।
घर के कचरे से खाद बनाई, इसका इस्तेमाल 3500 परिवार कर रहे हैं
कचरे को खत्म करने के लिए घर-घर से कचरा जुटाया गया। उसकी खाद बनाई गई। अब 3500 परिवार अपने किचन गार्डन में कचरे से बनी खाद इस्तेमाल कर रहे हैं।
नई पीढ़ी को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें निशुल्क साइकिल दी जा रही है
नई पीढ़ी को तैयार किया जा रहा है कि वे मोटर व्हीकल का इस्तेमाल कम करें। उन्हें पर्यावरण के बारे में पढ़ाया जा रहा है। 450 छात्रों को साइकिल निशुल्क दी गई है।
दुनिया की कई प्रतिष्ठित संस्थाओं की रिसर्च से जाहिर हुआ है कि जहां वायु प्रदूषण ज्यादा है, वहां कोरोना ज्यादा जानलेवा रहा है। भारत में भी यही ट्रेंड देखा गया है। यहां मुंबई, दिल्ली, अहमदाबाद, चेन्नई, पुणे उन बड़े शहरों में है जहां वायु प्रदूषण सबसे अधिक है। यहां देश के करीब 40% संक्रमण के मामले मिले। यहां कोरोना से मृत्यु दर 3.85% है, जो देश के औसत 2.8% से अधिक है। हाल ही में छत्तीसगढ़ के राज्य स्वास्थ्य संसाधन केंद्र की स्टडी में यही नतीजे सामने आए हैं।
अमेरिकाः जो इलाके ज्यादा प्रदूषित वहां 15% मृत्यु दर रही
हॉवर्ड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन से पता चलता है कि अमेरिका में जहां प्रदूषण का स्तर अधिक है, वहां कोरोना से मृत्यु दर 15% रही। यानी जो व्यक्ति 2.5 पीएम के उच्च स्तर के प्रदूषित इलाके में कई दशक से रह रहा है, उसे कोरोना होने पर मौत की आशंका 15% बढ़ जाती है। स्टडी के अनुसार, कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित अमेरिका के कई इलाकों में पीएम 2.5 का स्तर 1 क्यूबिक मीटर में 13 माइक्रोग्राम रहा। यह अमेरिकी औसत 8.4 से बहुत अधिक है। अगर मैनहट्टन में एक माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर कम प्रदूषण कण होते, तो शायद 248 मौतें कम होतीं।
चीनः 120 शहरों में संक्रमण के मामले क्योंकि प्रदूषण ज्यादा
कोरोना के जन्मस्थल माने जाने वाले चीन की बात करें, तो यहां के 120 शहरों के प्रदूषण स्तर को शोधकर्ताओं ने कोविड महामारी फैलने से जोड़ा है। यहां 1 क्यूबिक मीटर में 10 माइक्रोग्राम कणों की बढ़त देखने को मिली, जिसके चलते संक्रमण के पॉजिटिव मामलों में वृद्धि हुई। यह कोई पहली बार नहीं है कि जब वायरस संक्रमण से होने वाली मौतों को प्रदूषण से जोड़कर देखा जा रहा है। 2003 में चीन के सार्स के मरीजों पर हुए एक शोध में यही कहा गया था। उसके मुताबिक, यदि मरीज उच्च स्तर के प्रदूषण वाले इलाकों में रहते, तो मरने वालों की संख्या में 84% की बढ़ोतरी होती।
इटली: उत्तरी इटली सबसे ज्यादा प्रदूषित, यहां मृत्युदर 12%
उत्तरी इटली के लोम्बार्डी और एमिलिया रोमाग्ना इलाके में मृत्यु दर बाकी इटली (4.5%) की तुलना में 12% थी। इसकी प्रमुख वजहों में एक प्रदूषण भी है। रिसर्च के अनुसार, हवा से फैले छोटे कणों ने वायरस फैलाया। इटली के अन्य स्थानों की तुलना में पीओ घाटी में प्रदूषण अधिक है। शोधकर्ताओं ने एक अन्य रिसर्च का हवाला देते हुए कहा है कि इंफ्लूएंजा, सांस नली को प्रभावित करने वाले अन्य वायरस और चेचक वायु कणों के सहारे फैले हैं। लिहाजा, मानव संपर्क के अलावा प्रदूषण में कमी भी वायरस के फैलाव को रोकने का एक रास्ता हो सकता है।
देश में कोरोनावायरस से संक्रमितों की संख्या 2 लाख 2 हजार 713 हो गई। गुरुवार को एक दिन में सबसे ज्यादा 9838 नए मामले सामने आए। इससे पहले बुधवार को भी 9638 मरीज मिले थे। महाराष्ट्र में मरीजों की संख्या 77 हजार, तमिलनाडु में 27 हजार और दिल्ली में 25 हजार के पार पहुंच गई है।
महाराष्ट्र में गुरुवार को 2933 केस सामने आए। यह एक दिन का सबसे बड़ा आंकड़ा है। यानी कल संक्रमितों में 14.57% का इजाफा हुआ। इससे पहले बुधवार को 2560 केस आए थे। उधर, देश में मौतों में भी तेजी से इजाफा होता जा रहा है। गुरुवार को 274 मौतें हुईं। इसके साथ देश में इस बीमारी से मरने वालों की संख्या 2710 हो गई है। पिछले साथ दिन से देश में 200 से ज्यादा मरीजों की मौत हो रही है।
5 दिन जब सबसे ज्यादा मामले आए
तारीख
केस
3 जून
9638
2 जून
8820
31 मई
8789
30 मई
8364
29 मई
8138
5 राज्यों का हाल मध्य प्रदेश: यहां गुरुवार को 174 पॉजिटिव मरीजमिले और 6 लोगों की जान गई। भोपाल में 58, इंदौर में 36, बुरहानपुर में 11, सागर और नीमच में 10-10 जबकि ग्वालियर में 7 संक्रमित बढ़े हैं।भोपाल में मरीजोंकी संख्या 1630हो गई। उधर, राज्य में अब तक 8762 कोरोना के मरीज मिलचुके हैं। 377 ने जान गंवाई।
महाराष्ट्र:यहां गुरुवार को2933 नए मामले सामने आए। एक दिन में सबसे ज्यादा 123 लोगों की मौत हुई और 1352 ठीक हुए। प्रदेश मेंकुल मरीजों की संख्या77 हजार 793 तक पहुंच गई है। अकेले मुंबई में ही 44 हजार से ज्यादा संक्रमित हैं। राज्य मेंअब तक 2710 लोगों ने कोरोना से जान गंवाई।
बिहार: प्रदेश में गुरुवार को 126 पॉजिटिव मरीज सामने आए और 3 की मौत हुई।खगड़िया में 12, पूर्णिया में 13, गोपालगंज में 10, पटना में 5 जबकि बांका, गया, सहारसा और मधेपुरा में 4-4संक्रमित मिले। राज्य में अब मरीजों की संख्या 4452 हो गई है।28 लोगों ने कोरोना के कारण जान गंवाई है।
उत्तर प्रदेश:राज्य मेंगुरुवार को 367 संक्रमित मरीजमिले। नए मरीजों की संख्या लगातार तीसरे दिन 300 से ज्यादा बढ़ी। इन नए केसोंमें62 प्रवासी श्रमिक हैं। अब तक 2466 प्रवासी श्रमिक संक्रमित पाए गएहैं। संक्रमितों का आंकड़ा 9237 हो गया, जबकि 245 मरीजों की मौत हुई है।
राजस्थान:यहां गुरुवार को 210 नए मरीज सामने आए और 4 की मौत हुई। भरतपुर में 49, जोधपुर में 29, चूरू में 25,जयपुर और सीकरमें 12-12 जबकि कोटा में 7 पॉजिटिव मिले। इसके साथसंक्रमितोंकी संख्या 9862हो गई है। प्रदेश में अब तक 213 मरीज जान गंवा चुके हैं।