राजाधिराज द्वारकाधीश के मंदिर के दर्शन के बाद मैंने बेट द्वारका की ओर प्रस्थान किया। इसके लिए मुझे द्वारका से 30 किमी दूर ओखा बंदरगाह पहुंचना था, जहां से बोट से बेट द्वारका पहुंचा जाता है। द्वारका के
मुख्य द्वार से बाहर निकलने के बाद लगभग 2 किमी दूर ही भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी देवी रुक्मणी का प्राचीन मंदिर है।
मंदिर में दर्शन करने के बाद जब पुजारी से बात की तो इसकी कहानी मालूम हुई कि किस तरह ऋषि दुर्वासा के श्राप के चलते भगवान श्रीकृष्ण और देवी रुक्मणी को 12 सालों का वियोग सहना पड़ा और द्वारकानगरी का महल होने के बावजूद भी माता रुक्मणी के निवास के लिए अलग से यह मंदिर बनाना पड़ा था।
सुदीर नाम के ब्राह्मण ने रुक्मणी का पत्र भगवान कृष्ण तक पहुंचाया था
रुक्मणी मंदिर में पिछले 20 साल से पुजारी के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे जयेशभाई दवे बताते हैं कि रुक्मणी माता के पत्र का श्रीमद भागवत के 10वें स्कंध में उल्लेख है। अमरावती की राजकुमारी रुक्मणी के पिता उनकी शादी शिशुपाल से करना चाहते थे, लेकिन रुक्मणी भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना पति मान चुकी थीं। इसी के चलते उन्होंने सुदीर नाम के एक ब्राह्मण से अपने मन की बात लिखकर एक पत्र भगवान श्रीकृष्ण तक पहुंचाया था।
इसी के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने रुक्मणी का हरण कर चैत्र सूद एकादशी को उनसे विवाह कर लिया था। आज भी भगवान श्रीकृष्ण की शयन आरती में रुक्मणी का लिखा यही पत्र पढ़ा जाता है।
रथ में खुद जुत गए थे भगवान द्वारकाधीश और देवी रुक्मणी
श्रीकृष्ण दुर्वासा ऋषि को अपना कुलगुरु मानते थे। इसीलिए भगवान कृष्ण और देवी रुक्मणी शादी के बाद दुर्वासा ऋषि के आश्रम पहुंचे। उन्होंने ऋषि से महल आकर भोजन ग्रहण करने और आशीर्वाद देने का आग्रह किया। जिसे ऋषि ने स्वीकार तो लिया, लेकिन एक शर्त रख दी की आप जिस रथ से आए हैं, उस रथ को आप दोनों को ही खींचना होगा।
भगवान ने उनकी शर्त मान ली और दोनों घोड़ों को निकालकर उनकी जगह स्वयं श्रीकृष्ण और देवी रुक्मणी रथ में जुत गए। द्वारका से करीब 23 किमी दूर टुकणी नामक गांव के पास देवी रुक्मणी को प्यास लग आई। उनकी प्यास बुझाने के लिए श्रीकृष्ण ने जमीन पर पैर का अंगूठा मारा, जिससे गंगाजल निकलने लगा, जिससे दोनों ने प्यास तो बुझा ली, लेकिन जल के लिए दुर्वासा ऋषि से नहीं पूछा, जिससे वे क्रोधित हो गए।
दुर्वासा ने 2 श्राप दिए, जिसके कोप से भगवान भी नहीं बच सके
क्रोध में दुर्वासा ऋषि ने भगवान कृष्ण और देवी रुक्मणी को दो श्राप दिए। पहला श्राप था कि भगवान और देवी रुक्मणी का 12 साल का वियोग होगा और दूसरा श्राप दिया कि द्वारका की भूमि का पानी खारा हो जाएगा। इसी वजह से देवी रुक्मणी के भगवान द्वारकाधीश की पटरानी होने के बावजूद भी उनके निवास के लिए अलग से मंदिर बनवाया गया। फिर 12 साल की तपस्या के बाद रुक्मणी वापस द्वारका आईं।
दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण यहां जल का दान किया जाता है। मान्यता है कि यहां प्रसाद के रुप में जल दान करने से भक्तों की 71 पीढ़ियों का तर्पण हो जाता है।
रुक्मणी मंदिर के पुजारी कहते हैं, भक्तों के बिना तो भगवान भी उदास हो जाते हैं
रुक्मणी मंदिर के पुजारी जयेशभाई कहते हैं कि पिछले 500 सालों में पहली बार ही हुआ है कि जन्माष्टमी के पर्व पर जगत मंदिर और रुक्मणी मंदिर के पट नहीं खुल रहे हैं। यहां हर साल सप्तमी से जन्माष्टमी के बीच यानी की 4 दिनों में ही करीब 5 लाख श्रद्धालु पहुंचते हैं, जिनके आगमन से पूरी द्वारकानगरी में उत्साह का संचार हो जाता है, लेकिन इस बार यहां सिर्फ सन्नाटा है।
भक्त ही मंदिर की शोभा हैं और भक्तों के बिना तो भगवान भी उदास हो जाते हैं।
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