जाने कौन-सी धुन में रहती है यह सरकार! अब खेती और उसकी उपज के निजीकरण पर उतारू है। मंडियां बिकने को हैं। सुनने वाला कोई नहीं। कुल मिलाकर इस केंद्र सरकार को राजनीति के सिवाय कुछ नहीं आता।
दरअसल, केंद्र में बैठी जिस सरकार को राज्यों में सरकारें बनाने-गिराने का शौक़ हो, छोटे दलों को दोस्त बनाकर उन्हें मटियामेट करने की जिज्ञासा हो, वह आम आदमी, किसान या गरीब का भला करते सिर्फ दिखाई देना चाहती है। असल में कॉर्पोरेट जगत का भला करने के सिवाय उसके पास कोई चारा नहीं होता। क्योंकि तमाम तोड़-फोड़ की ऊर्जा उसे वहीं से मिलती है।
किसानों की फसल बिक्री, कॉन्ट्रेक्ट फ़ार्मिंग आदि से जुड़े हाल में लाए गए तीन विधेयक निश्चित रूप से किसानों के खिलाफ हैं। कोई ग्राउंड पर जाकर देखना ही नहीं चाहता। बंद कमरों में बैठकर क़ानून बनाने वाले लोगों को कैसे पता होंगी असल दिक्कतें?
कोई भी किसान कहीं भी फसल बेच सकता है
ताजा कृषि विधेयकों पर उठे तमाम सवालों का सरकार के पास एक ही जवाब है - अब पूरा देश एक मंडी है। कोई भी किसान, कहीं भी अपनी फसल बेच सकता है। जहां ज़्यादा भाव मिले वहां बेच सकता है। किसानों का इससे भला होगा। भला कैसे होगा, यह न सरकार को पता है, न उसकी ओर से जवाब देने वाले मंत्रियों, सिपहसालारों को।
किसानों की आशंका यह है कि सरकारी ख़रीद बंद हो जाएगी। हालांकि यह आशंका भी ठीक नहीं है लेकिन इतना तय है कि सरकारी मंडियां अपनी ख़रीद की मात्रा कम ज़रूर करेंगी। मंडियां खुलते ही बंद हो जाएंगी। कौन कॉर्पोरेट वहां किन किसानों के नाम से फसल बेच गया, पता ही नहीं चलेगा।
अब मोटी धांधलियां शुरू होंगी
मंडियों में अभी छोटी धांधलियां होती हैं, अब मोटी धांधलियां शुरू हो जाएंगी। सरकार कहती है कहीं भी फसल बेचने की सुविधा मिलने से किसानों को अच्छे दाम मिलेंगे। अगर यह सही है, तो सरकारी मंडियों के बाहर की हर ख़रीद पर भी सरकार समर्थन मूल्य को अनिवार्य क्यों नहीं करती?
किसान चाहता यही है कि ख़रीद कहीं भी हो, निजी या सरकारी, हर जगह समर्थन मूल्य की अनिवार्यता लागू कर दी जाए लेकिन किसानों का भला सोचने वाली सरकार को यह सीधी सी बात समझ में नहीं आती या वह समझना ही नहीं चाहती। अगर किसान का भला ही सोचना है तो ऐसी फसल लाइए जिस पर भारी बारिश का असर न हो या कम बारिश के कारण भी उपज में कमी न आए। लेकिन यह कोई नहीं करना चाहता। पेड़ कोई नहीं लगाना चाहता। सब के सब फसल काटने आ जाते हैं।
कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग भी बड़ा धोखा है
जहां तक कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का सवाल है, यह भी बड़ा धोखा ही है। फसल बोने से पहले कोई कॉर्पोरेट आपसे सौदा कर लेगा और फिर उसी को सारी फसल देनी होगी। इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन कोई विवाद होता है, जो कि होता ही है तो उसका निबटारा एसडीएम या कलेक्टर स्तर पर होगा। अब एसडीएम कॉर्पोरेट का पक्ष लेगा, या गरीब किसान का, यह भगवान ही जाने।
कहीं भी फसल बेचने से क्या लाभ होगा, यह सवाल भी अब तक आशंकाओं से घिरा हुआ है। एक राज्य का किसान किसी दूसरे राज्य के आढ़तिए या कंपनी को फसल बेचेगा तो भाड़ा कौन भुगतेगा? अगर किसान पर यह बोझ नहीं आएगा तो ऐसा कौन व्यापारी है जो ऊंचे दाम पर फसल भी ख़रीदे और भाड़ा भी भुगते! अगर भाड़ा नहीं भुगते और वह व्यापारी इसी राज्य में फसल का हवाला कर देता है तो भी उसकी फसल को ऊंचे दाम पर ख़रीदेगा कौन? जबकि इस राज्य में कम दाम पहले से ही चल रहे हों तब।
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