सीमांचल के चार जिलों पूर्णिया, कटिहार, अररिया व किशनगंज में 24 विधानसभा क्षेत्र हैं और करीब 60 लाख मतदाता। इन सभी जिलों में चुनाव के आखिरी चरण यानी 7 नवंबर को वोट डाले जाएंगे। यही वजह भी है कि ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन (AIMIM) प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेकुलर फ्रंट के तहत किशनगंज में चार और कटिहार-अररिया-पूर्णिया में तीन-तीन सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं। ये सभी सीटें ऐसी हैं, जहां अल्पसंख्यक वोटरों की संख्या 50 से लेकर 65 फीसदी तक है।
इस चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी ने जिस फ्रंट का सहारा लिया है, उसमें उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी RLSP, मायावती की पार्टी बसपा और समाजवादी जनता दल लोकतांत्रिक सहित 6 पार्टियां शामिल हैं, लेकिन सीमांचल में सबसे ज्यादा चर्चा असदुद्दीन ओवैसी की मौजूदगी की है।
डुमरिया चौक, अररिया जिले के जोकिहाट विधानसभा में जरूर पड़ता है, लेकिन यहां से आसपास की पांच विधानसभा सीटों के चुनावी तापमान का पता चलता है। इस चौक पर पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई है। अंधेरा छा गया है, लेकिन जब बातचीत का सिलसिला शुरू होता है तो सब कुछ साफ-साफ दिखने लगता है। मोहम्मद सहादत बीस साल के हैं। वो कहते हैं, “इधर पतंग वही उड़ा रहा है, जिसकी उम्र वोट देने की नहीं है। सब कम उम्र नौजवान हैं। उन्हें बाइक घुमाने का मौका मिल रहा है, घुमा रहे हैं।”
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जब हमने सहादत से पूछा कि अपना वोट खाई में फेंकने से क्या मतलब है तो उन्होंने अपनी बात को विस्तार देते हुए कहा, “समझ तो आप भी रहे हैं, फिर भी पूछ रहे हैं। हम ओवैसी साहब के बारे में बात कर रहे हैं। उनकी पार्टी सीमांचल में आई ही है ताकि महा-गठबंधन को मिलने वाले अल्पसंख्यक वोट में बंटवारा हो सके। उन्हें वोट देना मतलब अपने वोट को खाई में फेंकने जैसा ही है।”
26 साल के साकिब से हमारी मुलाकात अररिया जिले की ही बैरगाछी विधानसभा में हुई। साकिब भी मानते हैं कि इस विधानसभा चुनाव में ओवैसी का कोई प्रभाव नहीं है और वो केवल अल्पसंख्यक बहुल विधानसभा सीटों पर वोटों का बंटवारा करवा रहे हैं। साकिब कहते हैं, “ओवैसी साहब अच्छे नेता हैं। वो जब संसद में दहाड़ते हैं तो हमें भी अच्छा लगता है, लेकिन यहां के चुनाव में उनका कोई काम नहीं है। वो आए भी हैं तो मायावती से गठबंधन करके जो खुद भाजपा का समर्थन करने जा रही हैं। ओवैसी साहब की पार्टी सीमांचल में नई है। चुनाव लड़ने और वोट काटने से अच्छा है कि वो कुछ साल ग्राउंड पर काम करें। लोगों के बीच सक्रिय हों फिर उनके बारे में सोचा जाएगा। अभी नहीं।”
सीमांचल के ज्यादातर अल्पसंख्यक मतदाता ही असदुद्दीन ओवैसी को वोट कटवा मान रहे हैं और यही वजह है कि सीमांचल की अपनी हर रैली में वो खुद की विश्वसनीयता साबित करते हैं। खुद की वोट कटवा छवि को अपने हर मंच से खारिज करते हैं, लेकिन फिलहाल वो इसमें कामयाब होते हुए नहीं दिख रहे हैं। जहां एक तरफ युवाओं को लगता है कि ओवैसी वोट बांटने आए हैं वहीं सीमांचल के अल्पसंख्यक बुजुर्ग मतदाताओं को लगता है कि उनके आने से सीमांचल का पूरा सामाजिक ताना-बाना ही बिगड़ जाएगा।
रिजवान अहमद जीवन के 60 बसंत देख चुके हैं। इनसे हमारी मुलाकात जोगीहाट विधानसभा सीट के तुर्रकल्ली चौक पर हुई। रिजवान कहते हैं, “सीमांचल में असल गंगा-जमुनी तहजीब है। हम आपस में खाना-पीना भी करते हैं। कोई भेदभाव नहीं है। ये पार्टी केवल मुसलमानों की बात करती है। इसके नाम में मुस्लिमीन शब्द है। जिसका अर्थ है मुस्लिमवाद। क्या ये देश या ये राज्य केवल मुसलमानों से चलेगा? क्या केवल हिंदुओं से चलेगा? नेता वही होता है जो सबको साथ लेकर चलने की बात करे। ओवैसी, मोदी से अलग नहीं हैं। मुझे तो इस पार्टी का नाम ही नहीं पसंद।”
अब सवाल उठता है कि अगर ओवैसी को सीमांचल के मतदाता पसंद नहीं करते हैं तो 2019 के उपचुनाव में उनकी पार्टी किशनगंज सदर सीट से चुनाव कैसे जीत गई? इसी जीत की वजह से राज्य में AIMIM का खाता खुला।
इस सवाल के जवाब में किशनगंज सदर सीट के एक युवा मतदाता और फिलहाल सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी कर रहे शाहबाज रूहानी कहते हैं, “वो उपचुनाव था। सीट तो कांग्रेस के पास ही ही थी। तत्कालीन विधायक डाक्टर जावेद सांसद बन गए तो सीट खाली हुई। यहां के मतदाता चाह रहे थे कि किसी युवा कार्यकर्ता को मौका मिले, लेकिन उन्होंने अपनी बुजुर्ग मां को टिकट दिलवा दिया। इसी से नाराज होकर मतदाताओं ने AIMIM के उम्मीदवार कमरूल होदा को जीता दिया। AIMIM को वो जीत कांग्रेस की वजह से मिली थी, हम मतदाताओं की वजह से नहीं। इस चुनाव में AIMIM अपने इस सीट को भी नहीं बचा पाएगी।"
ऐसा भी नहीं है कि सीमांचल के शत-प्रतिशत मतदाता ओवैसी की मौजूदगी से नाखुश हैं। मुंबई में रहने वाले और लॉकडाउन की वजह से अपने घर आए 35 वर्षीय अब्दुल रहमान का मानना है कि सीमांचल, बिहार का सबसे पिछड़ा इलाका है। यहां के अधिकतर लोग अनपढ़ हैं इसलिए वो अपना भला सोच ही नहीं पा रहे। यही वजह है कि ये सारे लोग ओवैसी के आने की असल वजह नहीं समझ पा रहे। वो कहते हैं, “ओवैसी सीमांचल के विकास के लिए आए हैं। वो अपने लोगों के पास हैं।”
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के किशनगंज केन्द्र में बतौर डायरेक्टर काम कर रहे और सीमांचल के सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने को बखूबी समझने वाले डॉक्टर हसन इमाम के मुताबिक, वोट देते समय मजहब को नहीं देखना चाहिए या केवल उस पार्टी को नहीं चुनना चाहिए, जो एक मजहब की बात करे। वो कहते हैं, “मैं कोई राजनीतिक बात नहीं करूंगा। इस इलाके के लोग पढ़े-लिखे कम जरूर हैं, लेकिन समझदार बहुत हैं। वो पूरी समझदारी से अपने मत का प्रयोग करेंगे। सीमांचल का मिजाज और यहां की फिजा में फिरकापरस्ती नहीं है।”
सीमांचल में एक तबका ऐसा भी है, जो चुनाव में ओवैसी के होने से सबसे ज्यादा खुश है और दिन-रात उनके मजबूत होने की दुआ मांग रहा है। 40 वर्षीय आजित साह (बदला हुआ नाम) होटल किशनगंज में होटल व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। वो भारतीय जनता पार्टी के समर्थक हैं और इसी पार्टी को हर चुनाव में वोट देते हैं। वो कहते हैं, “हमारे लिए तो ओवैसी ही एक उम्मीद है। वो जितना मजबूत होगा जदयू-भाजपा उम्मीदवार के लिए उतनी ही आसानी होगी। इस क्या अगले कई चुनावों में ओवैसी यहां से जीत नहीं पाएगा, लेकिन अगर वो 10 प्रतिशत भी मुस्लिम वोट काट लेता है तो हमारी पार्टी के लिए रास्ता आसान हो जाएगा। मैं तो रोज सुबह हनुमान जी से दुआ मांगता हूं कि यहां ओवैसी मजबूत हो।”
इस चुनाव में ओवैसी मजबूत होते हैं या कमजोर ये तो 10 नवंबर को ही पता चलेगा, लेकिन इतना तय है कि आने वाले कुछ सालों में सीमांचल से कांग्रेस, RJD सहित दूसरी पार्टियों की जगह वो ले सकते हैं। 2015 के विधानसभा चुनाव से ओवैसी की नजर बिहार के इस मुस्लिम बहुल इलाके पर है। अगर ओवैसी इसी तरह हर चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारते रहे तो जल्दी ही चर्चा में रहने से आगे बढ़ जाएंगे और सीमांचल में अपनी पार्टी को स्थापित कर लेंगे।
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