भगवान बुद्ध ने चार आर्य-सत्यों की बात कही है। वे कहते हैं कि जगत में पहला आर्य-सत्य है दुःख। और कार्य-कारण के सिद्धांत के अनुसार उसके कारण भी होने चाहिए। दुःख है, तो बुद्ध दूसरा आर्य-सत्य उद्घोषित करते हैं कि दुःख के कारण भी हैं। दुःख के कारण हैं, तब बुद्ध तीसरे आर्य-सत्य की उद्घोषणा करते हैं कि उसके उपाय भी हैं।
लेकिन कभी-कभी हमारे लिए उपाय शक्य (हो सकने योग्य) नहीं बनता। तब भगवान बुद्ध एक ओर सत्य की उद्घोषणा करते हैं कि उपाय शक्य भी है। उपाय हम कर सकते हैं। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में भी कहा है-
‘जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्’। जन्म दुःख है। सही है। एक बच्चा मां के उदर से बाहर आता है, तो मां को प्रसव पीड़ा होती है, जो दुःख है। बालक मां के उदर से आता है, तब उसे कितना दुःख होता है, इससे हम अनभिज्ञ हैं। वो मां के गर्भ से निकलकर रुदन करने लगता है, जो प्रमाण है कि उसे दुःख हुआ।
तो भगवान बुद्ध ने कहा, दुःख है। मैं भगवान कृष्ण के परम सत्य का आश्रय लेकर कहूं तो जन्म दुःख है। और मृत्यु भी दुःख है। मरने के समय जो दुःख होता है उसके कई कारण होते हैं। मेरे पीछे वालों का क्या होगा? कहते हैं कि ये प्राण जड़ शरीर को छोड़कर चेतना बिलग होती है, तब बहुत पीड़ा होती है। जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, ये भी दुःख हैं। हम देखते हैं कि वृद्ध कितने पीड़ित हैं। व्याधि, रोग ये भी दुःख हैं। जैसे आज देश-दुनिया पर छाई व्याधि ये कोरोना वायरस है।
अब भगवान अपने आर्य-सत्यों की व्याख्या करते हुए कहते हैं, इन सभी दुःखों का एकमात्र कारण है तृष्णा। ‘तृष्णा’ का अर्थ है तीन प्रकार की एषणा। जैसे हमारे ग्रंथों, मनीषियों ने बताया है; पहली सुतेषणा, दूसरी लोकेषणा, तीसरी वित्तेषणा। सुतेषणा यानी हमारा वंश चले, संतान की प्राप्ति हो। लोकेषणा यानी लोकप्रतिष्ठा की एषणा, यह इच्छा कि हमें समाज में प्रतिष्ठा मिले। वित्तेषणा का मतलब है धन, संपत्ति, सुख-साधनों की एषणा। और भगवान बुद्ध इन तृष्णाओं को दुःख का कारण मानते हैं।
इन दिनों जब चारों ओर एक महामारी हमें घेरकर बैठी है, बड़ा दुःख है जगत पर। इसके उपाय भी होंगे और उपाय शक्य भी हो सकता है, देर-सबेर। ऐसे समय में थोड़ा सकारात्मक चिंतन करें। आओ, हम ये चिंतन करें कि जैसे दुःख है, वैसे सुख भी है। क्योंकि सुख-दुःख सापेक्ष हैं। तो इस विषम परिस्थिति में थोड़ा सकारात्मक सोचकर, धैर्य धारण करें कि सुख भी है।
जन्म दुःख है, लेकिन जन्म सुख भी तो है। मां को पीड़ा होती है, लेकिन जब कोई बताता है कि संतान हुई है तो कितना सुख पाती है। मां के गर्भ से बाहर आने के लिए नौ मास की जेल से छुटकारा पाते समय दुःख तो होता होगा शिशु को लेकिन शिशु जब इस दुःख से बाहर आता है, तब वो भी सुख अनुभव कर पाता होगा। जन्म सुख भी है।
तो जन्म को सकारात्मक रूप में लें तो सुख भी है। मृत्यु को सकारात्मक रूप में लें तो सुख भी है। जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा दुःख है लेकिन बुढ़ापे में ठीक से जीना आ जाए, तो बुढ़ापा बहुत सम्मान पाता है। एक वृद्ध घर में बैठा है, लेकिन घर का हर सदस्य उसकी कितनी देखभाल करता है।
यदि सकारात्मक दृष्टि से देखें तो ये सुख भी तो है। व्याधि, रोग दुःख हैं, पीड़ा है लेकिन प्रारब्धवश, कर्मवश, असंयम के कारण। ये वायरस की व्याधि आई है, जिसका कारण निकलेगा ही। लेकिन जो आया है उसे स्वीकार कर उसे सकारात्मक बना सकते हैं।
सुख के कारण भी हैं। हम सुखी हो सकते हैं क्योंकि हम सुखराशि हैं, अमृत के पुत्र हैं। सुख का कारण है हमारे पास कि हम पृथ्वी पर आए हैं। हम सुख ले सकते हैं कि दिव्य भारत में हमारा जन्म हुआ। जहां गंगा बहती है, जहां ऋषि- मुनि हुए हैं, जहां सनातन धर्म और वैदिक परंपरा शाश्वत बह रही हैं।
तो सुख के कारण हैं हमारे पास और उसके उपाय भी है। ‘संत मिलन सम सुख जग नाहीं’। सज्जनों का संग उपाय है। ये उपाय शक्य भी है। ताप में बहुत संतप्त आदमी जब छांव में जाता है तो सुख मिल जाता है। सीधी-सी बात है। साधु एक छांव है।
तो भगवान बुद्ध के चार आर्य-सत्यों को यदि हम सकारात्मक रूप से लेकर आज के विषम समय में सोचें, तो सुख भी है, सुख के कारण भी हैं, सुख के उपाय भी हैं और उपाय शक्य भी हैं। मुझे लगता है, ये हमें बहुत बल देगा।
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