कोरोना को लेकर ब्राजील के राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो का अटपटा बयान आया। उन्होंने टीकाकरण को खतरनाक बताते हुए कहा कि इससे औरतों के दाढ़ी-मूंछ उग आएंगी। साथ ही राष्ट्रपति ने अपने या अपने परिवार को वैक्सीन दिलाने से साफ मना कर दिया। बात तो हंसी-हंसी में कही गई, लेकिन मायने काफी गहरे हैं।
औरतों की चिबुक पर नागफनी-से बाल उग आएं, या फिर गुलाबी होंठ घने बालों से ढंके हों तो इससे खतरनाक क्या हो सकता है। दाढ़ी-मूंछें पाकर जिंदा बच पाने की बजाए औरत का मर्दों की नजर में कामुक रहते हुए मरना भला। शायद यह भी एक कारण है कि टीका बनने के बाद भी महिलाएं इसे लेने से डरी हुई हैं।
अमेरिकी थिंक टैंक प्यू रिसर्च सेंटर ने लगभग 13 हजार लोगों से बात की। इनमें से 67 प्रतिशत पुरुष कोरोना वैक्सीन को लेकर खासे जोश में थे। वहीं केवल 54 प्रतिशत महिलाओं ने कहा कि वे टीका लेंगी। दिसंबर में नेशनल जियोग्राफिक ने सर्वे किया। इस बार सर्वे में ज्यादा लोग शामिल थे और इस बार महिलाओं की 'न' भी ज्यादा रही। पुरुषों की तुलना में 19 फीसदी कम महिलाओं ने कहा कि वे टीका लेंगी। गौर करें तो ये महिलाएं दुनिया के सबसे ताकतवर देश से हैं और खासी जानकार भी हैं। तब क्यों वे जान बचा सकने वाले टीके से बच रही हैं!
वजह समझने के लिए ज्यादा दूर नहीं जाना होगा। कोरोना वैक्सीन के जो दो नाम बार-बार दोहराए जा रहे हैं, उन्होंने अपनी दवा का ट्रायल गर्भवती या दूध पिलाती मांओं पर नहीं किया। लिहाजा, यह टीका लंबे समय तक उन्हें नहीं मिलेगा। दवा कंपनियां ट्रायल न करने के पीछे नैतिक कारण दे सकती हैं कि कहीं ट्रायल में मां या अजन्मे शिशु को कोई नुकसान न हो जाए, इसलिए उन्हें दूर रखा गया।
यह तर्क गले उतर भी जाए, अगर आप आंकड़ों पर ध्यान न दें। यूनिसेफ (UNICEF) बताता है कि 2021 के पहले ही रोज दुनियाभर में लगभग 3.7 करोड़ बच्चों ने जन्म लिया। अगर ये सारी मांएं बच्चों को ब्रेस्ट फीड कराने का फैसला लें तो इतनी ही मांएं और इतने शिशु टीकाकरण से वंचित रहेंगे। ये केवल एक दिन का आंकड़ा है। UN की मानें तो रोज हर मिनट 250 बच्चे जन्म लेते हैं। यानी हरेक मिनट 250 मांएं प्रसव पीड़ा से गुजरती हैं। या फिर इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि हरेक मिनट 250 मांओं को टीके से दूर रखा जाएगा।
चलिए, अब बड़ा गणित खेलें। सालभर में 14 करोड़ बच्चे दुनिया में आते हैं। यह संख्या अच्छी-खासी है। फ्रांस और जर्मनी की आबादी को मिलाकर बनी संख्या से भी ज्यादा। इतनी कि दिमाग नजरअंदाज करना चाहे तो आंखें नहीं कर पाएंगी। तब क्यों वैज्ञानिकों के पास ट्रायल में गर्भवती या ब्रेस्ट फीड कराती मांओं को नजरअंदाज करना आसान रहा?
क्यों नहीं मांओं के टीकाकरण को सोचते हुए दिन-रात एक किए गए? क्यों मान लिया गया कि कुछ महीनों या सालों के लिए औरतों को टीका न भी मिले तो कोई बात नहीं? क्योंकि इसके पीछे दशकों पुरानी प्रैक्टिस है। औरतों की बीमारी को 'रोने की आदत' मानने और पुरुषों की मामूली खरोंच पर भी संवेदना की पट्टियां लगाने की। इसी सोच के चलते मर्दों की कमजोर नसों को मजबूत बनाने पर मेडिकल से लेकर देसी साहित्य तक भर गया। वहीं, औरतों का मेनोपॉज बुढ़ाती औरत की चिड़चिड़ाहट बनकर रह गया।
गाल और तलवे आग की तरह तपते हैं, शरीर में दर्द होता है, हड्डियां कमजोर हो जाती हैं, और किसी काम में मन नहीं लगता (औरतों को तो इसका बहाना चाहिए)। सबसे बड़ी बात कि ‘माहवारी’ जिसे औरत होने का प्रतीक बना दिया गया है, वो बंद हो जाती है। नतीजा- पहचान छीनने का दर्द कम ही होंगे जिन्होंने ऐसे में अपनी मां या किसी आत्मीया के दिल पर प्यार का फाहा रखा हो। वैसे भी मेनोपॉज कोई बीमारी तो है नहीं। औरतों के साथ घटती है, ठीक वैसे ही जैसे पीरियड्स का आना और हिदायतों का वजन लड़की के अपने वजन से भी भारी हो जाना।
कितनी ही ऐसी शारीरिक तकलीफें हैं जिन पर बात नहीं होती, क्योंकि वे औरतों को होती हैं। औरतों की बीमारी मतलब फुसफुसाकर या चटखारे लेकर करने की बात। ब्रेस्ट कैंसर को ही ले लीजिए। बीमारी किसी भी दूसरे कैंसर जितनी जानलेवा है, लेकिन साथ में ब्रेस्ट जुड़ गया है। अब वो या तो कामुक बीमारी है, या फिर ऐसी बात, सज्जन मर्द जो करने से बचें। तो लीजिए फिर ब्रेस्ट में बदलाव को सफेद होता बाल मानकर औरत चुप रहती है, जब तक सर्जरी की नौबत न आ जाए।
ये तो हुई जनाने मर्ज की बात। अब देखते हैं उन बीमारियों को जो किसी को भी हो सकती हैं। शोध बताते हैं कि दिल का दौरा औरत-मर्द को लगभग बराबर पड़ता है, लेकिन विज्ञापनों में मॉल में तेल चुनती औरत ने अलग ही इशारा कर दिया। वो बेस्ट तेल चुनती है ताकि उसके पति का दिल सलामत रहे। हसीन-तरीन बीवियों वाला यह विज्ञापन हम सबने इतनी बार देखा कि अब हार्ट अटैक मर्दानी बीमारी हो चुकी है। यही कारण है कि अगर पब्लिक प्लेस पर औरत को हार्ट अटैक आए तो लोग उसे थकान या बढ़ती उम्र मान लेते हैं। यूरोपियन हार्ट जर्नल में यह स्टडी आई है। वहीं, इसी हालात में पुरुष हो तो लोग तुरंत उसे लेकर अस्पताल भागते हैं।
अब आते हैं दर्द पर। मर्द को दर्द नहीं होता- यह बात हजारों बार हम सबने सुन, लेकिन हकीकत इससे उलट है। साल 1989 में अमेरिका के 10 अस्पतालों में बाईपास सर्जरी के मरीजों पर स्टडी हुई। इसमें देखा जा रहा था कि महिलाओं और पुरुषों में से किसके दर्द को डॉक्टर कितनी गंभीरता से लेते हैं। नतीजा शायद आपकी भी आंखें खोल दे। सर्जरी के लगातार तीन दिनों तक पुरुष मरीजों को दर्दनिवारक दवाएं दी गईं, वहीं औरतों को केवल एक ही रोज दवा मिली।
एक ही सर्जरी, बदन का हिस्सा उतना ही कटा-छंटा। अंदरुनी बदलाव भी एक जैसे हुए। तब क्या वजह है कि पुरुषों का दर्द डॉक्टरों को दिखा। इसलिए कि औरतों को तो दर्द सहने की आदत होती है। हर महीने थक्के के थक्के खून निकालते हुए सारे काम निपटाती औरत का दर्द भला मायने ही कहां रखता है। साल 1996 में इसी बात को लेकर दोबारा स्टडी हुई। इस बार यह 20 महीने लंबी चली। इसके नतीजे भी वही कि अस्पतालों में मर्दों के दर्द को ज्यादा गंभीरता से लिया जाता है।
सारी कथाएं छोड़कर वापस वैक्सीन की बात करें तो चुटकुले से तर्क दिखेंगे। साल 1993 तक अमेरिका में दवाओं और वैक्सीन के ट्रायल में औरतों को शामिल नहीं किया जाता था। पुरुषों पर ट्रायल होते थे और मान लिया जाता था कि टीका दोनों पर काम करेगा। अमेरिकी नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इंफॉर्मेशन (NCBI) ने इस बात को स्वीकारा। हालांकि, NCBI सफाई देते हुए कहता है कि औरतों का शरीर हार्मोन्स के कारण काफी पेचीदा होता है, इसलिए उन्हें ट्रायल से अलग रखा गया। तो भलेमानुषों, जब ट्रायल में औरतों को बचाकर रखा तो टीका देते हुए क्यों मान लिया कि उसका शरीर भी पुरुष जैसा व्यवहार करेगा!
ऐसी कितनी ही बीमारियां हैं जिन पर काम या बात भी टाली जा रही है क्योंकि वह औरतों को होती है। औरत यानी रहस्यों का खूबसूरत जखीरा। उस पर कविताएं लिखी जा सकती हैं। तस्वीरें बन सकती हैं। सहलाया जा सकता है, लेकिन चीर-फाड़ नहीं की जा सकती। और मेडिकल साइंस जैसे ऊबाऊ विषय को तो औरतों के करीब भी नहीं फटकने देना है वरना आंखों को तरावट देने वाली कामुक मूर्ति टूट जाएगी। भेद खुल जाएगा कि औरत-मर्द में कोई फर्क नहीं। और जब यही भेद खत्म हो जाएगा तो दुनिया में बाकी ही क्या रहेगा।
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