कभी चीन की सेना में रहे वांग छी पिछले 57 सालसे भारत में रह रहे हैं। 1963 से तमाम कोशिशों के बाद पहली बार 2017 में चीन जा पाए थे। चीन पहुंचने के बाद वहां से वीजा लेकर दो दफा भारत आए और फिर चीन लौट गए। तीसरी बार वीजा 6 महीने के लिए मिला था। वीजा की अवधि मार्च में ही खत्म हो गई, लेकिन लॉकडाउन लगने की वजह से चीन नहीं लौट पाए।
अब वीजा के एक्सटेंशन के लिए आवेदन किया है। वांग के बेटे-बेटी समेतआधा परिवार मध्य प्रदेश के बालाघाट जिलेमें रहता है और भाइयों वाला आधा परिवार चीन में रहता है। मौजूद तनाव पर कहते हैं, 'मुझे तो तिरोड़ी गांव में बहुत सपोर्ट मिला। इतना प्यार मिला कि यहीं शादी हुई। घर बना। बच्चे हुए। लेकिन, चीन में बसने की तमन्ना तो अब भी है।'
वांग की जिंदगी किसी फिल्मी कहानी की तरह है। 1962 में भारत-चीन के बीच हुए युद्ध में इनकी उम्र 22 साल थी और चीनी सेना में सर्वेयर की जिम्मेदारी संभाल रहे थे। युद्ध विराम के बाद 1963 में धोखे से भारत की सीमा में घुस आए। रेडक्रॉस की जीप दिखी तो लगा कि चीन की है, उसमें सवार हो गए। जीप हमारे देश की थी तो सेना के जवान वांग छी को असम छावनी में ले आए। फिर यह 1963 से लेकर 1969 तक देश की अलग-अलग जेलों में रहे।आखिरी ठिकाना बालाघाट जिले में तिरोड़ी गांव बना।
करीब 7 साल अलग-अलग जेलों में बिताने के बाद सरकार ने वांग को जेल से छोड़ दिया और तिरोड़ी में ही रहने की इजाजत दी। भारत सरकार ने हर माह वांग को 100 रुपए पेंशन भी दी। उनका छोटा बेटा विष्णु कहता है, 'तिरोड़ी में पहले सेठ इंदरचंद जैन की गेहूं पीसने की दुकान हुआ करती थी, पापा वहीं काम करते थे। पापा के काम से खुश होकर उन्होंने ही पापा की शादी गांव की लड़की (सुशीला) से 1974 में करवा दी थी।'
भारतीय लड़की से शादी होने के बाद सरकार ने पेंशन देना बंद कर दिया। फिर पापा ने थोड़े पैसे जोड़कर गांव में ही किराना दुकान खोल ली। दुकान अच्छी चलने लगी तो घर भी बन गयाऔर परिवार भी पल गया। इस दौरान वे लगातार चीन जाने की कोशिशों में भी लगे रहे, लेकिन सरकार की तरफ से इजाजत नहीं मिल रही थी। बड़ी कोशिशों के बाद 2017 में पहली बार परिवार के साथ तीन महीने के बाद चीन जाने की अनुमति मिलीजबकि पासपोर्ट 2013 मे ही बन गया था।
वांग छी की नागरिकता आज भी चीन की ही है। इसलिए अब वहां से वीजा लेकर भारत आते हैं, क्योंकि परिवार यहां हैं। 2017 के बाद वो 2018 में फिर दो बार चीन गए। दूसरी बार गए थे तो सितंबर 2019 में लौटे थे। इस वीजा की अवधि 2 मार्च 2020 को खत्म हो गई, लेकिन लॉकडाउन के चलते वे चीन अब तक जा नहीं पाए। वे कहते हैं, 'दोनों देशों के बीच अभी तनाव चल रहा है, मन में बुरा लग रहा है। हम तो मिलकर रहना चाहते हैं।'
विष्णु ने बताया किपापा के वीजा एक्सटेंशन के लिए आवदेन दिया है लेकिन अभी तक एक्सटेंशन नहीं हुआ। उनकी आखिरी तमन्ना क्या है, 'इस परविष्णु कहते हैं किपापा चाहते हैं कि हमारा पूरा परिवार उनके साथ जाकर चीन में ही रहे। वहां पापा के तीन भाई हैं। खेती-बाड़ी है।' सेठ हीराचंद ने वांगका भारत में बहादुर नाम रख दिया था। तब से इसी नाम से इन्हें तिरोड़ी में सब जानते हैं।
विष्णु कहते हैं, 'हम लोगों का जन्म तो भारत में ही हुआ। मेरे बड़े भाई की 25 साल की उम्र में ही मौत हो गई थी। बहन की शादी हो गई। पापा को छोड़कर हमारे पूरे परिवार को भारत की नागरिकता मिली हुई है। सरकार की परमिशन के बाद 2017 में पहली बार हम तीन महीने के लिए चीन गए थे। फिर जाना नहीं हो पाया।हमारे साथ कभी किसी ने गलत सलूक नहीं किया। हम बस यही चाहते हैं कि सीमा पर चल रहा तनाव खत्म हो जाए और दोनों देशों के लोग आपस में प्यार से रहें।'
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