शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

राजनीति और व्यापार अलग मुद्दे हैं, इन्हें उनके रास्तों पर छोड़ देना चाहिए, खासकर तब जब आप चीन से निपट रहे हों

इतिहास की यह आदत होती है कि वह खुद को दोहराता है। कई बार तो यह उन लोगों को शर्मिंदा करता है, जो बहुत ही जोरशोर के साथ इस पर सवाल उठाते हैं। पिछले छह सालों से नरेंद्र मोदी बार-बार नेहरू वंश की विफलता की ओर अंगुली उठाते रहे हैं। हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू उनका मुख्य निशाना रहे हैं। इसलिए यह उचित रहेगा कि इस चर्चा को नेहरू से शुरू किया जाए।

भारत के भविष्य का नेतृत्व करने के दावेदारों में नेहरू ही महात्मा गांधी के लिए वास्तविक विकल्प थे। उनके पास तब एक शक्तिहीन ब्रिटिश कालोनी रहे भारत को एक विश्व स्तरीय देश बनाने के लिए एक स्पष्ट दृष्टि और रोडमैप था। नेहरू में भी कमियां थीं। हर महत्वपूर्ण काम में उसकी अपनी समस्याएं होती हैं और नेहरू उनमें कुछ का समाधान करने में विफल रहे। उन्होंने उस समय के दुनिया के महान नेताओं का अनुसरण किया।

वह जानते थे कि वह भारत को कहां ले जाना चाहते हैं और यह भी एक उपलब्धि थी, जिसने दुनिया के नेताओं को आज अपने देशों को चलाने का रास्ता दिखाया। आपको उनका आकलन उनके समय के संदर्भ और उस समय हावी रहे विचारों के आधार पर करना चाहिए। उन्होंने नासीर, टीटो, सुकर्णो और क्वामे को लेकर निर्गुट आंदोलन के माध्यम से भारत के लिए विशेष भूमिका तैयार की।

ये सभी महान नेता थे, जो बड़ी ताकतों के प्रभाव से मुक्त रहना चाहते थे। लेकिन नेहरू की सबसे बड़ी गलती चीन थी। अगर आप उस समय माओ के रहस्यपूर्ण चरित्र पर विचार करेंगे तो यह ऐसी गलती होना आसान था। वह उस समय उभरती दुनिया के एक बड़े नायक थे और नेहरू उनकी चमक से वशीभूत हो गए। वह भारत-चीन दोस्ती पर एशिया के खड़े होने का सपना देखने लगे। उन्होंने अपनी विदेश नीति को भी पंचशील पर आधारित कर दिया।

पंचशील यानी शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के वे पांच सिद्धांत, जिनके बारे में कहा जाता था कि इनको भारत और चीन दोनों मानते हैं। अमेरिका और पाकिस्तान के बीच बढ़ते प्रेम ने इसे अनिवार्य बना दिया था। यह तो 1954 में पता चला कि चीन भारत के एक बड़े हिस्से पर अपना दावा कर रहा था। नेहरू हार नहीं मानना चाहते थे। उन्होंने समस्या को चुपचाप और राजनयिक स्तर पर हल करने की कोशिश की। आज की तरह उस समय भी विस्तारवादी रहे चीन ने इसका फायदा उठाया। 1962 की लड़ाई ने नेहरू को तोड़ दिया और 18 महीने के बाद उनकी मौत हो गई।

रोचक यह है कि उनके तीखे आलोचक नरेंद्र मोदी आज वैसी ही समस्या का सामना कर रहे हैं। उन्होंने भी भारत-चीन दोस्ती के आधार पर उभरते एशिया का सपना देखा था। उन्होंने भी चीन से दोस्ती पर आधारित विदेश नीति बनाई। लेकिन शी जिनपिंग के साथ 18 मुलाकातों के बाद मोदी को अहसास हुआ कि चीन से प्यार नहीं हो सकता।

वह कभी भी बिना बड़ी कीमत मांगे एक इंच नहीं दे सकता। जिस तरह से चीन के साथ विवाद के समय नेहरू जॉन एफ. केनेडी के पास गए थे, वैसे ही मोदी ने यह जानकर कि अमेरिका और चीन में संबंधों में इस समय तनाव है, इस समीकरण में ट्रंप को लाने की कोशिश की है। लेकिन नेहरू से अलग मोदी ने जवाब दिया है। एलएसी पर जवाबी हमले ने दिखाया है कि 2020 का भारत 1962 के भारत की तरह नहीं है।

मोदी ने राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर टिक टॉक और 117 अन्य एप्स पर प्रतिबंध लगाकर कुछ बड़ी चीनी कंपनियों की कीमत में कई अरब की कटौती कर दी है। ट्रम्प ने भी टिक टॉक को किनारे करके अपना समर्थन दिखाया है। उन्हें उम्मीद है कि इसके बदले में भारतीय अमेरिकी आने वाले चुनावों में उनको समर्थन देंगे। लेकिन हकीकत यह है कि ट्रम्प पहले से ही अपने स्तर पर हुवावे जैसी चीनी कंपनियों को दबा रहे हैं।

क्या चीनी एप पर प्रतिबंध से हम आत्मनिर्भर हो जाएंगे? शायद नहीं। अर्थव्यवस्था मुफ्त एप से नहीं आंकी जाती। हालांकि अक्षय कुमार पब्जी को फौजी से बदलना चाहते हैं। क्या होगा अगर चीन भारतीय इस्पात को प्रतिबंधित कर दे? महामारी के बावजूद अप्रैल से जुलाई के बीच चीन की भारी खरीदारी की वजह से भारतीय इस्पात का निर्यात दो गुना हो गया है।

चीन को हमारा वार्षिक निर्यात 16 अरब डॉलर (1175 अरब रुपए) है। जिन देशों को हम निर्यात करते हैं, उनमें चीन का तीसरा स्थान है। हालांकि हम चीन से 70 अरब डॉलर का आयात करते हैं, जो उनके कुल आयात का सिर्फ दो फीसदी है। स्पष्ट है कि अगर चीन जवाबी कार्रवाई करता है तो हमें नुकसान उठाना पड़ेगा। देश के टॉप 30 यूनिकॉर्न में से 18 चीनियों द्वारा वित्त पोषित हैं।

देश में 350 करोड़ डॉलर का चीनी निवेश है, जो बढ़ रहा है। लेकिन जो सबसे अहम है, वह है कि चीन का दावा है कि उसकी कोविड-19 वैक्सीन तैयार है। अगर आप साजिश की कहानियों पर भरोसा करते हैं तो दुनिया को जानबूझकर या अनजाने में कोरोनावायरस देने वाला चीन आज इससे लड़ने को लेकर सबसे मजबूती से तैयार है। उनके पास महामारी से पहले ही इलाज भी उपलब्ध रहा होगा।

जब हजारों लोग मर रहे हैं तो क्या हम इसे नजरअंदाज कर सकते हैं। और जिस वुहान से यह शुरू हुआ, वहां पर मास्क को तिलांजलि दी जा चुकी है और पार्टियां शुरू हो गई हैं। राजनीति और व्यापार अलग मुद्दे हैं। इन्हें उनके रास्तों पर छोड़ देना चाहिए। खासकर तब जब आप चीन से निपट रहे हों। (ये लेखक के अपने विचार हैं)



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प्रीतीश नंदी, वरिष्ठ पत्रकार व फिल्म निर्माता


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