कर्नाटक के गुलबर्गा जिले में एक गांव है ओकली। शहर से 40 किमी दूर बसे इस गांव में करीब 4500 लोग रहते हैं, ज्यादातर लोग खेती-किसानी का काम करते हैं। पूरे गांव में एक ही सरकारी स्कूल है जहां 200 से ज्यादा बच्चे पढ़ते हैं। कुछ बच्चे पास के दूसरे गांवों से भी यहां पढ़ने आते हैं। कोरोना के चलते जब स्कूल बंद हुआ तो यहां के बच्चों की पढ़ाई बंद हो गई। उनके पास स्मार्टफोन और इंटरनेट की भी सुविधा नहीं थी कि वे ऑनलाइन पढ़ सकें।
स्कूल के प्रिंसिपल सिद्धरमप्पा बिरादर कहते हैं कि स्कूल बंद होने के चलते बच्चे दिनभर इधर- उधर घूमते रहते थे। उनके घर वालों ने बताया कि वे पहले का पढ़ा हुआ भी भूलते जा रहे हैं। इसके बाद हमने स्कूल के शिक्षकों के साथ बैठक की और तय किया कि अगर बच्चे स्कूल नहीं आ सकते तो हम स्कूल को ही बच्चों तक लेकर जाएंगे।
गुरुबसप्पा रक्कासगी, ओकली के सरकारी स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाते हैं। कहते हैं, 'कोरोना संक्रमण के चलते बच्चे स्कूल नहीं आ सकते थे। इसलिए हमने तय किया कि हम लोग ही बच्चों तक जाएंगे। हमने गांव में बच्चों के माता-पिता और वहां के स्थानीय नेताओं को बुलाया और कहा कि हम बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए ओपन स्पेस की जरूरत होगी, हम खुले में ही बच्चों को पढ़ाएंगे। गांव वाले संक्रमण को लेकर डरे हुए थे, लेकिन बच्चों की पढ़ाई नहीं होने से भी परेशान थे। उन्होंने सहमति दे दी और जगह भी मुहैया करा दी।
कुछ ही हफ्तों में ओकली में 8 कम्युनिटी स्कूल खुल गए। कुछ मंदिर में, कुछ कम्युनिटी हॉल के बरामदे में तो कुछ खुले आसमान के नीचे। बच्चों को छोटे- छोटे ग्रुप्स में बांट दिया गया। हर ग्रुप में 20-25 बच्चों को रखा गया ताकि सोशल डिस्टेंसिंग मेंटेन रह सके। बच्चों को मास्क और साफ- सफाई से जुड़ी चीजें भी दी गई। हर दिन सुबह 10 बजे से दोपहर 12.30 बजे तक पढ़ाई होती है।
रक्कासगी कहते हैं कि हमारे पास न तो किताबें थीं, न ही ब्लैक बोर्ड था। इसलिए हमने तय किया कि कहानी और कविता के जरिए पढ़ाएंगे। हम उन्हें कहानी सुनाते हैं और उसके आधार पर वे अपना पाठ याद करते हैं। बच्चे भी इस तरीके को पसंद कर रहे हैं। उन्हें कहानी के साथ ऐसी और भी एक्टिविटीज कराई जाती हैं, जिससे उनका मन लगता रहे और वे आसानी से सीखते भी रहें।
ओकली गांव के इस मॉडल को अब दूसरे गांव के लोग भी अपना रहे हैं। इतना ही नहीं सरकार भी अब इस मॉडल को आगे बढ़ाने में दिलचस्पी दिखा रही है। कुछ दिन पहले प्रदेश के शिक्षा मंत्री एस सुरेश ने स्कूल के प्रिंसिपल को बुलाकर उनके काम की तारीफ की थी। हाल ही में शिक्षा विभाग ने भी निर्देश जारी कर दूसरे स्कूलों को भी इस मॉडल को अपनाने को कहा है।
सैकेंडरी एजुकेशन के डायरेक्टर कृष्णा एस करिचनवर कहते हैं, 'हमने हर स्कूल में टीचर्स से तीन तरह की क्लास तैयार करने को कहा है। एक जिसमें छात्रों के पास किसी तरह की टेक्नोलॉजी की सुविधा नहीं है। दूसरी जिसमें बच्चों के पास स्मार्टफोन तो है, लेकिन इंटरनेट नहीं है और तीसरी जिसमें बच्चों के पास सभी सुविधाएं हैं। इनमें से जिन बच्चों के पास स्मार्टफोन या इंटरनेट की सुविधा नहीं हैं, उनके घर हफ्ते में कम से कम एक बार शिक्षकों को जाना है या उन्हें किसी खुली जगह पर बुलाकर पढ़ाना है।
एक टीचर कहते हैं कि छात्रों को ऑनलाइन एजुकेशन से भले इंगेज किया जा सकता है, लेकिन ठीक तरह से पढ़ाया और समझाया नहीं जा सकता। इसलिए मैंने अपने घर में ही एक छोटा सा स्कूल और लाइब्रेरी खोल दी है। जहां बच्चे आकर पढ़ाई करते हैं।
वे कहते हैं कि हमने बच्चों को किताबी नॉलेज से अलग हटकर प्रैक्टिकल के तौर पर भी कुछ चीजें सिखाना शुरू किया है। हम बच्चों को टास्क देते हैं कि वे अपने पिता का इंटरव्यू लें, उनसे पूछें कि वे कौन- कौन सी फसलों की खेती करते हैं, कब बुआई और कटाई करते हैं, कितनी बार फर्टिलाइजर इस्तेमाल करते हैं। बच्चे इंटरव्यू के बाद रिपोर्ट तैयार करते हैं। इससे उनकी रिसर्च स्किल डेवलप हो रही है, उनकी राइटिंग भी बेहतर हो रही है।
एनएसओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक कर्नाटक में 90 फीसदी घरों में कम्प्यूटर नहीं है, जबकि 81 फीसदी घरों में इंटरनेट की सुविधा नहीं है। ऐसे में इस नई पहल से उन बच्चों को फायदा हो रहा है, जिनके पास तकनीकी सुविधाएं नहीं हैं।
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