बिहार भारत के उन राज्यों में से एक है जिसे गठबंधन की राजनीति का सौभाग्य है। बिहार में बिना गठबंधन राजनीति नहीं होती है। जिस दल को गठबंधन का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता वह टूटे तारे की तरह चुनावी आकाश में इस दिशा से उस दिशा की ओर गिरता नज़र आता है। गंभीर उसे ही माना जाता है जो गठबंधन करता है। गठबंधन स्टेटस सिंबल है।
अपनी पार्टी में होने से ज्यादा बड़ी बात है गठबंधन में होना। अलायंस अगर कहीं सायंस है तो वह बिहार है। बिहार में नेता अपना राजनीतिक दल बनाते हैं ताकि चुनाव आने पर गठबंधन करेंगे। यहां इतने नेता हो गए हैं कि एक दल में सब नहीं आ सकते। मगर किस्मत देखिए कि एक गठबंधन में सब आ जाते हैं।
गठबंधनों में भी कई तरह के गठबंधन होते हैं इसलिए उसे संभालने के लिए बिहार ने महागठबंधन को जन्म दिया। आशा है कि अगले चुनावों तक बिहार में महागठबंधन से भी आगे का कोई ब्रांड लांच होगा जिसका नाम होगा सुपर महागठबंधन। सुपर-डूपर महागठबंधन। गठबंधनों ने एक दूसरे को अवसरवादी कहना बंद कर दिया है।
उन्हें पता है यह अवसर ही है जो गठबंधनों को जोड़ता है। गठबंधनों से अवसरवाद का राजनीति में महत्व बढ़ा है। गठबंधन पवित्र होता है। गठबंधन अपवित्र होता है। एक गठबंधन की प्रेस वार्ता से नेता उठकर दूसरे में चले जाते हैं। गठबंधन में सिर्फ विश्वास नहीं होता बल्कि हर गठबंधन में अविश्वास भी होता है।
अविश्वास करते हुए सीट देते हैं। सब चाहते हैं कि उसे ज्यादा सीटें आएं। मगर चुनाव में जीत गठबंधन की हो। यानी गठबंधन में भीतर-भीतर एक-दूसरे की हार की कल्पना होती है मगर बाहर-बाहर गठबंधन के जीत की आशा होती है। गठबंधन के भीतर भी दल अपना अपना गठबंधन बनाते हैं। गठबंधन कभी पूरा नहीं होता है।
इसके बनने की संभावना और टूटने की आशंका में मुकाबला चलता रहता है। बिहार में दो तरह के गठबंधन हैं। एक गठबंधन का नाम बहुत बड़ा है। महागठबंधन। दूसरे का नाम बहुत छोटा है। राजग। राजग में बीजेपी और जदयू का गठबंधन है। लेकिन बीजेपी का भी अपना स्वतंत्र गठबंधन है। लोजपा के साथ।
चिराग नीतीश का विरोध कर रहे हैं मगर बीजेपी का साथ दे रहे हैं। बीजेपी कह रही है नीतीश ही सीएम बनेंगे और चिराग कह रहे हैं कि नीतीश को वोट मत दो। बीजेपी, चिराग को कुछ नहीं कहती क्योंकि चिराग पीएम के नेतृत्व से प्रेरित हैं। साथ रह कर लड़ने का फार्मूला कोई राजग से सीखे। नीतीश को सीएम बनने से रोकने वाले उन्हीं को सीएम बना रहे हैं।
मेनिफस्टो पढ़ने में ही पूरा चुनाव बीत जाएगा
बिहार में गठबंधन कंफ्यूज़न का नाम नहीं है। गठबंधन ही तो मतदाता का इम्तहान है। मतदाता इसलिए मेनिफेस्टो नहीं पढ़ते। मेनिफेस्टो पढ़ने में ही चुनाव बीत जाएगा। आखिर वो किस-किस का मेनिफेस्टो पढें। पहले गठबंधन का मेनिफेस्टो फिर दलों का। फिर नेता का विज़न पत्र। चुनाव न हो गया है बोर्ड की परीक्षा हो गई है। मेनिफेस्टो रटने में ही चुनाव बीत जाएगा।
हर मतदाता के पास चुनाव की कुंजी है। कौन जीतेगा उसका विश्लेषण है। यहां की राजनीति समझने का एक ही फार्मूला है। अंदाज़ी-टक्कर। जिसका लह गया वो बाज़ी जीत गया। पब्लिक शर्त लगाने में व्यस्त है कि कौन पार्टी कब तक किस गठबंधन में रहेगी? किस गठबंधन का रिश्ता उस गठबंधन से है।
किस नेता का ससुराल उस गठबंधन के नेता के यहां है। गठबंधन स्थायी हो या अस्थायी, मतदाता को पता है कि वह स्थायी है। दल का फायदा भले हो जाए उसे नुकसान होना ही होना है। गठबंधन एक बस है। अगली बस छूट गई तो पिछली बस पकड़ लो।
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