याद करिए वो दौर, जब लॉकडाउन के सन्नाटे में सिर पर बैग रखे, कमर पर बच्चों को टिकाए लोग चले जा रहे थे। इस चिंता से दूर कि वो जहां जा रहे हैं, वहां तक पहुंचने में कितने दिन लगेंगे। बस चिंता थी तो पेट भरने की। इस उम्मीद में निकल रहे थे कि आज भूखे चल पड़ेंगे तो कल अपने गांव-घर पहुंचकर खाना मिल ही जाएगा। इनकी कोई खास पहचान तो नहीं थी। बस इन्हें प्रवासी मजदूर कहा जा रहा था।
ज्यादातर प्रवासी मजदूर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों के थे। क्योंकि, इसी साल बिहार में चुनाव भी होने हैं, तो लगा तो था कि चुनाव में मुद्दा बनेगा, लेकिन ऐसा अभी तक तो नहीं दिख रहा है। उस समय राज्य सरकारों ने वादा तो किया था कि जो प्रवासी मजदूर लौट रहे हैं, उन्हें अपने राज्य में ही रोजगार दिया जाएगा। लेकिन, क्या वाकई ऐसा हुआ है। इसे जानने के लिए हमने लॉकडाउन में अपने घर लौटकर आए लोगों से बात की।
15 लाख से ज्यादा मजदूर लौटे थे बिहार
सितंबर में जब संसद शुरू हुई तो लोकसभा में प्रवासी मजदूरों के डेटा को लेकर सवाल पूछा गया था। इसका जवाब श्रम और रोजगार राज्य मंत्री संतोष सिंह गंगवार ने दिया। जवाब के मुताबिक, लॉकडाउन के दौरान 1.04 करोड़ से ज्यादा प्रवासी मजदूर अपने घर लौटे थे। इनमें सबसे ज्यादा 32.49 लाख मजदूर उत्तर प्रदेश और 15 लाख मजदूर बिहार लौटकर आए थे।
बिहार से कितने लोग पलायन करते हैं, इसका सबसे ताजा डेटा 2011 का है। इस डेटा के मुताबिक, उस समय तक 2.72 करोड़ से ज्यादा लोग पलायन कर चुके थे। इनमें से 7 लाख से ज्यादा रोजगार की वजह से बिहार छोड़ने को मजबूर हुए थे। जबकि, 2 करोड़ से ज्यादा लोगों ने शादी की वजह से बिहार छोड़ा था। हालांकि, इनमें से 98% से ज्यादा महिलाएं ही थीं।
हर 5 साल में सरकार तो बनती है, लेकिन रोजगार नहीं मिलता
गया, नवादा, बिहार शरीफ, औरंगाबाद, जहानाबाद और अरवल जैसे जिलों में जब रोजगार को लेकर युवाओं से बात की गई, तो कई बातें सामने आईं। नरेश सिंह, बब्बन शर्मा, राजेश यादव और दिनेश दांगी जहानाबाद के रहने वाले हैं। चारों गुजरात की एक कपड़ा फैक्ट्री में काम करते थे। लॉकडाउन में वापस लौट आए हैं।
चारों का कहना है, कपड़ा फैक्ट्री में हममें से कोई चेकर, कोई सुपरवाइजर तो कोई मैकेनिक सुपरवाइजर था। हम सभी ये सोचकर लौटे थे कि यहीं आसपास कोई अच्छा काम मिल जाएगा, पर ऐसा अब तक कुछ भी नहीं हुआ। इनका कहना है कि बेशक विधानसभा चुनाव हर 5 साल में आता है और जैसे-तैसे नई सरकार भी बन जाती है, पर जो भी पार्टी सत्ता में अब तक रही है, वो रोजगार दिलाने के फ्रंट पर नाकाम ही रही है।
गया के ही रहने वाले सचिन सिंह, राजेश सिंह, रोशन महतो, जीवन मिश्रा चंडीगढ़ में इलेक्ट्रॉनिक इक्विपमेंट बनाने वाली कंपनी में काम करते थे। वो बताते हैं, हम लॉकडाउन में घर लौटे थे और अभी तक इसी आस में हैं कि जल्द ही कुछ होगा। हम सभी आईआईटी पास हैं, पर हमारे लिए यहां कोई काम नहीं है। हमारे यहां सरकार बिजली, पानी, सड़क में ही सिमट कर रह गई, जबकि पंजाब की सरकार इससे काफी आगे बढ़ चुकी है।
दूसरे राज्यों में प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले युवा कहते हैं, बिहार में एक भी ऐसा इलाका नही है, जिसे राज्य या राष्ट्रीय स्तर के औद्योगिक क्षेत्र के नाम से जाना जाता हो और वहां हजारों युवा काम करते हों।
राजेश सिन्हा, धनेश चंद्रवंशी, विशेष चंद्रवंशी और राजीव सिंह बिहार शरीफ के रहने वाले हैं। इनका कहना है, लालू राज से लेकर नीतीश राज तक, हर सरकार में यही हाल रहा है। हालांकि, वो ये भी कहते हैं कि नीतीश सरकार में स्किल डेवलपमेंट पर खासा जोर दिया गया है, लेकिन इससे रोजगार नहीं मिलता न। स्किल डेवलपमेंट सेंटर से युवाओं में स्किल तो आ जाती है, लेकिन जब राज्य में इंडस्ट्रीज और फैक्ट्रीज ही नहीं हैं, तो रोजगार कहां से मिलेगा?
गया जिले के धर्मेंद्र तांती, दिनेश रजवार, अंशु पाठक, ज्ञानेश शर्मा बताते हैं कि जब लॉकडाउन लगा था, तो सरकार की तरफ से रोजगार सृजन के लिए हर जिले को 50 लाख रुपए मिले थे। इन पैसों से युवाओं को रोजगार दिलाने की योजना थी, पर अब तक ये ग्राउंड पर नहीं आ सकी है।
बिहार सरकार के 2019-20 के इकोनॉमिक सर्वे में बिहार में बेरोजगारी दर के आंकड़े दिए गए थे। हालांकि, ये आंकड़े 2017-18 के थे। इन आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी दर 6.8% और शहरी इलाकों में 9% थी। जो नेशनल एवरेज से कहीं ज्यादा थी। देश में ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी दर 5.3% थी, जबकि शहरी इलाकों में 7.7% थी। इन आंकड़ों की माने तो सबसे ज्यादा बेरोजगारी दर के मामले में बिहार टॉप-10 राज्यों में था।
तो क्या वोट डालेंगे ये लोग?
जब खुद युवाओं का कहना है कि सरकारें रोजगार मुहैया करने में नाकाम रही हैं, तो सवाल उठता है कि क्या ये लोग वोट करेंगे? इस पर कुछ युवाओं का कहना है, जो सरकार या नेता अब तक रोजगार दिलाने में नाकाम ही रहे हैं, तो ऐसे में उनके लिए वोट करने का कोई मतलब नहीं रह जाता है।
कुछ युवा ऐसे भी हैं जिनका कहना है कि जब वोटिंग की तारीख आएगी, तब तक वो अपने काम के सिलसिले में यहां से जा चुके होंगे। हालांकि, राजेश विश्वकर्मा जैसे कुछ युवा ऐसे भी हैं जो जातीय समीकरण का हवाला देते हुए वोट डालने की बात करते हैं।
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