शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2020

सरकार अपने कुशासन के खिलाफ संसद में होने वाली प्रार्थना को सुनने की बजाय, इस मंदिर को नष्ट करना चाहती है

संसद के मानसून सत्र का जब कोविड की आशंका से अचानक ही 23 सितंबर को अवसान हुआ तो भारतीय लोकतंत्र की मौत का नाद और तेजी से बजने लगा। राज्यसभा में विपक्ष की लगभग गैरमौजूदगी में आठ बिलों को हड़बड़ी में पारित करना जो संविधान का मजाक है।

यह कोई हादसा नहीं था कि सदन का बहिष्कार कर रहे सांसदों ने दोनों संस्थापकों के मूल्यों से विश्वासघात के विरोध में महात्मा गांधी की मूर्ति से लेकर डॉ. अम्बेडकर की प्रतिमा तक मार्च किया। यह सत्र तीन बातों के लिए याद किया जाएगा- योजना में चूक, दिशाहीन नीतियां और सरकार का खराब आचरण।

देश में बढ़ते कोविड-19 के मामलों के बीच संसद का सत्र बुलाने पर ही सवाल है। बड़ी संख्या में सांसद 60-80 साल आयुवर्ग के हैं, जिन्हें सबसे ज्यादा खतरा है। ऐसे हालात में राष्ट्रीय परिदृश्य को ध्यान में रखकर संसद का सदन बुलाना हर तरह से जोखिम भरा फैसला था।

ऐसा नहीं है कि विधायी कार्य और संवैधानिक जनादेश का पालन नहीं होना चाहिए। इसके विपरीत मैंने बार-बार तर्क दिया कि इसको आभासी प्रक्रिया से किया जाए। दुनियाभर में संसद और संसदीय कमेटियां इस तरह से काम कर रही हैं, जिसमें कुछ सांसद सदन में आते हैं और बाकी घर से ही उसमें शामिल होते हैं।

एक आईटी जाएंट और डिजिटल भारत के दावे के बावजूद हम इन प्रक्रियाओं से दूर रहे। संवैधानिक रूप से संसद के दो सत्रों में छह माह से ज्यादा का अंतर नहीं हो सकता, इसलिए सरकार को 23 सितंबर से पहले इसे बुलाना जरूरी था। लेकिन, पूरी कहानी यही नहीं है। सरकार ने इस अवधि में 11 अध्यादेश पारित किए थे। इन्हें विधेयकों में नहीं बदला जाता तो नया सत्र शुरू होने के छह सप्ताह में ये खुद ही कालातीत हो जाते।

महामारी के बीच ही युवाओं को नीट व जेईई जैसी परीक्षाएं देने के लिए मजबूर किया गया, कार्यालयों व अन्य कार्यस्थलों को खोला गया। ऐसे में अगर वायरस की वजह से संसद बंद रहती तो इससे खराब संदेश जाता। इसीलिए आधे-अधूरे तरीके से संसद का सत्र बुलाया गया, सरकार ने तेजी से विधायी काम निपटाए।

यहीं पर हमें दिशाहीन नीतियां नजर आईं। अध्यादेश सामान्यतः विशेष परिस्थितियों में लाए जाते हैं, लेकिन यह सरकार विवादास्पद मुद्दों पर लगातार ऐसा कर रही है। बहुत बड़ी जनसंख्या को प्रभावित करने वाले कृषि और श्रम जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों से जुड़े बिल तमाम आपत्तियों के बावजूद पारित कर दिए गए।

राज्य सरकारों से चर्चा किए बिना सरकार द्वारा खेती को विनियंत्रित करने और छोटे किसानों को बड़े कॉरपोरेट के भरोसे छोड़ने, श्रम कानूनों में परिवर्तन से श्रमिकों को होने वाले नुकसान की वजह से विपक्ष उत्तेजित रहा।

विपक्ष ने ध्यान दिलाया कि तमाम सरकारी बिलों में स्पीकर के निर्देशों का उल्लंघन हो रहा है, क्योंकि उनके निर्देश के मुताबिक विधेयकों को पेश करने से दो दिन पहले उनकी प्रति सांसदों में नहीं बंट रही है। यह बार-बार हो रहा है, जिससे संसद रबर-स्टाम्प जैसी हो गई है।

भाजपा ने लोकसभा में प्रचंड बहुमत का इस्तेमाल विधेयकों को पारित कराने में किया, लेकिन चीन के साथ तनाव पर कोई चर्चा नहीं हुई। नई शिक्षा नीति न पेश हुई, न इसपर बहस हुई। लॉकडाउन में प्रवासी श्रमिकों के कष्टों, बढ़ती बेरोजगारी जैसे मुद्दों को नजरअंदाज किया गया। साथ ही देश की खराब होती अर्थव्यवस्था पर भी सांसद सरकार को नहीं घेर सके।

बिना वजह प्रश्नकाल खत्म कर दिया गया। अब यह तर्क तो नहीं दे सकते कि सवाल पूछने पर सांसदों को कोरोना का खतरा है।

इस सीमित सत्र की खासियत बिलों को पारित कराने को लेकर सरकार का खराब आचरण रहा। संघवाद का दमन करते हुए सरकार ने किसानों के विरोध के बावजूद दशकों पुरानी परंपराएं एक झटके में समाप्त कर दीं। वहीं राज्यसभा में उपसभापति के माध्यम से मतविभाजन की मांग को खारिज करके उसने कृषि विधेयक पारित कराया।

जिन लोगों ने संसदीय परंपरा को तोड़ने का विरोध किया, उन्हें सदन से बाहर कर दिया गया। आठ सांसदों को सत्र की बाकी अवधि में भाग लेने से निलंबित कर दिया गया। जब सरकार ने गलती मानने से इनकार किया तो विपक्ष ने भी बाकी सत्र का बहिष्कार कर दिया।

लोकसभा में कोविड के प्रबंधन में सरकार की विफलता को लेकर हुई चर्चा भी सरकार द्वारा ठोस उत्तर देने के प्रति अनिच्छा व विपक्ष के सुझावों में रुचि न दिखाने की वजह से सीमित रह गई। प्रधानमंत्री संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहते हैं।

ऐसा लगता है कि सरकार अपने कुशासन के खिलाफ यहां होने वाली प्रार्थना को सुनने की बजाय इस मंदिर को नष्ट करना चाहती है। पिछले छह सालों में हमने देखा है कि जब भी किसी गंभीर मसले पर सार्थक चर्चा का मौका आता है तो सरकार की प्राथमिकता स्पष्ट होती है: सरकार प्रस्ताव करेगी, विपक्ष विरोध करेगा और सरकार का बहुमत काम करेगा।

मैंने अपनी किताब ‘द पैराडॉक्सियल प्राइम मिनिस्टर’ में कहा था कि ऐसे कदम भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए ठीक नहीं हैं। अगर संसद जैसे हमारे पवित्र संस्थानों पर हमला होगा तो इन संस्थाओं में हमारे लोगों का भरोसा कमजोर होगा और लोकतंत्र के ये स्तंभ कमजोर होंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
शशि थरूर. पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद।


from Dainik Bhaskar https://ift.tt/3cT9PL9
https://ift.tt/3lbw3v3

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

If you have any doubt, please let me know.

Popular Post