गुरुवार, 10 दिसंबर 2020

नए कानूनों से सुधार की बजाय, मंडी व्यवस्था के खत्म होने का डर है

किसानी से संबंधित तीन नए कानूनों को लेकर किसान फिर से सड़कों पर आ गए हैं। किसानी और किसानों का मुद्दा कई सालों से बड़ा मुद्दा रहा है। वर्ष 2017 में तमिलनाडु के किसान कई दिनों तक दिल्ली में प्रदर्शन करते रहे। फिर 2018-19 में महाराष्ट्र के 35,000 किसान मुंबई तक पैदल पहुंचे। आज पंजाब और हरियाणा के किसान अपने ट्रैक्टर-ट्रॉली पर दिल्ली पहुंचे हैं।
पंजाब और हरियाणा से इतनी भारी संख्या में प्रदर्शन अद्भुत है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि दोनों राज्यों को वर्तमान के सरकारी ढांचे से बड़ी मदद मिली है। दोनों राज्य देश के ग़रीब राज्यों में थे। सरकारी खरीद और न्यूनतम समर्थन मूल्य नीति से इन राज्यों में खुशहाली आई। आज आय के मानक पर पंजाब और हरियाणा सबसे अमीर राज्यों में से हैं। वहां गरीबी की दर भी बहुत कम है।
वर्तमान की नीतियों में त्रुटियां हैं। जैसे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार द्वारा केवल गेहूं और चावल की खरीद की जाती है। इन नीतियों से किसानी को नुकसान भी हुआ है। उदाहरण के लिए, पंजाब में धान उगाने से पानी का स्तर गिरा है। लेकिन किसानों की मांग यह है कि सरकार वर्तमान ढांचे में सुधार लाए।

नए कानूनों से सुधार की बजाय, मंडी व्यवस्था के खत्म होने का डर है। उदाहरण के लिए, चूंकि एक कानून में निजी कंपनी, बिना किसी कर दिए, सरकारी मंडी से बाहर कृषि उत्पाद खरीद सकती हैं, तो डर यह है कि सरकारी मंडी निजी मंडी के मुकालबे अप्रतिस्पर्धात्मक हो जाएगी, और अंत में खत्म कर दी जाएगी।
एक सवाल बार-बार उठा है कि केवल पंजाब और हरियाणा के किसान प्रदर्शन कर रहे हैं। इससे निष्कर्ष यह निकाला जा रहा है कि या तो केवल वे ही प्रभावित हैं या उन्हें गुमराह किया जा रहा है। किसी ने गैर- ज़िम्मेदाराना बयान दिया कि वे ‘खालिस्तानी’ हैं। इन अपशब्दों से पहुंची चोट का विरोध किसान बैनर से कर रहे हैं।

टिकरी बॉर्डर पर ‘हम किसान हैं, आतंकवादी नहीं’ बैनर सबसे ज्यादा दिखता है। बेशक पंजाब और हरियाणा के किसान सबसे ज्यादा दिख रहे हैं। दोनों राज्य दिल्ली से सटे हुए हैं। चूंकि इन किसानों को इस व्यवस्था का लाभ मिला है, उन्हें यह समझ है कि इसके जाने से नुकसान हो सकता है। लेकिन यह अवधारणा सही नहीं कि केवल पंजाब-हरियाणा के किसानों को आपत्ति है। कई राज्यों में किसान सड़कों पर उतरे हुए हैं।
2000 के दशक के मध्य तक गेहूं और धान की खरीद का 80 प्रतिशत पंजाब-हरियाणा से आता था। तब से, मध्य प्रदेश ने गेहूं खरीद में बड़ा योगदान किया है (2019-20 में 40 प्रतिशत)। धान में छत्तीसगढ़ और ओडिशा से खरीदी तेज़ी से बढ़ी है (लगभग 30%)। यह बदलाव पिछले 10-15 सालों में आया है, लेकिन आम चर्चा में इसे मान्यता नहीं मिली है।

आम चर्चा में ज्यादातर पुरानी कहानी चल रही है, जिसके अनुसार सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीति से केवल पंजाब और हरियाणा के बड़े किसानों का फायदा हुआ है। अन्य राज्यों में मंडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था पिछले 10-15 सालों से ही कारगर हुई है, और वहां पंजाब-हरियाणा के विपरीत, छोटे किसानों को फायदा हुआ है।
सरकारी मंडी में बड़ी संख्या में मज़दूर काम करते हैं। आमतौर पर वे भूमिहीन और दलित हैं। हालांकि सरकारी खरीद की नीति से उनका सीधा वास्ता नहीं है लेकिन मंडी के अस्तित्व को खतरा यानी उनकी आजीविका को खतरा। वह यह भी देख रहे हैं कि वर्तमान में निजी भंडार में मज़दूर कम, मशीन ज्यादा लगी हुई हैं, तो उनका रोज़गार ख़तरे में है।
सरकार से तीनों ‘काले’ कानून वापस लेने की किसानों की मांग को कई लोग बेजा करार दे रहे हैं। लेकिन वे भूल गए कि लोकसभा में इन कानूनों को ध्वनि मत से पास किया गया (हालांकि विपक्ष की मांग थी कि वोटों का विभाजन हो)। राज्यसभा में भी नियमों का उल्लंघन हुआ। संसदीय समिति को भेजना तो दूर की बात रह गई। यह भी सवाल उठा था कि क्या केंद्र सरकार को इस मुद्दे पर कानून लाने का संवैधानिक हक है भी? आज की परिस्थिति उस अलोकतांत्रिक रवैये का परिणाम है। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)



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रीतिका खेड़ा, अर्थशास्त्री, दिल्ली आईआईटी में पढ़ाती हैं।


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