एक मुश्किलों भरा साल खत्म हो रहा है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चिंताएं खत्म होती नहीं दिख रहीं। भारत कई प्रमुख इंडेक्स पर पहले के मुकाबले बुरी हालत में दिख रहा है। आप सवाल कर सकते हैं कि किसी सरकार के सातवें साल में उसके आंकलन की क्या जरूरत है? अगर मोदी-भाजपा हर राजनीतिक लड़ाई जीत रही है, तो फिर क्या परेशानी है? इसका जवाब यह है कि नेतृत्व का अर्थ केवल लोकप्रियता नहीं होता। आप फिर सवाल कर सकते हैं कि इन बातों को उठाने का आज क्या मतलब है?
हाल के दिनों में आंकड़ों, कई सर्वे, ग्लोबल रेटिंग और रैंकिंग की जैसे बरसात हुई है। ये सब बता रहे हैं कि इस सरकार की उपलब्धियां क्या रहीं और उसने क्या गंवा दिया। सबसे ताजा हैं सरकार के अपने आंकड़े, जो राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वे (NFHS-5), फेज-1 से हासिल हुए हैं। इसमें सभी पैमानों पर बेहद खराब आंकड़े सामने आए हैं।
ह्यूमन फ्रीडम इंडेक्स की ताजा रैंकिंग में भारत 17 पायदान नीचे गिरकर 111 नंबर पर पहुंचा गया है। इसे आप मोदी विरोधियों की साजिश नहीं बता सकते, क्योंकि यह सर्वे वाशिंगटन का काटो इंस्टीट्यूट करता है। ह्यूमन फ्रीडम इंडेक्स के पैमानों में कानून का शासन, सुरक्षा, धार्मिक स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति, सूचना की स्वतंत्रता, सरकार का आकार आदि शामिल हैं।
फ्रीडम इंडेक्स (बिजनेस की स्वतंत्रता) के मामले में भी ब्राजील, मेक्सिको, कंबोडिया, नेपाल, युगांडा, भूटान तक ने हमें मात दे दी है। वैसे, हम पाकिस्तान व बांग्लादेश से काफी आगे हैं। कजाकिस्तान हमसे 36 सीढ़ी ऊपर 75वें नंबर पर है। 2020 में जारी ये रैंकिंग दरअसल 2018 की हैं। इसलिए आप कोरोना महामारी को दोष नहीं दे सकते।
सितंबर में जारी ग्लोबल इकोनॉमिक फ्रीडम इंडेक्स में भारत की रैंकिंग 26 पायदान लुढ़ककर 105 हो गई। यह कनाडा के फ्रेजर इंस्टीट्यूट द्वारा दी गई है। अक्टूबर में जारी इंटरनेट फ्रीडम इंडेक्स के मुताबिक, भारत ने लगातार तीसरे साल गिरावट दर्ज की, क्योंकि यहां दुनिया में सबसे ज्यादा बार इंटरनेट बंद किया गया।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम हर साल जो मानव विकास रिपोर्ट जारी करता है, उसमें भी हम दो पायदान नीचे गिरकर 131 नंबर पर पहुंच गए हैं। जबकि, पूर्ण बहुमत वाली सरकार से कहीं बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद की जा सकती थी।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स (GHI) में भारत को पिछले साल 102वीं रैंक मिली थी। इस साल 94वीं रैंक मिली है, लेकिन इस साल यह रैंक 107 देशों के बीच मिली, जबकि पिछले साल 117 देश थे। GHI में भारत हमेशा परेशानी का सामना करता रहा है। हालांकि, हमारे यहां दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम चलता है। लेकिन GHI का ताल्लुक लोगों के पोषण से है। यहीं पर NFHS हमें आईना दिखाता है।
यह बताता है कि 1998-99 के बाद पहली बार भारत में बाल कुपोषण में गिरावट की दिशा उलट गई है। केरल, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों की तस्वीर बुरी है। वहां पांच साल से कम उम्र के बच्चों में फेफड़ों की बीमारी और वजन की कमी जैसी समस्या बढ़ रही है। अधिकांश राज्यों में बच्चों में मोटापे की समस्या है। यह कैसे हो सकता है कि बच्चे दुबले भी हो रहे हैं और उनमें मोटापा भी बढ़ रहा है?
यह सब पढ़कर मोदी के आलोचक खुश हो रहे होंगे कि मोदी तो स्वच्छ भारत मिशन, राष्ट्रीय पोषण मिशन पर दावे पेश कर रहे हैं। लेकिन आलोचक निराश होंगे, क्योंकि सर्वे बताता है कि सफाई के मामले में सुधार दिखता है और समन्वित बाल विकास योजना के विस्तार व क्रियान्वयन में सुधार हुआ है। तो फिर गड़बड़ी कहां हुई? पिछले पांच साल में आर्थिक वृद्धि दर में कमी आई है। गरीबों पर इसका असर सबसे ज्यादा पड़ा है। ऐसे परिवारों के लिए पोषक चीजें पहुंच से दूर होती गई हैं। इसलिए, NFHS और GHI की रिपोर्ट साथ-साथ पढ़िए, तो बात समझ आएगी।
हमें समझना होगा कि यह विरोधाभास क्यों पैदा हुआ। यह रहस्य तभी खुलेगा, जब आप इस बात को कबूलेंगे कि मोदी-भाजपा ने अपनी वोट खींचने की अपील से आर्थिक वृद्धि को अलग कर दिया है। राष्ट्रवाद, धर्म, मोदी की निजी लोकप्रियता और नाकारा विपक्ष, मोदी-भाजपा को चुनाव जिताने के लिए काफी हैं। लेकिन, ऊपर दिए आंकड़े उनके लिए चेतावनी हैं।
आप सारी बातें पूर्वाग्रह बताकर खारिज कर सकते हैं, उनके लिए कांग्रेस के सत्तर साल को दोषी ठहरा सकते हैं। लेकिन, NFHS के सर्वे में जिन बच्चों को शामिल किया गया, वे पांच साल से कम उम्र के थे। वे सब मोदी राज में पैदा हुए। सर्वे कोरोना महामारी से पहले पूरा हो चुका था, इसलिए अब छिपने की कोई जगह नहीं बची है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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