25 मार्च के बाद लॉकडाउन के 68 दिनों में अप्रैल व मई महीने प्रवासी मजदूरों के लिए काफी दुखदाईरहे। तपती गर्मी में कभी नंगे पांव पैदल चले तो कभी साइकिल से, रास्ते में जो भी साधन मिला, उसे ही अपनी मंजिल तक पहुंचने का सहारा बनाया। ट्रकों में बोरियों की मानिंद भरकर हजारों किमी सफर तयकर घर की दहलीज पहुंचे।
इस सफर में उन्होंने खुद की जान की परवाह नहीं की। लेकिन घर दहलीज लांघने से पहले उन्हें यह चिंता सताने लगी कि कहीं उनके अपने न संक्रमित हो जाएं, इसलिए घर के बाहर खुद को क्वारैंटाइन कर लिया। लेकिन उनकी मौत हो गई। ऐसी ही बेबसी की तीन कहानी, पीड़ित परिवारों की जुबानी...
जौनपुर: बेटी की शादी के लिए जमा पूंजी से दोस्तों की मदद की, घर से 200 मीटर दूर बगीचे में गई जान
सुरेरी गांव निवासी जयशंकर 16 मई को मुंबई से गांव लौटकर आए थे। उनके साथ पत्नी आरती, दो बेटे अनिकेत, शुभम और बड़े भाई शिवशंकर थे। घर से 200 मीटर दूरी पर बगीचे में सभी क्वारैंटाइन हुए थे। लेकिन, 20 मई की रात अचानक जयशंकर की तबियत खराब हुई।
उसे अस्पताल ले जाया गया, लेकिन मौत हो गई। मौत क्यों हुई? इसकी पुष्टि के अफसरों ने न पोस्टमार्टम कराया न ही कोरोना का टेस्ट हुआ। नतीजा बाद में जयशंकर के दोनों बेटों की जब जांच हुई तो वे संक्रमित मिले। हालांकि, अब दोनों स्वस्थ होकर घर लौट आए हैं। लेकिन पिता की मौत कैसे हुई, यह सवाल उनके मन में कौंध रहा है।
पत्नी आरती बताती हैं कि, जयशंकर महाराष्ट्र में छोटी सी दुकान में टेलर का काम करते थे। बड़ी बेटी संजना जो कि गांव में ही अपने नाना-नानी के साथ रहती थी। जयशंकर उनका भी खर्च उठाते थे। बाकी हम लोग मुंबई में रहते थे। जब लॉकडाउन हुआ तो काम बंद हो गया। कोरोना भी वहां बहुत तेजी से फैल रहा था, फिर भी हम लोगों ने अप्रैल माह भर इंतजार किया।
पति ने बेटी की शादी के लिए कुछ पैसे बचा रखे थे। लेकिन बिहार व राजस्थान के कुछ मजदूर साथी बेहद परेशान थे तो बचत उनकी मदद में खर्च कर दी। हमने श्रमिक ट्रेन का रजिस्ट्रेशन कराया था। 16 मई को वाराणसी परिवार के साथ पहुंचे, फिर वहां से बस से गांव आए थे। मुंबई लौटने के सवाल पर आरती गहरी सांस भरते हुए कहती है कि, अब वो ( पति जयशंकर) नहीं रहे तो वापस जाकर क्या करेंगे?
जयशंकर के बड़े भाई शिवशंकर भी मुंबई में रहते हैं। वह कहते हैं कि जयशंकर को बेटी की शादी 2 से 3 साल बाद करनी थी। उसने पैसे भी बचाए, लेकिन जब अपने दोस्तों को परेशानी में देखा तो उसी पैसों से उनकी मदद भी की। थोड़े बहुत जो पैसे बचे उनसे परिवार वापस घर आ गया है। अब सबसे बड़ी चिंता यही है कि बच्चों की देखभाल और बेटी की शादी कैसे होगी? परिवार का कहना है कि अगर सरकार परिवार सदस्यों को कोई रोजगार दे दे तो परिवार का भला हो जाएगा।
एसपी ग्रामीण संजय राय कहते हैं कि, जयशंकर का पोस्टमार्टम नहीं हुआ था। मौत की वजह इसीलिए स्पष्ट नहीं हुई थी। परिजनों ने अंतिम संस्कार कर दिया था। वहीं ग्राम प्रधान रामशंकर ने बताया कि, सदर अस्पताल में डॉक्टरों ने भर्ती नहीं किया। इलाज के अभाव में उसकी मौत हो गई। कोरोना का भी टेस्ट नहीं हुआ था। बहुत पहले इसको टीबी भी हुआ था। जयशंकर की मौत के बाद पूरे परिवार का टेस्ट हुआ तो दोनों बेटे पॉजिटिव पाए गए थे। अब दोनों स्वस्थ होकर घर पर ही हैं।
गोंडा: 150 किमी साइकिल चलाईफिर से बस से पहुंचा था गांव, अनधिकृत क्वारैंटाइन सेंटर में सर्पदंश से गई जान
तकरीबन 150 किमी साइकिल चलाई। जान जोखिम में डालकर गंगा नदी पार की। फिर बस से घर पहुंचे। अपनों को कोरोना न हो जाए, इसके लिए गांव के बाहर अनाधिकृत क्वारैंटाइन सेंटर 14 दिन बिताने का निर्णय लिया। लेकिन, रात में सांप काटने से हो मौत हो गई। यह कहानी है गोंडा के रहने वाले 16 साल के महेंद्र की।
बोझिल आवाज में बाबा मथुरा बताते हैं कि महेंद्र गांव से 848 किमी दूर अपने बड़े चाचा सुखई के पास मार्च माह में हरियाणा के कैथल घुमने गया था। साथ में उसका चचेरा भाई भी था। सुखई कैथल में छोले कुलचे का ठेला लगाते हैं।
तभी चाचा सुखई बोल पड़ते हैं। कहने लगे कि, सब ठीक था लेकिन अचानक से लॉकडाउन लग गया। जो पैसे पास में थे, धीरे धीरे वह भी खत्म होने लगे। संगी साथी कोई पैदल तो कोई ट्रक से वापस अपने गांव की ओर भागने लगे। जब आर्थिक स्थिति डोलने लगी तो हमने भी हाथ पैर मारना शुरू किया।
लोगों से बात की तो बताया गया कि हरियाणा बॉर्डर पर पुलिस रोक लेती है। इसलिए साइकिल से बॉर्डर पार करो और गंगा नदी पार कर सहारनपुर पहुंचो। वहां से बस मिल जाएगी। घर में दो पुरानी साइकिल थी, जिसे दुरुस्त कराया। फिर मैं, मेरा बेटा व महेंद्र तीनों साइकिल से 10 मई को निकल पड़े।
तकरीबन डेढ़ सौ किमी साइकिल चलाई। फिर खेतों से होते हुए नदी तक पहुंचे और नाव वाले को 300 रुपए देकर नदी पार की। फिर किसी तरह हम लोग सहारनपुर बस स्टैंड पहुंचे। जहां पार्किंग में साइकिल खड़ी की और हमें पर्ची मिली कि आप अपनी साइकिल वापस ले जाना। 14 मई को हम बस से गोंडा पहुंचे फिर टेम्पो से थाना वजीरगंज के इमलिया गांव स्थित घर पहुंचे।
बाबा मथुरा बताते हैं कि दोपहर लगभग 3 या 4 बज रहे थे। हमने चौकी पर फोन कर पूछा साहब ये लोग आए हैं, कहां रोकें? तो हल्का दरोगा ने जवाब दिया कि, स्कूल में रुकवा दो जहां सब रुके हैं। गांव में कोई अधिकारिक क्वारैंटाइन सेंटर नहीं है।
बस पुलिस वालों के कहने पर सब स्कूल में रुकते हैं तो हमारे बच्चे भी चले गए। हमने ओढ़ना बिछौना भी दिया। लेकिन, रात में लेटने के एक घंटे बाद ही उसे सांप ने काट लिया। पता चला तो हम लोग उसे मोटरसाइकिल से लेकर गोंडा भागे। कई अस्पतालों में गए, लेकिन किसी ने इलाज नहीं किया।
महेंद्र के पिता रामकिशोर बताते हैं कि हम रोते रहे। गिडगिडाते रहे। लेकिन, किसी ने नहीं सुनी। आखिरकार जब जिला अस्पताल पहुंचे तो कुछ देर बाद वह मर गया। वह मेरा इकलौता बेटा था। सरकार की तरफ से मुआवजा मिला है। आवास बनाने का वादा किया था, लेकिन अभी तक पूरा नहीं हुआ।
सुल्तानपुर: बेटी को फोन कर एकसाथ ईद मनाने का किया था वादा, मगर घर पहुंची लाश
यहां धम्मौर थाना क्षेत्र के मनियारपुर गांव निवासी मुबारक अली मुम्बई में रहकर दर्जी का काम करते थे। 26 जनवरी को वो घर से मुंबई गए थे, लेकिन ये उनका आखरी सफर बन गया। ईद से ठीक आठ दिन पहले (16 मई) को उन्होंने घर फोन करके बताया कि वो परिवार के बीच ईद मनाने पहुंच रहे हैं।
उन्होंने ट्रक से मुंबई से सुल्तानपुर का सफर किया, जहां उनके साथ आस पड़ोस के लोग और रिश्तेदार भी मौजूद थे। लेकिन 17 मई को जब वो ट्रक से शहर के अमहट चौराहे पर पहुंचे और साथियों ने उन्हें उतारना चाहा तो वो मौत की नींद सो चुके थे। साथ बैठे लोगों को भी यह नहीं पता चला कि, मुबारक की मौत किस वक्त हो गई?
मृतक मुबारक अली की बड़ी बेटी अशरफी बानो बताती हैं कि, अब्बू ने जब हम लोगों को खबर दी थी कि वे घर आ रहे हैं तो हम लोग काफी खुश थे। इसके बाद से कई बार उनका फोन लगाया गया तो स्विच ऑफ जा रहा था। 23 वां रोजा था और हम सब इफ्तार के लिए बैठे थे कि अब्बू के साथ उसी ट्रक पर मौजूद मां के मायके के एक शख्स ने अब्बू की मौत की खबर दी।
उस वक्त मानो हम सबके पैर तले जमीन खिसक गई। दूसरे दिन 18 मई को पोस्टमार्टम होकर अब्बू की लाश घर लाई गई। इसके बाद जैसे तैसे चंद लोगों ने नमाज-ए-जनाजा अदा कर अब्बू को सुपुर्द-ए-खाक किया।
अशरफी बताती हैं कि उसके पिता करीब 20 सालों से मुम्बई में रहकर दर्जी का काम करते थे। जिससे परिवार अच्छे से पल रहा था। वे बच्चों की शिक्षा को लेकर भी काफी संजीदा थे। अशरफी जहां एमए प्रथम वर्ष की छात्रा है तो उसकी छोटी बहन दो दो भाई भी पढ़ाई लिखाई कर रहे हैं। अब इनकी शिक्षा से लेकर खाने पीने की इनके आगे बड़ी समस्या है। क्योंकि आज तक परिवार को कोई सरकारी मदद तक नहीं मिली है।
बेटी ने कहा- अब्बू हमारे दादा के इकलौते बेटे थे। अब्बू के अलावा उनकी 7 बहने हैं। लेकिन खेतीबाड़ी अधिक नहीं है। जिससे परिवार की माली हालत काफी खराब है। मौत के बाद कोरोना टेस्ट करवाया गया था। जिसकी रिपोर्ट निगेटिव आई थी। हालांकि मुबारक की मौत क्यों व कैसे हुई? यह सवाल अभी अनसुलझे हैं।
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