मंगलवार, 23 जून 2020

चीन के मामले में मोदी के पास विकल्पों की पुरानी थाली है, जिसमें नेहरू ने सबसे बुरा विकल्प चुना था

माओ ने 1959-62 में जैसा नेहरू के साथ किया था, उसी तरह शी जिनपिंग ने प्रधानमंत्री मोदी के लिए उनके सार्वजनिक जीवन की सबसे बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। आने वाले दिनों में मोदी को ऐसे कदम उठाने पड़ेंगे, जो देश की रणनीतिक किस्मत और खुद उनकी राजनीतिक विरासत को तय करेंगे।

लद्दाख में चीन के उकसावे पर उनका क्या जवाब होगा, इसका अनुमान कठिन है। लेकिन तीन संकेत उभरते हैं। आज जब वे रणनीतिक और राजनीतिक विकल्प तौल रहे हैं, तब उनके दिमाग में क्या सवाल उठ रहे होंगे, इसका अंदाजा हम लगा सकते हैं। वे चुनौती का जवाब नेहरू की तरह देना तो कतई नहीं चाहेंगे।

शी जिनपिंग ने पसंद का समय चुनकर उन्हें चुनौती दी है, वैसे ही जैसे 1962 में माओ ने किया था। इसलिए मोदी पर दबाव है कि देश-दुनिया को कैसे दिखाएं कि हम 1962 वाले नेहरू नहीं हैं। नेहरू ने फैसला किया था (मैंने फौज से कहा है, चीनियों को भगाओ), जो साहसी भले दिखा हो मगर हकीकत से दूर था। इसलिए इतिहास उन्हें साहसी, सख्त नेता के रूप में याद नहीं करता।

आज मोदी को कई तरह की बढ़त हासिल हैं। नेहरू के बड़े आलोचक उनके मंत्रिमंडल में मौजूद थे। मोदी के साथ ऐसी समस्या नहीं है। विपक्ष कमजोर है। सेना तब के मुकाबले मजबूत है। लेकिन नेहरू की एक कमजोरी मोदी के साथ भी जुड़ी है: विशाल सार्वजनिक छवि और पतली चमड़ी। शी ने यह कमजोरी भांप ली है।

चीनियों ने देख लिया है कि मोदी के लिए घरेलू राजनीति में ‘चेहरा’ कितना महत्वपूर्ण है। उन पर एक सख्त, निर्णायक, जोखिम लेने वाला नेता दिखते रहने का दबाव है। लेकिन यह सब चीन के मामले में आसान नहीं लगता।

क्या इतिहास और भूगोल ने भारत की किस्मत में दो मोर्चों पर लड़ना लिख दिया है? क्या वह इन दो में से एक के साथ सुलह करके ‘त्रिशूल’ की चुभन से बच सकता है? अगर ऐसा हो तो वह किसे चुने? तीसरे, अगर उसके पास कोई उपाय नहीं है, तब तक वह मूलतः गुटनिरपेक्ष रह सकता है?

1962 में नेहरू ने गुटनिरपेक्षता को परे रखकर मदद के लिए अमेरिका को आवाज़ लगाई थी। मदद मिली, जाहिर है कीमत देकर। दिसंबर में सरदार स्वर्ण सिंह दबाव में कश्मीर मसले पर ज़ुल्फिकार अली भुट्टो से वार्ता कर रहे थे। यह पश्चिमी देशों से मदद पाने के एवज में करना पड़ा था। स्वर्ण सिंह अटक गए, नेहरू पीछे हटे, केनेडी की हत्या हो गई और अमेरिका के साथ जो अवसर बन रहा था वह खत्म हो गया।

इंदिरा गांधी तेज थीं। 1971 में बांग्लादेश के रूप में जो अवसर बना, तो उन्हें पता था कि वे तभी कामयाब होंगी जब भारत चीन के दबाव से मुक्त होगा। उन्होंने सोवियत संघ के साथ संधि की। इसने उन्हें युद्ध निपटाने के लिए कुछ सप्ताह दे दिए।

राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह के पास वह राजनीतिक पूंजी नहीं थी जैसी मोदी के पास है। इन सबने ‘त्रिशूल’ को तोड़ने के लिए पाकिस्तान से सुलह की कोशिश की थी। मोदी ने भी नवाज़ शरीफ के साथ नाटकीय शुरुआत की मगर जल्दी कदम खींच लिए। आगे उन्होंने और उनकी पार्टी ने पाकिस्तान विरोध को सियासी सूत्र बना लिया।

मोदी ने भी पूर्ववर्तियों की तरह ‘त्रिशूल’ से मुक्त होने की कोशिश की लेकिन वे उनसे अलग चीन की ओर झुके। उसके साथ व्यापार घाटा 60 अरब डॉलर पहुंच गया तो भी इससे मुंह फेरे रहे। सारा गणित यह था कि चीन को एहसास दिलाया जाए कि भारत के साथ सुलह-शांति में उसका ही हित है।

शी ने अब दिखा दिया है कि विश्व का ‘डिप्टी सुपरपावर’ रणनीतिक हितों को व्यापार सरप्लस से नहीं तौलता। पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए उसके साथियों, पूरब में चीन और पश्चिम में अरब जगत को साथ लेने का विचार रचनात्मक और दुस्साहसी था। लेकिन शी ने पेशकश ठुकरा दी।

अब मोदी के पास वही तीन विकल्प बचे हैं- किसी सुपरपावर का हाथ थाम लो, दो पड़ोसियों में से एक से सुलह कर लो या ‘एकला चलो’ गाते हुए दोनों मोर्चों पर लड़ते रहो। इनमें पहले दो विकल्पों का मेल कैसा रहेगा?

सीमा समस्या को सुलझाना या एलएसी का निर्धारण करना उसके लिए फायदेमंद नहीं है। इन दो प्रतिद्वंदियों के बीच अमन तभी मुमकिन है जब सुपरपावर चाहेगा। भारत के लिए चीन वह सुपरपावर नहीं है। अब सवाल यह है कि क्या मोदी उस स्थिति की ओर लौटेंगे, जहां भारत ज्यादा ताकतवर शक्ति के रूप में पाकिस्तान से शांति की मांग करे?

पाकिस्तानी राज्यतंत्र के सुधार में विश्व समुदाय की भी दिलचस्पी है। अगर आप उस दिशा में बढ़ेंगे तो अपनी घरेलू राजनीति में जरूरी बदलाव करने होंगे। तब यह प्रश्न उभरेगा कि आपके रणनीतिक विकल्प आपकी चुनावी राजनीति से तय होते हैं या इसका उलटा है?

मोदी के सामने विकल्पों की वही पुरानी थाली है। नेहरू ने सबसे बुरा विकल्प चुना, इंदिरा ने सही विकल्प चुना मगर कुछ ही समय के लिए, मनमोहन सिंह ने तीसरा विकल्प आजमाने की कोशिश की थी लेकिन उनके पास न तो समय था और न राजनीतिक पूंजी थी।

(ये लेखक अपने विचार हैं)



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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’


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