सुबह के पांच बजे हैं। भारत-नेपाल सीमा पर बसा धारचूला शहर अभी अलसायी नींद से जागा नहीं है। पास में बहती काली नदी के वेग और पक्षियों के कलरव से इतर जो आवाज धारचूला की शांत वादियों में अभी गूंज रही है, वह रवि के गाड़ी के हॉर्न की आवाज़ है।
रवि के लिए आज की सुबह बेहद खास है। वे पहली बार गाड़ी से अपने गांव जा रहे हैं। पहली बार इसलिए क्योंकि उनका गांव हाल ही में मोटर रोड से जुड़ा है। ये वही रोड है जिसका उद्घाटन हाल ही में देश के रक्षा मंत्री ने किया है और जो धारचूला को लिपुलेख दर्रे से जोड़ती है। रवि नाबी गांव के रहने वाले हैं जो व्यास घाटी के सबसे सुदूर गांवों में से एक है।
रवि बताते हैं, ‘इस सड़क का निर्माण दोनों तरफ से शुरू हुआ था। मतलब लिपुलेख से नीचे की ओर और तवाघाट से ऊपर की ओर। ऊपरी हिस्सों में तो सड़क काफ़ी पहले ही बन चुकी थी। कालापानी से आगे और मेरे गांव तक भी सड़क बन चुकी थी। वहां फौज और आईटीबीपी की गाड़ियां भी कई साल से चलने लगी थी। लेकिन ये वही गाड़ियां थीं जिन्हें एयरलिफ़्ट करके वहां ऊपर पहुंचाया गया था। नीचे ये सड़क नजंग से आगे नहीं बनी थी इसलिए हमारा गांव सीधा धारचूला से नहीं जुड़ा था। ये पहली बार ही हुआ है।’
इस सड़क निर्माण के साथ ही अब व्यास घाटी में बसे तमाम गांव और लिपुलेख दर्रा भी मुख्य भारत से सीधा जुड़ गए हैं। लिपुलेख ही वह जगह है जहां से कैलाश मानसरोवर की यात्रा होती है। इसके मुख्य भारत से जुड़ने के साथ ही कैलाश मानसरोवर जाने वाले यात्रियों का सफर काफ़ी हद तक सुलभ हो गया है। लेकिन ये विडंबना ही है कि कई सालों की मेहनत के बाद जिस साल ये लिपुलेख को सड़क मार्ग से जोड़ने में हमें कामयाबी हासिल हुई, उस साल संभवतः कैलाश मानसरोवर यात्रा ही न हो।
कोरोना संक्रमण के चलते तय माना जा रहा है कि इस साल यह यात्रा रद्द कर दी जाएगी। 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के बाद जब 80 के दशक में यात्रा दोबारा शुरू की गई, तब से यह पहला मौक़ा है जब यात्रा पूरी तरह बंद रहेगी। इससे पहले साल 1998 हुए माल्पा कांड के चलते भी यात्रा बीच में ही स्थगित हुई थी, जब सैकड़ों यात्री प्राकृतिक आपदा की चपेट में आ गए थे। साल 2013 में आई उत्तराखंड आपदा के दौरान भी यात्रा बीच में रोकनी पड़ी थी। लेकिन यह पहली बार है जब यात्रा शुरू ही न हो।
यात्रा स्थगित होने का प्रभाव इस क्षेत्र के सैकड़ों लोगों पर पड़ने वाला है। आदि कैलाश मंदिर समिति के अध्यक्ष लक्ष्मण कुटियाल बताते हैं, ‘इस इलाक़े के सैकड़ों लोग यात्रा पर निर्भर होते हैं। धारचूला और आस-पास के गांवों से कई लड़के बतौर सहायक यात्रियों के साथ लिपुलेख दर्रे तक जाते हैं और सैकड़ों अन्य अपने घोड़े-खच्चरों से यात्रियों का सामान ढोते हैं। इन तमाम लोगों के लिए यही आजीविका का मुख्य स्रोत है जो इस साल बंद हो गया है।’
कोरोना महामारी के चलते इस साल भले ही यात्रा स्थगित रहे, लेकिन लिपुलेख तक सड़क बन जाने से आने वाले सालों में यात्रा काफी आसान हो जाएगी। इससे स्थानीय लोगों को कितना लाभ होने की उम्मीद है? यह सवाल करने पर लक्ष्मण कुटियाल कहते हैं, ‘सड़क बन जाने से निश्चित ही स्थानीय लोगों का कारोबार बढ़ने की उम्मीद है। लेकिन यह कैलाश मानसरोवर यात्रा के कारण नहीं होगा। क्योंकि यात्रियों की संख्या चीन तय करता है और साल में करीब एक हजार यात्री ही यहां से इस यात्रा पर जा सकते हैं। यात्रियों की संख्या अगर बढ़े तो स्थानीय लोगों को लाभ होगा लेकिन यह चीन की सहमति के बिना मुमकिन नहीं है।’
लक्ष्मण कुटियाल यह भी कहते हैं कि ‘भारत से जहां सिर्फ एक हजार यात्रियों को कैलाश मानसरोवर जाने की अनुमति मिलती है वहीं नेपाल से बीस-तीस हजार यात्री हर साल इस यात्रा पर जाते हैं। बल्कि भारत के भी कई लोग नेपाल होते हुए ही यात्रा पर जाते हैं क्योंकि वहां से यात्रा की औपचारिकताएं बहुत कम हैं और वहां निजी ट्रैवल एजेंट ही सारी व्यवस्था कर देते हैं। यदि लिपुलेख से भी निजी ट्रैवल एजेंट को यात्रा करवाने की छूट मिले और यात्रियों की संख्या बढ़ाने के लिए भारत-चीन में कोई समझौता हो सके, तो यह स्थानीय लोगों के लिए बेहद लाभदायक हो सकती है।’
क्या नेपाल की ही तरह भारत में भी कैलाश मानसरोवर की यात्रा निजी ट्रैवल एजेंट्स को सौंपी जा सकती है? इस सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार गोविंद पंत राजू कहते हैं, ‘इसकी संभावनाएं लगभग शून्य हैं और इसके वाजिब कारण भी हैं। पहला तो यही कि लिपुलेख बेहद संवेदनशील इलाका है। न सिर्फ़ राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से यह इलाका बेहद महत्वपूर्ण है, बल्कि यहां की भौगोलिक संरचना भी नेपाल से होने वाली यात्रा की तुलना में बेहद कठिन है। यहां निजी हाथों में यात्रा नहीं सौंपी जा सकती।’
अपने अनुभव साझा करते हुए गोविंद पंत राजू कहते हैं, ‘मैंने साल 1989 में कैलाश मानसरोवर की यात्रा की थी। उस वक्त भी लिपुलेख से तिब्बत वाली तरफ चीन काफी निर्माण कर चुका था और अब तो उसने लिपुलेख दर्रे से लगभग तीन किलोमीटर नीचे तक बहुत अच्छी सड़क बना ली है। जबकि भारत वाले हिस्से में स्थितियां आज भी लगभग पहले जैसी ही हैं। ऐसी स्थितियों में निजी एजेंट्स को यात्रियों की जिम्मेदारी नहीं सौंपी जा सकती।’
पिथौरागढ़ के ही रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार बीडी कसनियाल कहते हैं, ‘हमने ये जो सड़क बीस साल में बनाई है ये उस मुक़ाबले कुछ भी नहीं जो चीन तिब्बत वाली तरफ कर चुका है। हम अगर पहले ये काम कर चुके होते तो मानसरोवर यात्रा लिपुलेख से एक-दो दिन में पूरी की जा सकती थी। लेकिन इस यात्रा की कमान पूरी तरह से चीन के हाथ में है। वही एक तरह से इसे तय करता है। कितने यात्री आएंगे, कहां रुकेंगे, कितने दिन रुकेंगे, ये सब चीन से तय होता है। इसलिए इस सड़क के बनने से यात्रा बढ़ेगी, ये कहना ग़लत होगा। ये ज़रूर है कि यात्रियों की जिस सीमित संख्या की अनुमति चीन देता है, उन यात्रियों को कुछ आसानी होगी और सड़क बन जाने उस इलाके में घरेलू पर्यटकों का आना भी बढ़ेगा।’
इस सड़क निर्माण से ऐसी ही उम्मीद सुदूर कुटी गांव के रहने वाले अर्जुन सिंह को भी है। अर्जुन बीते कई साल से इस क्षेत्र में गाइड का काम करते हैं। वे बताते हैं, ‘इस इलाक़े में कई ट्रेक्स हैं और छोटा कैलाश जिसे कि आदि कैलाश भी कहते हैं, वह भी यहीं है। सड़क बन जाने से अब इन जगहों पर लोगों का आना बढ़ेगा तो गांव-गांव में होम-स्टे भी बनेंगे और स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलेगा।’
इस नई सड़क का उद्घाटन करते हुए देश के रक्षा मंत्री ने कैलाश मानसरोवर यात्रियों का प्रमुखता से जिक्र किया था। उन्होंने बताया था कि सड़क निर्माण के बाद यह यात्रा तीन हफ़्तों की न होकर सिर्फ़ एक हफ्ते में ही पूरी हो सकेगी। लेकिन इसके बावजूद भी यात्रियों को कैलाश मानसरोवर पहुंचाने में भारत की तुलना में नेपाल ने जो बढ़त बनाई है, उसका कम होना मुश्किल ही है। वह इसलिए कि लिपुलेख से यात्रा सुलभ होने के बाद भी यात्रियों की संख्या निर्धारित करना आख़िर चीन के ही हाथ में है।
ऐसे में कैलाश मानसरोवर की भौगोलिक दूरी भले ही लिपुलेख (भारत) से सबसे कम हो, लेकिन चीन से हमारी राजनीतिक दूरी फ़िलहाल नेपाल की तुलना में कहीं ज़्यादा है। यही कारण है कि सबसे छोटा रास्ता बना लेने के बाद भी अधिकतर भारतीयों को कैलाश मानसरोवर की यात्रा फिलहाल नेपाल होते हुए ही करनी पड़े।
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