साल 1861 की बात है। 1857 के सैन्य विद्रोह से घबराए अंग्रेजों ने देश में अपनी पकड़ मज़बूत करने के लिए नए-नए कानून लागू करने का सिलसिला शुरू कर दिया था। इसी क्रम में साल 1861 में ‘पुलिस ऐक्ट’ भी लागू किया गया। इसके तहत देशभर में पुलिसिया व्यवस्था का ढांचा तैयार किया गया लेकिन खर्च कम करने के लिए दुर्गम इलाकों में पुलिस की जिम्मेदारी राजस्व विभाग के अधिकारियों को ही सौंप दी गई।
देश की आज़ादी के बाद इस व्यवस्था में बदलाव हुए। पुलिस महकमा मज़बूत किया गया और देश के कोने-कोने में लोगों की सुरक्षा के लिए पुलिस चौकियां खोली गईं। महिला पुलिस की तैनाती की गई। अलग-अलग तरह की हेल्पलाइन शुरू हुई। वक्त के साथ पुलिस विभाग को लगातार आधुनिक प्रशिक्षण और तकनीक से समृद्ध किया जाने लगा।
लेकिन, उत्तराखंड का अधिकांश क्षेत्र इन तमाम चीजों से अछूता ही रहा। यह तथ्य कई लोगों को हैरान कर सकता है कि आज़ादी के इतने सालों बाद, आज भी उत्तराखंड का अधिकांश हिस्सा पुलिस व्यवस्था से अछूता ही है।
उत्तराखंड राज्य का 61 प्रतिशत हिस्सा आज भी ऐसा है, जहां न तो कोई पुलिस थाना है, न कोई पुलिस चौकी और न ही यह इलाका उत्तराखंड पुलिस के क्षेत्राधिकार में आता है। यहां आज भी अंग्रेजों की बनाई वह व्यवस्था जारी है, जहां पुलिस का काम राजस्व विभाग के कर्मचारी और अधिकारी ही करते हैं। इस व्यवस्था को ‘राजस्व पुलिस’ कहा जाता है।
राजस्व पुलिस का मतलब है कि पटवारी, लेखपाल, कानूनगो और नायब तहसीलदार जैसे कर्मचारी और अधिकारी ही यहां राजस्व वसूली के साथ-साथ पुलिस का काम भी करते हैं। कोई अपराध होने पर इन्हीं लोगों को एफआईआर भी लिखनी होती है, मामले की जांच-पड़ताल भी करनी होती है और अपराधियों की गिरफ्तारी भी इन्हीं के जिम्मे है। जबकि इनमें से किसी भी काम को करने के लिए इनके पास न तो कोई संसाधन होते हैं और न ही इन्हें इसका प्रशिक्षण मिलता है।
जौनसार इलाके के रहने वाले सुभाष तराण कहते हैं, ‘यह व्यवस्था उस दौर तक तो ठीक थी जब पहाड़ों में कोई अपराध नहीं होते थे लेकिन आज के लिए यह व्यवस्था ठीक नहीं है। अब पहाड़ भी अपराधों से अछूते नहीं हैं और पुलिस न होने के चलते अपराधी तत्वों को लगातार बल मिल रहा है। पटवारी के पास एक लाठी तक नहीं होती। आधुनिक हथियार तो बहुत दूर की बात है। ऐसे में अगर कहीं कोई अपराध होता है तो इलाके का पटवारी चाह कर भी त्वरित कार्रवाई नहीं कर सकता।’
साल 2018 में उत्तराखंड हाई कोर्ट ने इस व्यवस्था को समाप्त करने के आदेश दिए थे। तब एक मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस राजीव शर्मा और जस्टिस आलोक सिंह की खंडपीठ ने आदेश दिए थे कि छह महीने के भीतर पूरे प्रदेश से राजस्व पुलिस की व्यवस्था समाप्त की जाए और सभी इलाकों को प्रदेश पुलिस के क्षेत्राधिकार में शामिल किया जाए। लेकिन, इस आदेश के ढाई साल बीत जाने के बाद भी इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
अल्मोड़ा से क़रीब 15 किलोमीटर दूर कपड़खान गांव में रहने वाले नवीन पांगती कहते हैं, ‘हाई कोर्ट के आदेश के बाद भी इस व्यवस्था का बने रहना सीधे-सीधे कोर्ट की अवमानना करना है। इसके लिए संबंधित अधिकारियों पर कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन प्रदेश सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही।’
प्रदेश के डीजी (लॉ एंड ऑर्डर) अशोक कुमार इस संबंध में कहते हैं, ‘हाई कोर्ट के आदेश के बाद भी इस दिशा में फ़िलहाल कोई कार्रवाई नहीं हुई है। यह एक प्रशासनिक निर्णय है लिहाज़ा मैं इस संबंध में टिप्पणी नहीं कर सकता।'
उत्तराखंड राज्य के कुछ लोग राजस्व पुलिस की इस व्यवस्था से संतुष्ट भी नजर आते हैं। इन लोगों का तर्क है कि दुर्गम पहाड़ी इलाकों में अपराध न के बराबर होते हैं लिहाज़ा वहां पुलिस की जरूरत भी नहीं और पुलिस थाने खुलने से पहाड़ों में भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलेगा।
लेकिन नवीन पांगती ऐसे तर्कों का विरोध करते हुए कहते हैं, ‘जो लोग ख़ुद देहरादून और हल्द्वानी जैसे शहरी इलाकों में बैठे हैं, वही लोग ऐसे कुतर्क करते हैं। हम लोग यहां इस व्यवस्था में रह रहे हैं तो हम ही जानते हैं कि इसके नुकसान क्या हैं। हमारे पास आपात स्थिति में सौ नम्बर जैसी कोई भी हेल्पलाइन पर फोन करने की सुविधा नहीं है। कोई अपराध होता है तो हम अपनी पहचान छिपाकर अपराध की शिकायत नहीं कर सकते क्योंकि इसकी भी कोई व्यवस्था ही नहीं है।’
नवीन पांगती आगे कहते हैं, ‘जो लोग यह तर्क देते हैं कि पुलिस थाना खुलने से भ्रष्टाचार बढ़ेगा, उनसे पूछना चाहिए कि भ्रष्टाचार तो न्यायालयों में भी है तो क्या न्याय व्यवस्था को ही समाप्त कर दिया जाए! ऐसे तर्क सिर्फ इसलिए दिए जाते हैं ताकि कुछ चुनिंदा लोगों के हित सधते रहें। पहाड़ों में चरस से लेकर तस्करी तक का धंधा खुलेआम होता है। इसे रोकने के लिए यहां कोई पुलिस नहीं है और इसमें शामिल लोग चाहते भी नहीं कि यहां कभी पुलिस आए।’
देहरादून जिले की त्यूणी तहसील भी ऐसा ही एक इलाका था जो कुछ साल पहले तक राजस्व पुलिस के अंतर्गत आता था। साल 2016 में जब यहां पुलिस थाना खुला तो शुरुआत में इसका जमकर विरोध हुआ। इस थाने में तैनात पुलिस उप निरीक्षक संदीप पंवार कहते हैं, ‘यहां ड्रग्स का धंधा काफी तेजी से चलता था। हिमाचल बॉर्डर से लगे होने के कारण इसकी तस्करी भी जमकर होती थी और कच्ची शराब भी यहां जमकर बनाई जाती थी। लेकिन, थाना खुलने के बाद इस पर नियंत्रण हुआ है। स्थानीय लोग अब कई बार आकर हमें कहते हैं कि पुलिस के आने से उन्हें अब सुरक्षित महसूस होता है जबकि पहले शाम के 7 बजे के बाद ही सड़कों पर नशेड़ियों का कब्जा हो जाया करता था।
राजस्व पुलिस की व्यवस्था को ख़त्म करने की मांग काफी समय से होती रही है। साल 2013 में केदारनाथ में आपदा आई थी तो प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कहा था कि ‘यदि प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में रेगुलर पुलिस की व्यवस्था होती तो आपदा से होने वाला नुकसान काफी कम हो सकता था क्योंकि पुलिस के जवान आपात स्थितियों से निपटने के लिए प्रशिक्षित भी होते हैं और व्यवस्था बनाने में भी पुलिस की अहम भूमिका होती है जो राजस्व पुलिस वाली व्यवस्था में संभव नहीं।’
आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
from Dainik Bhaskar https://ift.tt/3jBkm0u
https://ift.tt/3f0e4Ek
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
If you have any doubt, please let me know.