कैप्टन नवीन नागप्पा 12 दिसंबर, 1998 को इंडियन मिलिट्री एकेडमी से ट्रेनिंग के बाद 13 जम्मू एंड कश्मीर राइफल्स यूनिट में भर्ती हुए थे। सेना में पहली पोस्टिंग उन्हें जनवरी 1999 में कश्मीर में मिली। उन्हें काउंटर-इंसर्जेंसी ऑपरेशन के लिए सोपोर भेजा गया। अभी सर्विस के महज 6 महीने ही हुए थे कि उन्हें करगिल भेज दिया गया। करगिल से जुड़ी उनकी यादें और बातें पॉजिटिविटी का एक हाईडोज है। उनकी जुबानी उनकी कहानी ...
बात 21 साल पहले जुलाई 1999 की है। 4 जुलाई 1999 को हमें प्वॉइंट 4875 पर तिरंगा फहराने का लक्ष्य मिला। मिशन पर जाने से पहले सभी जवान एक दूसरे के गले लग रहे थे। मैं भी बारी-बारी से सबसे मिल रहा था। जब कैप्टन विक्रम बत्रा के पास पहुंचा तो विक्रम बोले, गले लग ना यार जाने कौन सी मुलाकात आख़िरी होगी। आज भी उस पल को याद करते हुए मैं इमोशनल हो जाता हूं। आंखों के सामने वो पल, वो सबकुछ जो उस दिन हुआ, आने लगता है।
मिशन पर जाने से पहले मुझे एक टास्क दिया गया। मुझे अपने यूनिट के 120 जवानों से अनपोस्टेड लेटर लिखवाने को कहा गया ताकि अगर कोई जवान युद्ध से जिंदा वापस नहीं लौट सके तो यह खत उसके परिवार को भेजा जा सके। जवानों से जाकर ये कहना कि वो अपने परिवार के लिए, अपने माता-पिता के लिए एक चिट्ठी लिखें जिसमें वो अपना आखिरी संदेश उन तक पहुंचाना चाहते हो, बहुत ही मुश्किल टास्क था।
सभी जवानों ने अपने परिवार के लिए पत्र लिखे। उसके बाद उनसे कहा गया कि सभी अपने बटुए और आईडी कार्ड भी जमा कर दें। आईडी कार्ड लेकर मिशन पर जाना खतरनाक हो सकता था। क्योंकि, यदि कोई जवान गलती से युद्धबंदी हो जाए तो दुश्मन उसका बेजा इस्तेमाल कर सकता था।
वो ऐसा पल था जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता, सिर्फ महसूस किया जा सकता है। कोई अपने बटुए से अपनी मां की फोटो निकाल कर चूम रहा था तो कोई अपनी पत्नी और बच्चों के फोटो को सीने से लगा के दुलार रहा था। किसी को पता नहीं था कि कल को क्या होने वाला है, कौन जिंदा लौटकर आएगा और कौन तिरंगे में लिपटकर घर जाएगा।
इसके बाद हमने और सभी जवानों ने एक साथ हमारे यूनिट के वॉरक्राय, दुर्गा माता की जयकारे लगाए और खुद की और परिवार की चिंता छोड़कर अपने मोर्चे पर निकल पड़े। तब हमारे मन में बस एक ही टारगेट था कि चाहे कुछ भी हो जाए प्वॉइंट 4875 पर तिरंगा फहराने के बाद ही लौटेंगे।
5 जुलाई को हम रेंगते हुए दुश्मन के बंकर तक पंहुच गए। पाकिस्तानियों को पता नहीं था कि हम उनके बंकर के पास पहुंच गए हैं। हमने अपनी टीम को डिवाइड किया और एक साथ दुश्मन के तीन बंकरों पर अटैक कर दिया, उनका बंकर तबाह कर दिया।
इस बीच मेरी नजर एक जवान पर पड़ी जो हमारा ही यूनिफॉर्म पहना हुआ था। जब मैं उसके पास पहुंचा तो देखा कि वो श्याम सिंह था। उस पल को याद करते हुए आज भी मेरे आंखों में आंसू आ जाते हैं। श्याम सिंह मेरा सहायक था, हमारी पहचान सिर्फ 6 महीने पुरानी थी, लेकिन हमारे बीच बॉन्डिंग इतनी अच्छी हो गई थी कि वह बीमार होने के बाद भी युद्ध के लिए मेरे साथ आया था।
मैं तो उसे मना कर रहा था, लेकिन वह नहीं माना। उसने कहा कि वह अच्छे वक्त में मेरे साथ था तो आज मुश्किल वक्त में मेरा साथ कैसे छोड़ सकता है। मेरे लिए वह बेहद ही मुश्किल पल था, आखों में आंसू थे लेकिन, उन्हें दबाकर रखा ताकि दूसरे जवानों का मनोबल कमजोर न हो। तब मैंने सोच लिया, अब तो बिना दुश्मनों को तबाह किए वापस नहीं लौटूंगा।
खून और बारूद से लथपथ बर्फ के टुकड़ों को तोड़कर उससे अपनी प्यास बुझा रहे थे
दोनों तरफ से पूरे दिन और रातभर हमला होता रहा। 6 जुलाई की सुबह ले.जनरल वाय के जोशी हमारे कमांडिंग ऑफिसर जो तब लेफ्टिनेंट कर्नल थे, उन्होंने फोन किया और जवानों का हालचाल पूछा। हमारे जवान पिछले 48 घण्टे से भूखे थे, पानी भी नहीं था हमारे पास।
जवान इस कदर भूखे और प्यासे थे कि खून और बारूद से लथपथ बर्फ के टुकड़ों को तोड़कर उसे चूसकर अपनी प्यास बुझा रहे थे। वहां और कोई ऑप्शन नहीं था हमारे पास। ऐसे मुश्किल हालात में भी हमने खाने से ज्यादा एम्युनेशन नीचे से हमारे पास पोस्ट पर भेजने को कहा।
दोनों ओर से फायरिंग चलती रही। 7 जुलाई की सुबह, पाकिस्तानियों ने मेरे बंकर के पास एक ग्रेनेड फेंक दिया। मुझे पता था कि यह चार सेकंड में फटेगा। इतने कम समय में मुझे डिसिजन लेना था। जैसे-तैसे करके मैंने उसे उठाकर दूर फेंकने की कोशिश की लेकिन वह एक पत्थर से टकराकर वापस मेरे पास ही आकर गिरा। तब तो मुझे लगा कि अब मैं जिंदा नहीं बचूंगा। मेरे आंखों के सामने मेरी पूरी फैमिली दिखाई देने लगी। मौत को बहुत करीब से देख रहा था।
मैंने संभलने की कोशिश की, लेकिन उससे पहले ही वह ब्लास्ट हो गया। मैं बुरी तरह घायल हो गया। कुछ देर तक मुझे पता ही नहीं चला कि मैं कहां हूं। उसके बाद कैप्टन बत्रा दौड़कर मेरे पास आए। वो बोले, अन्ना डरना नहीं मैं आ गया हूं। मुझे भी हिम्मत मिली कि अब जब मैं ग्रेनेड फटने से नहीं मरा तो मुझे कुछ नहीं हो सकता।
मैंने अपनी एके 47 उठाई और फायरिंग शुरू कर दी। लेकिन, बत्रा ने मुझे मना किया और कहा कि नीचे लौट जाओ। मैं नीचे नहीं जाना चाहता था, लेकिन वो मुझसे सीनियर थे, उनकी बात माननी पड़ी। उन्होंने वहां से उठाया और मुझे सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया।
वहां से रेंगते हुए मैं नीचे पहुंचा जहां जवानों ने मुझे स्ट्रेचर पर उठाया और अस्पताल लेकर पहुंचे। मुझे वहां से श्रीनगर भेजा गया और फिर श्रीनगर से दिल्ली। उसी दिन मुझे खबर मिली कि हमने 4875 प्वॉइंट पर तिरंगा फहरा दिया है। यह मेरे लिए खुशी की बात थी लेकिन दुख इस बात का था कि मैंने अपने दोस्त विक्रम बत्रा को खो दिया था। वह इस लड़ाई में शहीद हो गए। एक दिन हम दोनों पास में ही अपने-अपने बंकर पर थे। दोनों बात कर रहे थे।
आज भी मुझे याद है जब उन्होंने अपने रिटायरमेंट प्लान के बारे में बताया था। उन्होंने कहा था- ‘मैं हिमाचल में अपना एक फॉर्म खोलूंगा और वहीं पर तुम भी आना।’ मैं करीब 21 महीने दिल्ली अस्पताल में भर्ती रहा। इस दौरान 8 सर्जरी हुई मेरी। उसके बाद मुझे सर्विस के लिए मेडिकली अनफिट बता दिया गया। मैं सिर्फ 6 महीने ही सर्विस में रह सका। उसके बाद मैंने 2002 में इंडियन इंजीनियरिंग सर्विसेज की परीक्षा पास की और मिनिस्ट्री ऑफ डिफेंस में बैंगलुरू के आर्मी बेस कैम्प में आज सुपरिटेंडेंट इंजीनियर हूं।
आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
from Dainik Bhaskar https://ift.tt/2OG5Ki8
https://ift.tt/3jkdkNE
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
If you have any doubt, please let me know.