मंगलवार, 21 जुलाई 2020

मोदी और भाजपा चुनावी सियासत की कीमत चुका रहा है भारत, अब आत्म विश्लेषण और नीति में सुधार की जरूरत

सबसे पहले हम यह देखें कि रणनीतिक और विदेश नीति के मोर्चों पर नरेंद्र मोदी सरकार के पक्ष में क्या-क्या अच्छा हुआ। इस सूची में अमेरिका से संबंध पहले नंबर पर हैं। चीन जब खलनायकी पर उतर आया है, तब केवल अमेरिका ही भारत के पक्ष में बोला है, वह भी बिना किसीलेन-देन या शर्त के। भारत के रणनीतिक इतिहास में ऐसा कम ही हुआ है। उरी सर्जिकल स्ट्राइक, पुलवामा, बालाकोट, अनुच्छेद 370 में बदलाव और अब लद्दाख तक हर मामले में हमें अमेरिकी समर्थन स्पष्ट और बिना शर्त मिला है।

उधर हमारे बड़े क्षेत्रीय सहयोगी, मुख्यतः हिंद-प्रशांत क्षेत्र के, हमारे साथ मजबूती से खड़े रहे हैं,खासकर जापान और ऑस्ट्रेलिया। चीन से खतरे का साझा डर इन्हें आपस में जोड़ता है। इसी तरह अरब देश अब बड़े परिप्रेक्ष्य में तटस्थ बने हुए हैं। खासतौर से सऊदी अरब, यूएई, और इजरायल के साथ रिश्ते लाभदायक साबित हुए हैं। तुर्की और कतरके साथ थोड़ी समस्या है, लेकिन यह हमेशा रही है। ईरान के साथ रिश्ता बिगड़ रहा है या सुधर रहा है? खबरें तो गिरावट के ही संकेत दे रही हैं। पिछले कई वर्षों से अरब देश भारत के आंतरिक मामलों (कश्मीर या सांप्रदायिकता) के प्रति तटस्थ रहे हैं, जबकि ईरान दखल देता रहा है।

अब कुछ बुरी खबरें। यह विडंबना ही है कि जो भी ठीक नहीं हुआ वह काफी हदतक उससे पहले ठीक हुआ करता था। उदाहरण के लिए, अमेरिका से रिश्ता। दूसरे मामलों के अलावा कश्मीर में मानवाधिकार की स्थिति या सीएए/एनआरसी जैसे मसलों पर अमेरिकी कांग्रेस में बहस के दौरान सरकार ने भारत का भले जोरदार बचाव किया, लेकिन दोनों देशों के बीच कुल रिश्ता लेन-देन की ‘छोटी डील’ के स्तर ही रहा है। वह ‘बड़े’ रणनीतिक गठजोड़ तक नहीं पहुंच पाया है। इसकी वजह यह है कि मोदी सरकार ऐतिहासिक पूर्वाग्रहों से न उबर पाने के कारण हिचकते हुए गले लगती रही है।

मोदी पुरानी भारतीय झिझक से मुक्त नहीं हो पाए हैं। उन्होंने ह्यूस्टन जाकर खुशी से ‘अबकी बार, ट्रम्प सरकार’ नारा लगाया, लेकिन छोटे व्यापार समझौते पर दस्तखत करने को लेकर वे टस से मस नहीं हुए। मोदी सरकार की बेतुकी विचारधारा और वैश्विक व्यापार को लेकर बेमानी आशंका भारत के व्यापक रणनीतिक हित पर ग्रहण लगाती रही है। इस न्यूनतमवाद से आपसी रिश्ते का कुछ भी अछूता नहीं रहा है, चाहे वह सैन्य संबंध ही क्यों न हों। पिछले छह वर्षों में भारत ने अमेरिका से छोटी-मोटी खरीद ही की, कोई बड़ी चीज हासिल नहीं की और न साथ मिलकर कुछ विकसित करने या उत्पादन करने का कोई उपक्रम किया।

अभी तक हमने रूस का जिक्र नहीं किया। लेकिन लद्दाख में जब झटका लगा, तब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह सबसे पहले रूस ही गए। यह यही बताता है कि शीतयुद्ध खत्म होने के 31 साल और आर्थिक विकास के 25 वर्ष और अब छह साल के मोदी राज के बाद भी भारत फौजी मामलों में रूस पर निर्भरता से मुक्त नहीं हो पाया। यह हमारी विफलता ही है, क्योंकि आज रूस चीन के करीबी सहयोगी के रूप में उभर चुका है। अगर हमारी विदेश नीति और मजबूत होती तो यह निर्भरता कम हो सकती थी और भारत की स्थिति और मजबूत होती।

ऐसा लगता है कि मोदी ने चीन के साथ दोस्ती से बड़ी उम्मीदें लगाई थीं। किसी चीनी दिग्गज को झूला झुलाकर आप उसे रिझा लेंगे, यह कल्पना करना भारी भूल ही मानी जाएगी। भारत इसका खामियाजा भुगत रहा है। कूटनीति को व्यक्ति-केंद्रित स्वरूप देना तभी कारगर होता है, जब यह दो बराबर ताकत वाले देशों के बीच होया तब जब आप ज्यादा ताकतवर हों। भारत ने शी के मामले में बचकाना रवैया अपनाया। चूंकि उन्होंने डोकलाम में हमारे मुंह पर थप्पड़ जड़ दिया, समीकरण बदल गया है। अब साफ हो चुका है कि शी ने ‘वुहान भावना’ को मोदी की इस गुहार के रूप में लिया कि वे और गड़बड़ न करें और उनकी आगामी चुनावी संभावनाओं पर पानी न फेरें।

विदेश नीति में मोदी-भाजपा की चुनावी राजनीति की घालमेल दूसरी बड़ी नकारात्मक बात थी। अगर हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को ही आपने चुनावी जीत का फॉर्मूला मान लिया है, तो मुसलमानों की ‘उपेक्षा’ जरूरी है। तब निश्चित है कि पाकिस्तान के मामले में आपके विकल्प समाप्त हो जाते हैं। लेकिन इससे सबसे भरोसेमंद पड़ोसी बांग्लादेश की मुश्किल बढ़ जाती है। मोदी ने देशहित में उससे सीमा समझौता करके अच्छी शुरुआत की थी। लेकिन पहले असम, फिर पश्चिम बंगाल चुनाव जीतने की उतावली ने इसे धो डाला।

आप तय मानिए कि ईरान, नेपाल और श्रीलंका को अपने दबदबे में लाने के बाद चीन अब ढाका पर ध्यान लगाएगा। पिछले कुछ सप्ताह से उसके साथ ‘जीरो टैरिफ’ व्यापार समझौते की कोशिश नहीं हो रही है? भारत मोदी-भाजपा चुनावी सियासत की कीमत चुका रहा है। भारत को रणनीति तय करने के मामले में आत्मविश्लेषण करने, जमीनी हकीकत को समझने और अपनी नीति में सुधार करने की जरूरत है। खासतौर पर घरेलू राजनीति के मामले में। मतदाताओं का ध्रुवीकरण पार्टी के लिए भले फायदेमंद हो, राष्ट्र के लिए खतरनाक ही होता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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India is paying the price of Modi-BJP electoral politics


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