जम्मू का एक गांव है मकवाल। यह भारत-पाकिस्तान बॉर्डर से एकदम सटा हुआ है। गांव के ज्यादातर लोग खेती करते हैं। यहां धान, गेहूं, खरबूज खूब उगाए जाते हैं। मकवाल के खरबूज तो जम्मू में बहुत फेमस हैं। खास बात ये है कि इन लोगों के खेत भारत-पाकिस्तान बॉर्डर से एकदम सटे हुए हैं। इसके चलते इन लोगों के लिए खेती करना उतना आसान नहीं, जितना देश के दूसरे किसानों के लिए है।
बुधवार को दोपहर 1 बजे हम गांव में पहुंचे तो एक किराना दुकान पर ही सरपंच, पंच और ग्रामीण मिल गए। हमने अपना परिचय देते हुए बातचीत शुरू की और गांव के हालात के बारे में पूछा तो बोले, यहां खेती जान जोखिम में डालकर होती है और इस बार तो जो पैसा लगाया था, वो भी नहीं निकल पाया।
फसल मंडी तो पहुंची, लेकिन ग्राहक नहीं होने से बिकी ही नहीं। थोड़ा बहुत माल ही बिका। इसलिए कई लोगों ने तो खरबूजे खेत से उठवाए ही नहीं, क्योंकि लेबर को पैसे जेब से देना पड़ते और फसल बिकना नहीं थी। इसलिए खेतों में ही खरबूजे खत्म हो गए।
बॉर्डर होने से खेती में क्या चुनौती है? यह सवाल किया तो हमारे करीब बैठे सतपाल सिंह बोले, हमारे लिए खेती देश के दूसरे किसानों की तरह नहीं है। हमें रोज खेत में जाने से पहले अपना आईडी कार्ड आर्मी को दिखाना होता है। वो आईडी कार्ड जमा करवा लेते हैं और हमें एक टोकन देते हैं। दिनभर टोकन हम अपने साथ रखते हैं और खेत पर काम करते हैं। शाम को जब वापस लौटते हैं तो टोकन फिर आर्मी में जमा करना होता है और अपना आईडी कार्ड वापस लेते हैं।
ऐसा क्यों करवाया जाता है? इस पर बोले, बॉर्डर के पास वही जा सकता है, जिसके खेत हैं। इसके अलावा बिना आर्मी की परमिशन के कोई दाखिल नहीं हो सकता। बॉर्डर से लगे जितने भी गांव हैं, सभी में खेत में जाने के लिए ऐसा ही होता है।
सतपाल सिंह कहते हैं, कई बार सीमा पार से फायरिंग शुरू हो जाती है। फायरिंग शुरू होते ही हमें भागना पड़ता है। हालांकि, बीएसएफ हमारा पूरा सपोर्ट करती है। जब हम खेती करते हैं, तो हमारे जवान निगाह रखते हैं और इधर-उधर घूमते रहते हैं। फिर भी साल में कई दफा ऐसा होता है कि सीमा पार से फायरिंग हो जाती है। डर भी लगता है लेकिन हमारी रोजी-रोटी खेतों से ही चल रही है, इसलिए खेती छोड़ नहीं सकते।
मकवाल के सरपंच सोलोराम का खेत भी बॉर्डर से एकदम सटा हुआ है। वो दस साल से यहां खरबूजे की खेती कर रहे हैं। इस बार भी खरबूजा लगाया था, लेकिन लॉकडाउन के चलते बिक्री ही नहीं हो पाई। कहते हैं, बहुत सा माल तो खेत से ही नहीं उठाया, क्योंकि जो उठाया था वो मंडी में बिका ही नहीं। थोड़ा बहुत माल बिका। बाकी पूरा खरबूजा खराब हो गया। लाखों का नुकसान हो गया।
रमेशचंद्र गुप्ता बॉर्डर की परेशानी बताते हुए कहते हैं कि साल में कई बार ऐसा होता है जब पाकिस्तानियों की फायरिंग के चलते हम खेत से भागते हुए इस तरफ आते हैं। कहते हैं, मैं आजादी के पहले से ही इस गांव में रह रहा हूं, तब से यही हालात हैं।
मकवाल गांव का ही एक हिस्सा मकवाल कैम्प के नाम से जाना जाता है। यहां 1965 के युद्ध के बाद आए रिफ्यूजी रहते हैं। ये वो लोग हैं, जो युद्ध के बाद भागकर हिंदुस्तान आ गए थे। इन्हीं में शामिल थे हरी सिंह, जो आर्मी से रिटायर हुए हैं। हरी सिंह कहते हैं, हमारे परिवार 1965 की लड़ाई के बाद यहां जान बचाकर भागे थे, क्योंकि वहां हिंदुओं को मारा जा रहा था। यहां आए तो घर भी बन गए और नौकरी भी मिल गई। मोदी सरकार अब हर रिफ्यूजी को 25-25 लाख रुपए की मदद देने जा रही है।
हरी सिंह कहते हैं, पहली किस्त के 5 लाख रुपए आ भी चुके हैं। यदि लॉकडाउन नहीं लगता तो दूसरी किस्त भी आ जाती। यह मदद किसलिए दी जा रही है? यह पूछने पर बोले, हम लोग हमारा घर-संपत्ति सब छोड़कर यहां आए थे। हमारे पास कुछ नहीं था। इसलिए सरकार हम लोगों की मदद कर रही है, ताकि जो खराब स्थिति में हैं, वो संभल सकें।
मकवाल कैंप इन दिनों एक अलग कारण से भी चर्चा में बना हुआ है। यहां रहने वाले मदन सिंह को पानी में तैरने वाले पत्थर मिले। मदन सिंह भी रिफ्यूजी परिवार से हैं। वो तवी नदी के किनारे भैंस चराने गए थे। वहीं उन्हें पानी में तैरता हुआ पत्थर नजर आया तो पत्थर को घर ले आए। गांव में यह कौतूहल का विषय बन गया। पत्थर को लोग पूजने लगे।
मदन सिंह की पत्नी रेखादेवी कहती हैं, जब अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास हुआ, उसके पांच दिन बाद ही पानी में तैरता हुआ ये पत्थर मिला। यह भगवान का ही रूप है। इसलिए हम ग्रामीणों की मदद से इसकी स्थापना करेंगे और मंदिर का निर्माण करवाएंगे। बोलीं, रोजाना बहुत लोग तैरते हुए पत्थर के दर्शन करने आ रहे हैं। हमारे घर में सत्संग भी हो गए और बेटी की शादी भी हो गई। यह एक दिव्य शक्ति है जो किस्मत से हमें मिली।
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