मंगलवार, 4 अगस्त 2020

विचारधारा की मजबूरियां अपनी जगह हैं, मगर हमारे नेता जानते हैं कि उनके मतदाता बच्चों की पढ़ाई के लिए बस तीन चीज़ें चाहते हैं- अंग्रेजी, अंग्रेजी, अंग्रेजी

मोदी सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के एक पहलू ने कुछ घबराहट और बहस को जन्म दिया है। यह पहलू है, कम से कम पांचवीं कक्षा तक बच्चों को उनकी मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा या घरेलू भाषा (यह जो भी होती हो) में पढ़ाया जाए। आलोचकों का कहना है कि यह आरएसएस के एजेंडे का हिंदी करण है। समर्थक कह रहे हैं कि बच्चे अपनी भाषा में ज्यादा अच्छे से समझ पाते हैं।

वैसे भी यह केवल अनुशंसा है, अनिवार्यता नहीं। लेकिन यह पूर्ण बहुमत वाली हिन्दू दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी पार्टी की सरकार की पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति है। मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था में किसी चीज को अनिवार्य करना संभव नहीं होगा। यहां इशारा यही है कि अंग्रेजी की जगह घरेलू भाषाओं को ही धुरी बनाया जाए।

‘एनईपी’ का त्रिभाषा फॉर्मूला भी यही कहता है कि तीन भाषाओं में दो तो भारतीय ही होनी चाहिए। हमने यह सोचा होगा कि ऐसी नासमझी भरी परिभाषाएं नासमझ अमेरिकी भी अपनाते हैं और भले ही वे खुद अंग्रेजी शब्दों की वर्तनी सही-सही न जानते हों लेकिन यह चाहते हैं कि उनके यहां विदेशी छात्र, विदेशी भाषा के रूप में अंग्रेजी की परीक्षा (जाना-माना ‘टोफल’) पास करें।

अगर मोदी सरकार का ज़ोर हिंदी या देसी भाषाओं को पढ़ाई का माध्यम बनाने पर है, तो संभावना यही है कि अधिकांश राज्य सरकारें भी उसी के इशारे पर चलेंगी। सरकारें मान्यताप्राप्त प्राइवेट स्कूलों के लिए भी ऐसा आदेश जारी कर सकती हैं। कोई भी, चाहे वह सबसे मजबूत सरकार ही क्यों न हो, बाज़ार की ताकत से नहीं भिड़ सकता।

भारतीय पेरेंट्स अगर अपने बच्चों के लिए अंग्रेजी मीडियम स्कूल चाहते हैं, तो वे इसे लेकर ही रहेंगे। तब आप अल्पसंख्यकों के संस्थान या मशहूर कॉन्वेंट जैसे भ्रामक जुमले ईजाद करेंगे। पूरे भारत में ‘कॉन्वेंट’ आज अंग्रेजी मीडियम स्कूलों के रूप में चल रहे हैं, जिनके नाम आप कबीर, तुकाराम, या रैदास जैसे गैर-ईसाई संतों के नामों पर भी पा सकते हैं।

विचारधारा की मजबूरियां अपनी जगह हैं, मगर हमारे नेता जानते हैं कि हकीकत यही है कि उनके मतदाता बच्चों की पढ़ाई के लिए बस तीन चीज़ें चाहते हैं- अंग्रेजी, अंग्रेजी, अंग्रेजी। पिछले 25 वर्षों से अपनी सीरीज़ ‘राइटिंग्स ऑन द वाल’ के लिए चुनावी दौरे करके मैंने जमीनी राजनीति के बारे में बहुत कुछ जाना है।

दीवारों पर लिखी इबारत पढ़ने का मतलब है यह समझने की कोशिश करना कि लोग क्या चाहते हैं। जो दीवारों पर लिखी इबारत को सही पढ़कर जनता की आकांक्षाओं से जुड़ता है वह जीतता है। लोगों की बढ़ती आकांक्षाओं का पहला संदेश हमने दीवारों पर ही पढ़ा, खासकर बिहार में 2005 में हुए दो चुनावों के दौरान।

तब, पिछड़े और मुस्लिम वोट बैंक के बूते लालू सत्ता में थे और कोई यह मानने को तैयार नहीं था कि नीतीश कुमार उनका तख़्ता पलट सकते हैं। लालू अभी भी ‘सामाजिक न्याय’ और जातीय बराबरी के नारे का जो र लगा रहे थे। उनका पसंदीदा जुमला था- ‘फिर से समय आ गया है, अपनी लाठी को तेल पिलाओ’।

पंडितों का कहना था कि इस जुमले में इतना दम है कि नीतीश कुछ कर नहीं पाएंगे, खासकर अपने इस कमजोर-से दावे के साथ कि ‘अब तो कलम में स्याही भरने से ही आप ताकतवर बन सकते हैं।’ लेकिन नीतीश ने लालू को हरा दिया। वे इसलिए जीतते रहे हैं क्योंकि उन्होंने जनता की नब्ज सही तरह से पढ़ी।

लोगों की आकांक्षाओं की बाढ़ उफन रही थी और उन्हें शिक्षा की लहरों का सहारा चाहिए था। आप सवाल कर सकते हैं कि इसका शिक्षा की भाषा से क्या संबंध है? इस सवाल पर मुझे ‘दीवारों पर लिखी इबारत’ की दूसरी सीख याद आती है, जो 2011 में पश्चिम बंगाल के चुनाव के दौरान की है।

हमे चुनाव अभियान पर निकलीं ममता बनर्जी दुर्गापुर के पास बरजोरा नामक जगह पर मिलीं। हमने देखा, ममता ने मंच पर गाना शुरू कर दिया। भीड़ पूरे जोश में आ गई थी। वे गा रही थीं- ‘अव-ए अजगर… आश्छे टेरे…’ और भीड़ गला फाड़ कर गा रही थी- ‘आ-आमटी खाबो पेड़े’। यानी अ से अजगर, तुम्हारे पीछे आ रहा है, आ से आम, पेड़ से तोड़ो और खा लो।

लेकिन इसमें ऐसा क्या था कि हजारों गरीब जोश में आ गए? ममता लोगों को याद दिला रही थीं कि दशकों से वाम मोर्चा सरकार ने उन्हें बंगला मीडियम स्कूलों में पढ़ने को मजबूर किया जबकि उसके नेताओं के बच्चे अंग्रेजी मीडियम में पढ़ते हैं। ममता आज भी सत्ता में हैं और उन्हें वाम दलों से कोई चिंता नहीं है। इन दो जमीनी नेताओं में से एक ने लोगों से ज्ञान और शिक्षा का वादा करके चुनाव जीता, दूसरे ने अंग्रेजी मीडियम पर ज़ोर दिया।

उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ ने 5,000 सरकारी प्राइमरी स्कूलों को अंग्रेजी मीडियम बनाने का आदेश 2017 में जारी किया। क्या योगी ऊंचे वर्ग के हैं? अंग्रेजी से सम्मोहित हैं? जी नहीं। वे जानते हैं कि उनके वोटर क्या चाहते हैं। इसलिए, अगर मोदी सरकार सैद्धांतिक पूर्वाग्रह के चलते देसी भाषा को बच्चों की पढ़ाई का मीडियम बनाने पर ज्यादा ज़ोर देने की कोशिश करेगी तो ‘एनईपी’ को इस दीवार से टकराना पड़ेगा।(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’


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