सोमवार, 14 सितंबर 2020

250 साल पहले हुआ फ्रैंको-प्रशियन वॉर भाषा की अहमियत को बताता है, हिंदी दिवस के दिन हमें इस कहानी को जरूर पढ़ना चाहिए

"गुलामी के दौर में भी जब तक हम अपनी भाषा को पकड़े रखते हैं, तब तक हमारे हाथ में जेल की चाबी होती है।" यानी सोच सकते हैं कि भाषा हमारे लिए कितनी मायने रखती है।

किसी देश और वहां के लोगों के लिए भाषा क्या अहमियत रखती है? उसका सबक हम करीब 250 साल पहले हुए फ्रेंको-प्रशियन वॉर से सीख सकते हैं। बात 1870-1871 की है। जब फ्रांस को बिस्मार्क की अगुआई में प्रशिया ने युद्ध में हरा दिया था। तब प्रशिया तत्कालीन जर्मनी, पौलैंड और ऑस्ट्रिया से मिलकर बना था।

फ्रांस के अल्सेश और लाॅरेन जिले प्रशिया के हाथ में आ गए थे। दुश्मन सेना यहां के स्कूली छात्रों और गांव के लोगों को अपनी भाषा सिखाना चाह रहे थे, और लोग अपनी भाषा को खोने के डर से आंसू बहा रहे थे। इस कहानी को लिखा है फ्रेंच उपन्‍यासकार और कथाकार अल्फाॅज डाॅडे ने। कहानी का नाम द लास्ट लेसन है, यानी आखिरी सबक।

इसका हिंदी में अनुवाद किया है हमारे लिए डॉक्टर हरि सिंह गौर यूनिवर्सिटी सागर में माइक्रोबायोलॉजी के प्रोफेसर नवीन कानगो ने। हिंदी दिवस के दिन हमें इस कहानी को जरूर पढ़ना चाहिए, ताकि हम भाषा के महत्व को समझ सकें, उसे प्रेम कर सकें, उसे जी सकें।

पढ़िए आखिरी सबक...

उस दिन मुझे स्कूल के लिए देर हो रही थी और मुझे डांट का डर भी लग रहा था। खासकर इसलिए कि मिस्टर हैमेल फ्रेंच व्याकरण पर सवाल पूछने वाले थे और मैं उसका एक शब्द भी नहीं जानता था। मैंने सोचा कि कहीं भाग जाऊं और पूरा दिन बाहर बिता दूं। उस दिन सुनहरी धूप खिली थी और जंगल में चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दे रही थी। दूसरी ओर आरामिल के पीछे खुले मैदान में प्रशिया के सैनिक युद्धाभ्यास कर रहे थे। यह सब व्याकरण के पाठ से कहीं ज्यादा आर्कषक था, पर अपनी इच्छा को दबाते हुए मैंने स्कूल की ओर रुख किया।

टाॅउन हाॅल से गुजरते हुए मैंने सूचना पटल पर लोगों की भीड़ देखी। पिछले दो सालों में सारी बुरी खबरें, जैसे लड़ाई में हार, नए मसौदे, कमांडिंग अफसर के आदेश- यहीं से मिलते थे। मैंने बिना रुके सोचा- ‘‘अब क्या बात हो सकती है?’’ मुझे जल्दी में देखकर वहां पर मौजूद वाॅचर लुहार ने, जो अपने चेले के साथ वहां सूचना पढ़ रहा था, पुकारा और कहा ‘‘इतनी जल्दबाजी मत करो, बच्चे, तुम्हें स्कूल पहुंचकर बहुत वक्त मिलेगा।’’

मुझे लगा कि वह मेरा मजाक उड़ा रहा है और मैं हांफते हुए मिस्टर हैमेल की कक्षा के बाहर बगीचे में पहुंच गया।

आमतौर पर स्कूल की शुरुआत गली तक सुनाई देने वाले कानफोड़ू सामूहिक पाठ, शोर-शराबे, मेजों का खुलने-बंद होने और शिक्षक के बेंत की मेज पर खटर-पटर से होती थी। पर आज सब कुछ शांत और स्तब्ध था। मैं चुपचाप अपनी डेस्क तक पहुंचने की फिराक में था।

मैंने खिड़की से देखा कि सभी साथी अपनी जगह पर बैठे हैं और मिस्टर हैमेल अपने हाथ में भयंकर बेंत लिए ऊपर-नीचे चल रहे हैं। मुझे सबके सामने दरवाजा खोलकर दाखिल होना पड़ा। मेरी शर्म और भय का आप अंदाजा लगा सकते हैं।

पर कुछ भी नहीं हुआ, बल्कि मिस्टर हैमेल मुझसे बहुत दया से बोले ‘‘प्रिय फ्रांज, तुम अपनी जगह पर जल्दी जाओ, हम तुम्हारे बगैर ही क्लास शुरू करने वाले थे।’’

मैं लपककर अपनी बेंच पर बैठ गया। अभी मेरा डर से कंपकंपाना गया भी नहीं था कि मैंने देखा कि हमारे शिक्षक ने बूटेदार खूबसूरत कोट, झालरदार शर्ट, छोटी काली रेशमी टोपी, जो कि वे सिर्फ निरीक्षण या पुरस्कार वितरण में पहनते थे, पहन रखी है। इसके अलावा सारी क्लास अजीब तरह से उदासी ओढ़े हुई थी। पर सबसे चौंकाने वाली बात थी कि पीछे की बेंचों पर हमारी ही तरह गांव के लोग खामोश बैठे हुए थे। इनमें अपनी तिकोनी हैट पहने बूढ़ा हाॅसर, भूतपूर्व महापौर, पोस्टमास्टर और अन्य कई लोग थे। सभी उदास लग रहे थे।

मैं इन हालात पर विचार कर ही रहा था कि मिस्टर हैमेल अपनी कुर्सी पर बैठ गए और उसी उदास और मृदु लहजे में, जैसे उन्होंने मुझसे बात की थी। बोले, ‘‘मेरे बच्चों, आज मैं तुम्हें आखिरी सबक पढ़ाने वाला हूं। बर्लिन से जारी आदेश के तहत अब अल्सेश और लाॅरेन के स्कूलों में सिर्फ जर्मन पढ़ाई जाएगी। नया शिक्षक कल पहुंच जाएगा। यह आपका आखिरी फ्रेंच अभ्यास है। मैं चाहता हूं कि आप बहुत ध्यान दें।’’

क्या ये शब्द मेरे लिए किसी वज्रपात की तरह न थे!

ओह, कितना दुर्भाग्यपूर्ण! तो टाउन हाॅल में उन्होंने यही सब लगा रखा था।

मेरा आखिरी फ्रेंच सबक! क्यों? अभी तो मैं बमुश्किल लिखना सीख पाया था। अब मैं और नहीं सीख पाऊंगा! मुझे यहीं रुकना पड़ेगा फिर! ओह! मुझे अपने सबक न सीखने का कितना अफसोस था, जिसके बदले मैं चिड़ियों के अंडे खोजता रहा और सार नदी में छलांग लगाता रहा। जो व्याकरण की किताबें और संतों की कहानियां अब तक मुझे रुकावट और बोझ लगती थीं, अचानक अब मेरे पुराने, न छोड़ सकने वाले दोस्तों में बदल गई थीं और मिस्टर हैमेल भी!

बेचारे मिस्टर हैमेल! तो ये सजावटी कपड़े अपने आखिरी पाठ के समापन में पहन कर आए थे और अब मैं गांव के बूढ़े आदमियों के कमरे में पीछे बैठे होने का सबब भी समझ चुका था। वे भी इस बात को लेकर उदास थे कि वे अक्सर स्कूल न जा सके। अपने शिक्षक उसकी चालीस साल की विश्वसनीय सेवाओं और देश के प्रति निष्ठा, जो कि अब उनका नहीं रहा था, उसके प्रति उनके आभार जताने का तरीका था।

अभी जब मैं यह सब सोच ही रहा था कि मेरा नाम पुकारा गया है। अब मेरे पढ़ने की बारी थी/पाठ दोहराने की बारी थी। क्या मैं व्याकरण के नियम को बता सकता था। जोर से साफ आवाज में, बिना गलती के, पर शुरुआती शब्दों में ही मेरी जबान फिसल गई और मेरी धड़कनें तेज हो गईं, मैं नजरें नीची किए हुए डेस्क पकड़े खड़ा रह गया।

तभी ‘‘मैं तुम्हें नहीं डांटूंगा’’- मैंने मिस्टर हैमेल को कहते सुना। ‘‘छोटे फ्रांज, तुम्हें खुद ही बुरा लगना चाहिए। देखो ऐसा है! हम रोज ही अपने आपसे कहते हैं- अरे; अभी बहुत समय पड़ा है, इसे मैं कल सीख लूंगा और अब तुम देखो, हम कहां हैं। आह! ’’

‘तुम्हारे माता-पिता, अभिभावक भी तुम्हारे सीखने के प्रति गंभीर नहीं थे, वे चाहते थे कि तुम उनके साथ खेत या मिल पर काम करो, ताकि कुछ ओर पैसे मिल सकें। और मैं? मुझ पर भी तो इल्जाम आना चाहिए। यदि मैंने तुम्हें पाठ पढ़ने कि बजाए अक्सर अपने फूल-पौधों पर पानी डालने न भेजा होता। और क्या मैंने जब भी मछली पकड़ने जाना चाहा, तुम्हें छुट्टी नहीं दे दी?’

फिर एक बात से दूसरी बात तक मिस्टर हैमेल फ्रेंच भाषा का बखान करते रहे कि वह दुनिया कि सबसे सुन्दर भाषा है। सबसे साफ, सबसे तार्किक और यह कि हमें उसकी रक्षा करनी चाहिए, उसे बिना कभी भूले। वह यूं कि जब किन्हीं लोगों को गुलाम बनाया जाता है तो जब तक वे अपनी भाषा को पकड़े रखते हैं, तब तक उनके हाथ में जेल की चाबी रहती है।’

फिर उन्होंने व्याकरण की किताब से हमें एक पाठ सुनाया। मैं आश्चर्य चकित था कि यह सबक मुझे कितना स्पष्ट था। वे जो कह रहे थे वह बहुत आसान लग रहा था, बहुत आसान! मुझे लगता है कि मैंने कभी इतने ध्यान से उन्हें सुना ही नहीं और न ही उन्होंने कभी इतने व्यवस्थित ढंग से हमें समझाया। ऐसा लग रहा था कि बेचारे मिस्टर हैमेल हमें अपना सारा ज्ञान जाने से पहले दे जाना चाहते थे।

व्याकरण के बाद, हमने एक लेखन का सबक सीखा! उस दिन मिस्टर हैमेल के पास हमारे लिए सुंदर गोल अक्षरों में लिखी कापियां थीं- फ्रांस, अल्सेश, फ्रांस, अल्सेश।

ऐसा लग रहा था मानों कक्षा में चारों तरफ फ्रांस के छोटे-छोटे झंडे फैल गए हों। वे छत की राॅड से हमारी डेस्क पर लटके हुए। आपको देखना चाहिए था कि कैसे सब लिखने में व्यस्त हो गए और कितना सन्नाटा था। सिर्फ कागजों पर कलम के चलने की आवाजें आ रही थीं। छत पर कुछ कबूतर धीरे-धीरे गुटरगूं कर रहे थे और मैंने सोचा कि क्या वे कबूतरों को भी जर्मन में गाने को कहेंगे?

मैंने जब-जब ऊपर देखा तो पाया कि मिस्टर हैमेल कभी एक जगह तो कभी दूसरी जगह को बड़े ध्यान से हमें देख रहे हैं, मानो वे अपने दिमाग में इस कक्षा को जज्ब कर लेना चाहते हों। यह सब छोड़ते हुए उन बेचारे का दिल कैसा टूटा होगा; जबकि वे ऊपरी कमरे में अपनी बहन के चलने और ट्रंक में पैकिंग करने की आवाज सुन पा रहे थे!

उनका कल ही देश छोड़ना जरूरी था, पर आज उनमें सारे अध्यायों को आखिर तक सुनने का साहस था। लेखन के बाद हमें इतिहास का अध्याय पढ़ना था और तभी कुछ शिशुओं की आवाज आई ...... बा, बे, बी, बो, बू। वहीं पीछे बूढ़ा हाॅसर चश्मा लगाए बारहखड़ी की पुस्तिका को दोनों हाथों से थामे हुए उन्हीं के साथ कुछ शब्दों का उच्चारण कर रहा था। आप देख सकते थे कि वह भी रो रहा था। उसकी आवाज भावनाओं से लरज रही थी, और उसे सुनना इतना मजेदार था कि हम रोते हुए हंसना चाहते थे।

आह! कितने अच्छे से याद है मुझे, वह आखिरी सबक!

यकायक चर्च की घड़ी ने बारह बजाए और फिर एंजेल्स प्रार्थना शुरू हो गई। ठीक उसी वक्त युद्धाभ्यास से लौटते हुए प्रशियन सैनिकों की तुरही की आवाज हमारी खिड़कियों के पीछे सुनाई दे रही थी। मांशियर हैमेल का चेहरा पीला पड़ चुका था और वे कुर्सी पर निढाल बैठे थे, मुझे वे इतने ऊंचे कभी नहीं लगे थे।

‘‘मेरे दोस्तों’ मैं,,, मैं,...... कुछ कहने की कोशिश में उनका गला रुंध गया। वे और नहीं बोल पाए। फिर वे ब्लैकबोर्ड की तरफ घूमे, उन्होंने चाॅक का एक टुकड़ा उठाया और अपने ताकत से जितना बड़ा वा लिख सकते थे, लिखा ‘विवे ला फ्रांस’ (फ्रांस जिंदाबाद)।

फिर वे रुक गए और उन्होंने अपना सिर दीवार पर टिका दिया और बिना कोई शब्द बोले, अपने हाथों के इशारों से कहा, ‘‘स्कूल समाप्त हुआ- आप जा सकते हैं’’।

250 साल पहले हुए फ्रेंको-प्रशियन वॉर का एक दृश्य।


आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
Franco-Prussian War that happened 250 years ago tells the importance of language, we must read this story on Hindi Day


from Dainik Bhaskar https://ift.tt/2Ro76j0
https://ift.tt/3isGARf

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

If you have any doubt, please let me know.

Popular Post