ठाकुरगंज उत्तर बिहार का आखिरी ब्लॉक है। इसकी एक तरफ नेपाल है और दूसरी तरफ सिलीगुड़ी कॉरिडोर। यानी पश्चिम बंगाल का वह संकरा-सा गलियारा, जिसे ‘चिकन्स नेक’ भी कहा जाता है और जो पूर्वोत्तर राज्यों को शेष भारत से जोड़ता है। बिहार के अंतिम छोर पर बसे ठाकुरगंज ब्लॉक से बांग्लादेश की दूरी भी महज 10 किलोमीटर ही रह जाती है।
सीमांचल का यह क्षेत्र बिहार के सबसे पिछड़े और अविकसित इलाकों में शामिल है। अररिया से ठाकुरगंज की तरफ बढ़ने पर इसकी बदहाली के दर्जनों उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। टूटे हुए पुल, धंसी हुई जमीन, कट कर बह चुके खेत और जल भराव के चलते हजारों एकड़ में बर्बाद होती फसलें यहां का आम नजारा है।
ठाकुरगंज की तरफ जाते हुए जिस हाइवे से सीमांचल की ये बदहाली नजर आती है, वह हाइवे अपने-आप में जरूर शानदार है। लेकिन, हाइवे पर लगे ट्रैवल एजेंट्स के विज्ञापन यह अहसास भी दिला देते हैं कि इस हाइवे का उद्देश्य सीमांचल की बेहतरी कम और देश की लेबर सप्लाई को सुगम बनाना ज्यादा है। महानगरों में मजदूरी करने के लिए यहां के हजारों लोग प्रतिदिन इसी शानदार हाइवे से रवाना होते हैं।
हाइवे के दोनों तरफ धान के खेत दूर-दूर तक फैले नजर आते हैं, लेकिन उनमें लगी ज्यादातर फसल बर्बाद हो चुकी है। सुपौल से लेकर किशनगंज तक सीमांचल के तमाम किसान हर साल अपनी फसल को ऐसे ही बर्बाद होते देखते हैं। यहां किसानों की स्थिति दयनीय और चेहरे उदास हो चुके हैं। ऐसे में भी जब कुछ किसान मुस्कान लिए मिलते हैं तो सुखद आश्चर्य होता है।
60 साल के महेंद्र सिंह ऐसे ही एक किसान हैं। 2 एकड़ जमीन पर खेती करने वाले महेंद्र मुख्य तौर पर केला, बैंगन, मकई, अनानास और चाय उगाते हैं। वे कहते हैं, ‘चाय का जो दाम हमें इस साल मिला है, वो आज से पहले कभी नहीं मिला था। ऐसा दाम अगर हर बार मिल जाए तो हमारे बच्चों को कभी मजदूरी के लिए बाहर न जाना पड़े।’
महेंद्र सिंह की तरह ही ठाकुरगंज ब्लॉक के वे सभी किसान इन दिनों खुश हैं, जिन्होंने बीते कुछ सालों में चाय की खेती शुरू कर दी है। बंगाल के सिलीगुड़ी से सटे इस इलाके में अब हजारों लोग चाय उगाने लगे हैं और सीमांचल के अन्य किसानों की तुलना में वे काफी बेहतर स्थिति में हैं।
बिहार में चाय की खेती का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। पिछले दो दशकों में ही यहां के किसानों ने चाय की खेती शुरू कर दी थी और आज भी बिहार में चाय का उत्पादन मुख्य रूप से किशनगंज जिले के दो प्रखंडों ठाकुरगंज और पोठिया तक ही सीमित है।
महेंद्र सिंह कहते हैं, ‘हम लोग बंगाल से बहुत नजदीक हैं तो वहीं के किसानों को देखकर हमने चाय उगाना शुरू किया था। इसमें अच्छी कमाई होने लगी तो देखा-देखी कई किसान चाय उगाने लगे।’ पोठिया ब्लॉक के बीरपुर गांव में रहने वाले सत्येंद्र सिंह बताते हैं, ‘चाय की खेती में मेहनत भले ही ज्यादा, लेकिन खतरा बहुत कम है। साल भर में 7-8 बार चाय की पत्ती टूटती है तो अगर एक-दो बार ये खराब भी हुई, तब भी उतना नुकसान नहीं, जितना धान में है। वजह ये कि धान तो छह महीने में एक बार होगा और वो खराब हो गया तो पूरा ही नुकसान है।’
ठाकुरगंज और पोठिया इलाके के जितने भी किसानों की जमीन चाय की खेती के लायक है, वो लोग भी बाकी फसलों को छोड़ चाय की खेती करने लगे हैं। इससे इनकी स्थिति में सुधार भी हुआ है, लेकिन इनकी शिकायत है कि सरकार की ओर से कोई भी कदम नहीं उठाया जा रहा।
बिहार-बंगाल बॉर्डर की बेसरबाटी पंचायत के रहने वाले यदुनाथ सिंह कहते हैं, ‘जितने भी किसान अभी चाय उगा रहे हैं, वो साथ में अनानास, केले, आलू, बैंगन जैसी अन्य चीजें भी उगाते हैं। ताकि कोई एक फसल खराब भी हो जाए तो दूसरी से उस नुकसान की भरपाई हो सके। चाय मुनाफे का सौदा तो है, लेकिन हर बार ऐसा दाम नहीं मिलता, जैसा इस बार मिल गया। इसमें अगर सरकार मदद करे तो इस इलाके की स्थिति में जमीन-आसमान का अंतर आ सकता है।’
वे आगे कहते हैं, ‘हमारे ठीक बगल में बंगाल है। वहां चाय उगाने वाले किसानों के लिए सरकार सब कुछ करती है। पक्की मेढ़ बनाई जाती है, पानी के लिए पाइप, पम्प और बिजली सब मुफ्त मिलता है। इतना ही नहीं, घर तक बनाकर दिए जाते हैं। बिहार सरकार ऐसा कुछ नहीं करती। फलों के लिए यहां मंडी और चाय के लिए फैक्टरी भी अगर हो जाए तो किसानों का बहुत भला हो जाए।’
सरकारी आकंड़ों के मुताबिक, फिलहाल बिहार में करीब 11 हजार एकड़ जमीन पर चाय की खेती हो रही है और करीब चार हजार किसान चाय उगा रहे हैं। बिहार में कुल नौ करोड़ किलो हरी पत्ती का उत्पादन हर साल होता है और इससे करीब 75 लाख किलो चाय-पत्ती साल भर में तैयार की जाती है।
ठाकुरगंज में चाय की प्रोसेसिंग यूनिट चलाने वाले ‘अभय टी प्राइवेट लिमिटेड’ के मालिक कुमार राहुल सिंह कहते हैं, ‘बिहार में चाय से जुड़ा सरकारी आंकड़ा असल आंकड़े से काफी कम है, क्योंकि यहां ऐसे किसान ज्यादा हैं, जो एक-दो बीघा जमीन पर भी चाय उगाते हैं और इन्हें सरकारी आंकड़े में गिना ही नहीं जाता। बिहार में अभी 8 हजार से ज्यादा किसान चाय उगा रहे हैं और इसकी खेती 20 हजार एकड़ से ज्यादा जमीन पर हो रही है।’
कुमार राहुल सिंह बताते हैं कि बिहार में सिर्फ दस प्रोसेसिंग यूनिट्स हैं, जो यहां उगाई जा रही चाय के लिए बहुत कम हैं। इसके चलते यहां से चाय बंगाल भेजी जाती है, जिसके दोहरे नुकसान हैं। एक तो बिहार राज्य को राजस्व का नुकसान हो रहा है और दूसरा यहां लोगों को रोजगार न मिलने का नुकसान हो रहा है।
वे कहते हैं, ‘अगर यहां फैक्टरी लगें तो सैकड़ों लोगों को उसमें रोजगार मिलेगा और हजारों लोगों को चाय बागानों में। अभी सिर्फ दो ब्लॉक में चाय हो रही है, जबकि किशनगंज जिले के साथ ही पूर्णिया, अररिया और कटिहार में भी चाय उत्पादन की संभावनाएं हैं।
सरकार अगर सिर्फ बिजली की व्यवस्था भी सुधार दे तो यहां फैक्टरी खुद ही आ जाएंगी और इस इलाके की पलायन जैसी बड़ी समस्या बहुत हद तक कम हो सकेगी। लेकिन, अभी तो ऐसी स्थिति है कि पूरे बिहार में जो गिनती की दस फैक्टरियां हैं, वो भी बिजली कटने से हो रहे नुकसान के कारण बिकने की स्थिति में हैं।’
राहुल सिंह जैसे फैक्टरी मालिकों के साथ ही चाय उगाने वाले किसान भी मानते हैं कि सरकारी उदासीनता अगर दूर हो तो बिहार के सीमांचल क्षेत्र की स्थिति में काफी सुधार हो सकता है। महेंद्र सिंह कहते हैं, ‘धान जैसी फसल दस एकड़ में उगाकर भी किसान उतना नहीं कमा सकता, जितना एक एकड़ में चाय से वो कमा सकता है।
दो एकड़ जमीन पर चाय उगाने वाले छोटे को फिर और कुछ करने की जरूरत नहीं है। लेकिन, ये तभी हो सकता है, जब सरकार फैक्टरी लगवाए और चाय खरीद की प्रक्रिया ठीक करे। इतना भी अगर हो जाए तो हमारे बच्चों को फिर मजदूरी के लिए कभी बाहर नहीं जाना पड़ेगा।'
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