राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुसलमानों के प्रति आजकल रवैया क्या है? इस प्रश्न पर बहस चल पड़ी है। बहस का कारण संघ के मुखिया मोहन भागवत के कुछ बयान हैं। हाल ही में उन्होंने कहा कि दुनिया में सबसे ज्यादा संतुष्ट कोई मुसलमान है तो वह भारत का मुसलमान है।
पिछले साल उन्होंने कहा था कि हिंद में जो भी पैदा हुआ, वह हिंदू है। भारत के मुसलमान भी हिंदुत्व के दायरे से बाहर नहीं हैं। उन्होंने माना कि ‘हिंदू’ शब्द हमें विदेशियों (मुसलमानों) ने दिया है। पिछले दिनों पड़ोसी देशों के शरणार्थियों के लिए जो नागरिकता संशोधन कानून बना, उसके बारे में संघ का कहना है कि उसमें मजहब व जाति का अड़ंगा ठीक नहीं है।
भागवत के बयान से मुस्लिम नेता नाराज
संघ और मोहन भागवत के इन बयानों से कुछ मुस्लिम नेता खुश नहीं हैं। उनका मानना है कि जब से केंद्र में भाजपा सरकार आई है, मुसलमानों पर अत्याचार हो रहा है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने तो यहां तक कह दिया कि भारत अब हिटलर का जर्मनी बन रहा है।
जाहिर है कि पाकिस्तान के नेता भारत पर ये इल्जाम इसलिए भी लगाते हैं कि उनके वोट वहां पक्के हो जाएं लेकिन हमारे मुस्लिम नेताओं को वैसे आरोप लगाते समय कुछ मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए। सबसे पहले तो यह कि पिछले पांच-छह साल में मुसलमानों के साथ जैसी हिंसा हुई है, वैसी क्या कांग्रेसी राज में नहीं होती थी? यह पार्टी-विशेष का मसला नहीं, भारतीय समाज के आंतरिक अंतर्विरोधों का परिणाम है।
1000-500 साल पहले विदेशी अल्पसंख्यक आए और भारत में मिल गए
भारत के मुसलमान कौन हैं? क्या ये अरब हैं, मंगोल, तुर्क, मुगल, उइगर हैं? हजार-पांच सौ साल पहले ये विदेशी अल्पसंख्यक में भारत जरूर आए थे लेकिन अब इतने घुल-मिल गए हैं कि उनका घराना-ठिकाना खोजना मुश्किल है। इन मुट्ठीभर विदेशियों के कारण क्या हमारे करोड़ों मुसलमानों को हम विदेशी मूल का कह सकते हैं? इसका जवाब मैं अटलबिहारी वाजपेयी के शब्दों में देना चाहूंगा दूंगा।
उन्होंने कहा था, ‘भारत के मुसलमानों का खून, हमारा खून है और उनकी हड्डियां, हमारी हड्डियां हैं।’ कुछ वर्ष पहले दुबई मेंे एक भाषण में जैसे ही मैंने कहा कि भारत के मुसलमान दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मुसलमान हैं तो वहां बैठे कई अरब शेखों के चेहरों पर तनाव आ गया। मैंने उन्हें बताया कि भारत के मुसलमानों ने इस्लाम की नई विचारधारा को कबूल तो किया लेकिन उनकी नसों में हजारों साल पुरानी भारतीय संस्कृति भी प्रवाहित होती है। दोनों का सम्मिश्रण उन्हें सर्वश्रेष्ठ बनाता है।
भारत का मुसलमान सर्वश्रेष्ठ है
भारत का मुसलमान सर्वश्रेष्ठ तो है ही, वह उन देशों के मुसलमानों से बेहतर हालात में हैं, जहां वे अल्पसंख्या हैं। हमारे मुसलमानों की तुलना उन देशों से कीजिए, जो ईसाई हैं, बौद्ध, यहूदी, कम्युनिस्ट हैं। सुन्नी देशों में शिया और शिया देशों में सुन्नी मुसलमानों की दशा क्या है? पाक में वे एक-दूसरे पर हिंसक हमले करते ही रहते हैं। मुसलमानों में अहमदिया, कादियानी, मेहदी, मेमन, मुहाजिर, पठान, बलूच, सिंधी और पंजाबी लोग एक-दूसरे पर शोषण व जुल्म के इल्जाम लगाते हैं।
पाक में हिंदुओं, सिखों और ईसाइयों की जो हालत हैं, क्या भारत में मुसलमानों की भी वही हालत है? क्या मुस्लिम देश में कोई गैर-मुस्लिम कभी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बना है? भारत में विधायक, सांसद ही नहीं, मंत्री, मुख्यमंत्री और राज्यपाल ही नहीं, भारत के राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति भी कई मुसलमान बने हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि भारत का प्रधानमंत्री भी कभी कोई मुसलमान बन जाए।
भारत के अलावा जहां भी मुसलमान अल्पसंख्या हैं वहां उनका जीना दूभर है
पिछले 50 वर्षों में ऐसे दर्जनों ईसाई, बौद्ध और कम्युनिस्ट देशों में मैं रहा हूं, जहां मुसलमान हैं तो सही लेकिन भारत की तरह अल्पसंख्या में हैं। सत्य तो यह है कि वे जहां भी अल्पसंख्या में हैं, उनका जीना दूभर है। सोवियत संघ के उजबेक, ताजिक, किरगीज़, कजाक और तुर्कमान लोगों को मैंने रूसियों की गुलामी करते देखा है। चीन के शिनच्यांग प्रांत के उइगर मुसलमानों की दशा देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे। फ्रांस के अल्जीरियाई और अफ्रीकी मुसलमानों के इस्लामी रहन-सहन और पहनावे पर तरह-तरह के प्रतिबंध हैं।
इजराइल में मुस्लिम फलस्तीनियों का क्या हाल है, सारी दुनिया जानती है। इसका अर्थ यह नहीं कि भारत के मुसलमान सऊदी अरब के मुसलमानों की तरह मालदार और ताकतवर हैं। वे वैसे हो ही नहीं सकते थे। क्योंकि भारत में ज्यादातर वे ही लोग मुसलमान बने, जो गरीब, ग्रामीण, अशिक्षित, और कमजोर थे। वही धारावाहिकता आज भी कायम है। उनसे भी ज्यादा बदहाल वे हिंदू हैं, जो दलित हैं, आदिवासी, पिछड़े, मेहनतकश हैं।
मुसलमानों की हालत भारत में कहीं बेहतर है, क्योंकि भारत की संस्कृति सहनशीलता पर आधारित है। अब देश-काल बदल गया है। इसीलिए मोहन भागवत का हिंदुत्व भी सर्वसमावेशी बन गया है। भागवत ने पुरानी लकीर काटी नहीं है। बस, एक बड़ी लकीर खींच दी है।(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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