गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020

तर्क है कि किसान कम पढ़े-लिखे होते हैं, तो उन्हें कानूनों की समझ नहीं, जानिए इस बिल पर क्या कहते हैं, पंजाब-हरियाणा के ‘पढ़े-लिखे किसान’

पंजाब और हरियाणा में किसानों के प्रदर्शन लगातार जारी हैं। सरकार की तरफ से यह आरोप लगाया जा रहा है कि आंदोलन कर रहे किसानों को विपक्षी दलों द्वारा बहकाया गया है और नए कानूनों को लेकर उनके मन में झूठे डर बैठा दिए गए हैं। कई लोगों का यह भी तर्क है कि चूंकि अधिकतर किसान अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे हैं लिहाजा उन्हें कानूनों की समझ ही नहीं है। ऐसे आरोपों के जवाब में पंजाब और हरियाणा के ‘पढ़े-लिखे किसान’ इस मामले पर क्या राय रखते हैं, यह जानने कि लिए हमने कुछ ऐसे किसानों से बात की जिन्होंने बड़ी-बड़ी डिग्रियां हासिल की है।


‘कॉंट्रैक्ट फार्मिंग किसानों के हित में नहीं’

नए कानूनों में कॉंट्रैक्ट फार्मिंग को सबसे विवादास्पद मानते हुए प्रदीप कहते हैं, ‘किसानों का विरोध प्रदर्शन बिलकुल जायज़ है। निजी कंपनियां सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना मुनाफ़ा देखती हैं। उन्हें किसानों की भलाई से कोई लेना-देना नहीं है। यह ये क़ानून पूरी किसानी को ही धीरे-धीरे निजी हाथों में सौंपने जा रहे हैं।’

प्रदीप अपना अनुभाव साझा करते हुए कहते हैं, ‘कॉंट्रैक्ट फार्मिंग के नुकसान मैं ख़ुद झेल चुका हूँ। तीन साल पहले मैंने राशि सीडज नाम की एक कंपनी के लिए बीज तैयार करने का कॉंट्रैक्ट लिया था। पहले साल इसमें फ़ायदा भी हुआ। मुझे लगभग प्रति एकड़ चार हजार रुपए की बचत हुई। ये देखकर मैंने अगले साल 22 एकड़ में बीज उपजाए। लेकिन उस साल प्रति एकड़ मुनाफ़ा चार हजार से घटकर ढाई हजार तक आ गया।

इसके बाद भी मुझे लगा कि अगर मैं और ज़्यादा जमीन पर बीज उपजाऊ तो दो-ढाई हजार प्रति एकड़ के हिसाब भी अच्छी बचत हो सकती है। तो इस साल मैंने कुल 54 एकड़ ज़मीन पर बीज उपजाए। लेकिन जब हम बीज लेकर कंपनी के पास पहुंचे तो कहा गया कि आधे बीज अच्छी क्वालिटी के नहीं हैं। कंपनी ने वो वापस कर दिए।’

प्रदीप कहते हैं, ‘अब कॉंट्रैक्ट के हिसाब से मैं कोर्ट जा सकता हूँ लेकिन मैं अपनी बाकी खेती देखूं या कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटता रहूँ। कोर्ट की स्थिति हम सबने देखी है कि वहां फैसला होने में कितना समय लगता है। जब मुझ जैसा पढ़ा-लिखा आदमी भी कोर्ट जाने से बच रहा है तो वो किसान जो पढ़ा-लिखा भी नहीं है वो कैसे कंपनियों से निपटेगा।

पढ़े-लिखे लोग भी कॉंट्रैक्ट पर साइन करने से पहले ध्यान नहीं देते हैं। एक मोबाइल ऐप्लिकेशन ही जब हम लोग डाउनलोड करते हैं तो क्या टर्म्ज एंड कंडिशन पढ़ते हैं? हम सब बिना पढ़े ही ‘एग्री’ करके आगे बढ़ जाते हैं। ऐसा ही कोई बीमा लेते हुए भी करते हैं और बैंक के तमाम अन्य कामों में भी। तो एक आम किसान कैसे कॉंट्रैक्ट की बारीकियों को समझेगा। वो मजबूरन साइन करेगा और बड़ी कंपनियों के रहमों-करम पर काम करने को मजबूर होगा।


‘किसान और आढ़ती का रिश्ता सिर्फ खेती तक सीमित नहीं। आढ़ती किसान का एटीएम है जो इन कानूनों से टूट जाएगा’

कमलजीत कहते हैं, ‘नए क़ानून आने के बाद मंडी से बाहर फसल की ख़रीद टैक्स फ्री हो जाएगी। ऐसे में मंडी के अंदर टैक्स भरकर कोई व्यापारी क्यों फसल ख़रीदेगा। लिहाज़ा सरकारी मंडियां धीरे-धीरे टूटने लगेंगी और इसके साथ ही आढ़ती भी टूट जाएंगे।

किसान और आढ़ती का रिश्ता सिर्फ़ खेती तक सीमित नहीं है। फसल के अलावा भी तमाम जरूरतों के लिए किसान आढ़ती पर ही निर्भर है। घर में शादी से लेकर किसी आपात स्थिति तक में किसान अपने आढ़ती से ही पैसा लेता है और फसल होने पर चुकाता है। अब अगर फसल मंडी से बाहर बिकेगी तो आढ़ती भी किसान को पैसा क्यों देगा।

सरकार भले ही कह रही है कि मंडी व्यवस्था बनी रहेगी लेकिन किसान बेवकूफ नहीं है जो सड़कों पर बैठा विरोध कर रहा है। वो समझता है कि जब मंडी से बाहर बिक्री बिना टैक्स के होगी तो मंडी होकर भी किसी काम की नहीं राह जाएगी। इससे होगा ये कि शुरुआत के सालों में शायद किसान को मंडी के बाहर बेहतर दाम मिल जाए लेकिन जब दो-तीन साल में मंडियां पूरी तरह ख़त्म हो जाएंगी तो व्यापारी अपनी इच्छा से दाम तय करने लगेंगे।’


‘जो किसान आज भी लकीर के फकीर बने हुए हैं, उन्हें ही नए कानूनों से समस्या है’


अजय बोहरा इन कानूनों के बारे में कहते हैं, ‘मुझे इन कानूनों में कुछ भी ग़लत नहीं लगता। इससे किसानों के लिए नए दरवाजे खुल ही रहे हैं, बंद नहीं हो रहे। लेकिन किसानों में जागरूकता की बहुत भारी कमी है। अधिकतर किसान एक ही लकीर पर चलते हैं और इसी का फ़ायदा राजनीतिक दल भी उठाते हैं।’

अजय मानते हैं कि जो किसान पारंपरिक तरीकों से इतर काम करने को तैयार हैं, उनके लिए नए क़ानून कई मौके लेकर आया है। वे कहते हैं, ‘मेरा मानना है कि ये पूरा आंदोलन नागरिकता क़ानून के विरोध जैसा ही आंदोलन है। जिस तरह से नागरिकता क़ानून का फर्क हमारे देश के नागरिकों पर न होकर विदेश से आने वाले लोगों पर होना था लेकिन फिर भी देश के कई लोग उसके विरोध में इसलिए थे कि उनके मन में डर बैठ गया था वैसे ही इन कानूनों को लेकर भी हो रहा है।’

वे आगे कहते हैं, ‘हम लोग जो जैविक खेती कर रहे हैं वो पहले से ही मंडी के बाहर बिकती है और उसका सही दाम भी बाहर ही मिलता है। हमारे साथ जो हजारों किसान जुड़े हुए हैं वे नए तरीकों से फसल उपजा रहे हैं और उनकी निर्भरता मंडियों पर कम हो रही है। इसलिए हमसे जुड़े किसी भी किसान के लिए ये नए क़ानून कोई बड़ा मुद्दा नहीं हैं।

जो किसान जैविक खेती से या नए तरीकों से आत्मनिर्भर बन रहे हैं और कर्ज के कुचक्र से निकल रहे हैं उनके लिए ये क़ानून कोई परेशानी नहीं हैं। इनसे उन किसानों को जरूर परेशानी है जो सालों से एक ही तरीक़े की खेती और उसके सिस्टम में फंसे हुए हैं।’


‘नए प्रयोग करने को तैयार किसानों के लिए ये कानून बहुत अच्छे हैं। लेकिन एमएसपी पर कानून की मांग जायज है’

अरुण बताते हैं, ‘जिन किसानों ने बीते 15-20 सालों में अपनी खेती को डिवर्सिफाई किया है, जो विविधता लेकर आए हैं उन्हें इन कानूनों से दिक्कत नहीं है। वह इसलिए है क्योंकि ऐसे किसानों की आढ़तियों और मंडियों पर पहले जैसी निर्भरता नहीं रह गई है।’

साल 2018 में हरियाणा का ‘बेस्ट फार्मर’ ख़िताब जीत चुके अरुण इन कानूनों के बारे में कहते हैं, ‘कोई भी नया बदलाव जब होता है तो उसका विरोध होता ही है। राजीव गांधी के दौर में जब कम्प्यूटर आया तो उसका भी विरोध हुआ लेकिन क्या आज हम कम्प्यूटर के बिना अपने जीवन की कल्पना भी कर सकते हैं? ऐसा ही विरोध अब इन कानूनों का हो रहा है जबकि ये कानून किसानों के लिए बहुत बड़े बाजार का दरवाज़ा और मौके खोल रहे हैं। नए प्रयोग करने को तैयार किसानों के लिए ये वरदान साबित हो सकते हैं।’

अरुण मानते हैं कि इन किसान आंदोलनों के पीछे राजनीतिक कारण ज़्यादा है। वे कहते हैं, ‘किसान अक्सर अपने नेताओं के पीछे एकजुट रहते हैं और किसान नेताओं का सीधे-सीधे राजनीतिक पार्टियों से मेल-जोल होता है। साल में अधिकतर समय किसान खाली रहते हैं इसलिए उनके पास राजनीति करने का भरपूर समय भी होता है।’

नए कानूनों से किसानों के डर को आधारहीन मानने के बावजूद भी अरुण चौहान ये जरूर मानते हैं कि एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) को लेकर किसानों की मांग जायज़ है। वे कहते हैं, ‘किसान अगर ये मांग कर रहे हैं कि एमएसपी तय करने के लिए भी क़ानून बना दिया जाए और इससे कम की खरीद को अपराध माना जाए तो ये मांग बिलकुल सही है। सरकार की मंशा जब साफ़ है तो यह लिखने में क्या बुराई है। एमएसपी का जिक्र अगर कानून में हो जाए तो इन कानूनों में कोई भी बुराई मुझे नजर नहीं आती।’



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
नए कानून पर पंजाब और हरियाणा के पढ़े-लिखे किसानों की राय।


from Dainik Bhaskar https://ift.tt/36Gsx7E
https://ift.tt/310elD9

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

If you have any doubt, please let me know.

Popular Post