गुरुवार, 25 जून 2020

यदि चीनी नेताओं ने जान-बूझकर यह सुनियोजित हत्याकांड किया है तो भारत के लिए यह 1962 से भी बड़ी चुनौती सिद्ध होगी

गलवान घाटी में भारत और चीन के कोर कमांडरों की बैठक में यह तय होना स्वागत योग्य है कि दोनों देशों की फौजें अभी जहां हैं, वहां से पीछे हटेंगी। अभी यह पता नहीं चला है कि वे कितने पीछे, कहां-कहां से हटेंगी, यदि हटेंगी तो जो बंकर वगैरह बना लिये हैं, वे तोड़ेंगी या नहीं। हटने के बाद दोनों के बीच खाली जगह कितनी होगी? दोनों सेनाएं वास्तविक नियंत्रण रेखा से कितनी दूरी रखेंगी और जब वे मिलेंगी तो उनके पास हथियार होंगे या नहीं?

इससे पहले कि सीमा पर चली इस बातचीत के बारे में विस्तार से कुछ पता चले, हमारे कई टीवी चैनल कहने लगे हैं कि चीन ने वादाखिलाफी शुरु कर दी है। चीन धोखेबाज है। चीनी माल के बहिष्कार की आवाजें गूंजने लगी हैं। यह भी कहा जा रहा है कि रक्षामंत्री राजनाथ सिंह रूस इसीलिए गए हैं कि वे चीन की काट कर सकें।

कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा सरकार की लापरवाही के कारण हमारी जमीन को चीन हड़प रहा है और उसने हमारे सैनिकों की निर्मम हत्या की है। कांग्रेस का कहना है कि मोदी का यह दावा तथ्यों के विपरीत है कि हमारी सीमाओं में कोई नहीं घुसा है और कोई कब्जा नहीं हुआ है।

मोदी का यह कथन यदि सही है तो फिर वे यह बताएं कि हमारे 20 जवान क्यों मारे गए? क्या वे चीन की सीमा में घुस गए थे? भारत और चीन के बीच की लगभग 3500 किमी की वास्तविक नियंत्रण रेखा, वास्तविक नहीं है। हवाई है, अस्पष्ट है, अपरिभाषित है।

कांग्रेस के इस सवाल को इस तथ्य से भी बल मिलता है कि नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह या विदेशमंत्री जयशंकर ने आज तक चीन के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला है। उन्होंने इस सारे हत्याकांड के लिए चीन के नेताओं या सरकार को सीधे जिम्मेदार भी घोषित नहीं किया। सरकार के किसी मंत्री या अफसर ने चीनी माल के बहिष्कार का नारा नहीं लगाया। भाजपा या संघ के लोगों ने चीन के विरुद्ध कोई प्रदर्शन तक नहीं किया।

हमारे विदेश मंत्री और मंत्रालय के संयुक्त सचिव ने अपने चीनी समकक्षों से बात की। लेकिन उनके बीच तू-तू--मैं-मैं हुई हो, इसका जरा भी पता नहीं चला। चीन का सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’, जो भारत के लिए काफी फूहड़ भाषा का प्रयोग करता रहता है, उसने और चीन के कई विदेश नीति विशेषज्ञों ने मोदी के संयम और धैर्य की प्रशंसा की है। विदेश मंत्री जयशंकर ने कल भारत, रूस और चीन की त्रिपक्षीय बैठक में जो संक्षिप्त-सा भाषण दिया, उसमें भी चीन पर कोई छींटाकशी नहीं की।

इन सब तथ्यों का अर्थ क्या लगाया जाए? क्या यह कि भारत चीन से डर गया है? मेरी राय में यह सोचना बिल्कुल गलत होगा। यह 2020 है, 1962 नहीं है। यह ठीक है कि हमारे नेता इस घटना से घबरा गए हैं। इसीलिए उनके बयान परस्पर विरोधी आते रहे हैं। वे यह भी कह सकते थे कि जो मारकाट हुई है, वह विवादास्पद क्षेत्र में हुई है।

हमारे नेता स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकते थे कि भारत-चीन सीमांत पर कभी ऐसी घटना घट सकती है। पाकिस्तान के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और जनरलों से मेरी जब भी बात हुई है, उन्हें भारत-चीन सीमा के शांतिपूर्ण व्यवहार का उदाहरण मैं देता रहा हूं। इस घटना से चीन के नेता भी हक्के-बक्के रह गए हैं। उन्होंने भी कोई भारत-विरोधी बयान नहीं दिया है।

इसका अर्थ यह हुआ कि गलवान घाटी की घटना तात्कालिक और स्थानीय है। इसमें दोनों देशों के नेताओं या सरकारों का हाथ दिखाई नहीं पड़ रहा। ऐसा लगता है और यह बात मैं 16 जून से ही कह रहा हूं कि दोनों तरफ के सैनिकों के बीच कहासुनी हुई और वे तत्काल एक-दूसरे से भिड़ लिए।

यदि ऐसा नहीं होता तो देानों के बीच बंदूकें चल जातीं, तोप के गोले गिरते और मिसाइल फेंके जाते। यह सब नहीं हुआ। और हुआ क्या? 16 जून की सुबह 4 बजे मुठभेड़ खत्म हुई और सुबह साढ़े सात बजे दोनों सेनाओं के जनरल बैठकर झगड़ा सुलझाने लगे। हमारे जवानों की हत्या हुई तो भारत में तो हाहाकार मचना ही था।

मेरी राय थी कि मामला इतना तूल पकड़ता, उसके पहले ही हमारे प्रधानमंत्री को चीन के राष्ट्रपति से सीधे बात करनी थी। दोनों की दोस्ती है। पिछले 6 साल में दोनों जितनी बार मिले हैं, पिछले 70 साल में भारत के सारे प्रधानमंत्री मिलकर किसी चीनी नेता से नहीं मिले। दोनों स्थायी सीमा-रेखा खींचने की बात करते। मामला शांत हो जाता।

लेकिन मेरा यह विश्लेषण यदि गलत है और चीनी नेताओं ने जान-बूझकर यह सुनियोजित हत्याकांड किया है तो भारत सरकार के लिए यह 1962 से भी बड़ी चुनौती सिद्ध होगी। भारत को चीन के प्रति अपनी कूटनीति और समर नीति में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा।

इस घटना पर मोदी सरकार का वर्तमान संयम और धैर्य, जो कि सराहनीय है, वह उसके गले का हार बन जाएगा। देश के राष्ट्रवादी तत्व और विपक्षी दल इस मामले को जबर्दस्त तूल देंगे और कहेंगे कि नेहरु ने 1962 में इतनी हिम्मत तो की थी कि श्रीलंका जाते समय भारतीय सेनाओं से कहा था कि चीनियों को भारतीय सीमा से खदेड़कर बाहर कर दो लेकिन वर्तमान सरकार तो चीन के प्रति मौनालाप ही कर रही है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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डॉ. वेदप्रताप वैदिक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष


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