सोमवार, 15 जून 2020

20 सालों में 13 साल सूखा पड़ा, 20 लाख मजदूर काम की खोज में बाहर चले गए, लॉकडाउन लगा तो 8 लाख को लौटना पड़ा

छतरपुर जिला मुख्यालय से 16 किलोमीटर दूर है मऊ-सहानिया गांव। यह गांव महाराजा छत्रसाल की कर्मभूमि, मस्तानी महल और महाराजा छत्रसाल संग्रहालय के लिएप्रसिद्ध है। गांव केआदिवासी बहुलजगत सागर मोहल्ला के एकचबूतरे पर उदास चेहराें वाले 15-20 लोग बैठे हैं। इनमें से ज्यादातर लॉकडाउन के बादअपने गांव वापस आए हैं। कुछ तो 25 साल बाद लौटे हैं। इन्हीं में से एक26 साल केजालिम हैं। जालिम जम्मू से 18 मई को लौटे हैं।

वे बताते हैं कि पहले पांच साल दिल्ली में रहेफिर एक सालपहले ही जम्मू पहुंचे। जम्मू में 400 रुपए रोजाना पर दिहाड़ी पर मजदूरी करते थे। बच्चे यहीं गांव में ही थे। लॉकडाउन के बाद काम मिलना बंद हो गया तोगांव वापस आ गए।

जालिम बुंदेलखंडी में कहते हैं,"आधी मिले लेकन घर की मिले बो ही नीकी।'' यानी हमदूर नहीं जाना चाहते, यहीं काम मिल जाएगा तो फिर बाहर नहीं जाएंगे, काम नहीं मिला तो फिर जाना पड़ेगा।ऐसा सोचने वाले जालिम अकेले नहीं है बल्कि दिल्ली से लौटे मंगल, रेवाड़ीसे लौटे धर्मदास, जयपुर से लौटीं सुनीता भी यही सोचते हैं। लेकिन फिलहाल इनके पास कोई काम नहीं है।

इस पंचायत के सरपंच जयदेव सिंह बुंदेला बताते हैं कि गांव में 14 अप्रैल से अब तक 590 मजदूर वापस आए हैं। इनका रजिस्ट्रेशन संबल योजना में हो रहा है, मनरेगा के जॉब कार्ड बनने का कामभी हो रहा है। हम 190 रुपए प्रतिदिन दे रहे हैं।ये जम्मू, पंजाब, हरियाणा में 350 से 400 रुपए प्रतिदिन कमा रहे थे।

मध्यप्रदेश के हिस्सेवाले बुंदेलखंड से अनुमान के मुताबिक करीब 18 से 20 लाख मजदूर काम के लिए बाहर ही रहते हैंऔर लॉकडाउन के दौरान करीब 7 से 8 लाख मजदूर वापस आएहैं। लॉकडाउन के दौरान शहरों से वापस आने वाले मजदूरों की संख्या कम हैंक्योंकि बड़ी संख्या में मजदूर होली के मौके परगांवों में आए थे और फिर वे वापस जा नहीं पाए।

बीते 20 सालोंमें यहां करीब 13 सालबारिश न होने से सूखा पड़ा। 2005 से 2008 तक तो लगातारचार साल सूखा पड़ा।इस दौरान सबसे ज्यादा पलायन हुआ और किसानों ने आत्महत्याभी कीं।

सरपंच जयदेव सिंह बुंदेला बताते हैं कि गांव में 14 अप्रैल से अब तक 590 मजदूर वापस आए हैं। इनका रजिस्ट्रेशन संबल योजना में किया जा रहा है।

यहां वापस आए मजदूरों को सरकार नहर निर्माण,माइनिंग के काममें लगा सकती हैं।महिलाओं को स्वसहायता समूह के जरिए रोजगार से जोड़ सकती हैं। इसके साथ हीफूड प्रोसेसिंग के काम से भी इन्हें जोड़ा जा सकता है। बुंदेलखंड की बड़ी, सत्तू, पापड़ प्रसिद्ध हैं। इनका उत्पादन भी किया जा सकता है। जो पढ़े लिखे युवक हैं उन्हें शैक्षणिक कार्यों से जोड़ा जा सकता है। अगर सरकार ने इनकी मदद नहीं की तो क्षेत्र में अपराध बढ़ सकते हैं।

छतरपुर के पेपटैक ग्रुप के निदेशक विनय चौरसिया कहते हैं किजो मजदूर वापस आए हैं, उनमें सेमीस्किल्ड और कई स्किल्ड लोग भी हैं।हमने स्थानीय स्तर पर इलेक्ट्रीशियन, प्लम्बर, फिटर, ड्राइवर, कारीगर, मैकेनिक आदि कामों में रोजगार देने के लिए अभियान चलाया लेकिन सिर्फ 300 लोगों ने ही रुचि दिखाई। जबकि सिर्फ छतरपुर जिले में ही करीब एक लाख श्रमिक आए हैं।

मध्य प्रदेश के हिस्सेवाले बुंदेलखंड में लॉकडाउन के दौरान करीब 7 से 8 लाख मजदूर वापस आए हैं।

विनय कहते हैं, अभी श्रमिकों को सामान्य स्थिति में आने में शायद थोड़ा वक्त और लगे, तभी वे काम के लिए निकलेंगे। कारोबारी अभिषेक मिश्रा बताते हैं कि 2009 में बुंदेलखंड पैकेज की घोषणा हुई। दो बार मध्य प्रदेश सरकार ने इन्वेस्टर मीट का आयोजन खजुराहो में किया, एक बार सागर में भी एमएसएमई समिट हुई। बिजावर में चीज फैक्ट्री, सीमेंट फैक्ट्री, डायमंड एग्जीबिशन सेंटर बनाने की घोषणाहुई है। लेकिन यहां अभी तक कोई बड़ा उद्योगनहीं बनपाया है। रोजगार के लिए बीड़ी, पत्थर की खदानें या फिर निर्माण कार्य ही यहां उपलब्ध हैं।

गांव के 35 ऐसे घर थे जहां ताला त्योहारों पर ही खुलता था
मजदूरों के आने से गांवों में रौनक भी लौटी है, जिन घरों में ताला पड़ा रहता था उन घरों में बच्चों की गूंज भी सुनाई देती है। खजुराहों से 21 किलो मीटर दूर गढ़ा गांव इनमें से एक है। 1800 की आबादी वाले इस गांव में करीब 30 से 35 ऐसे घर थे जहां पर हमेशा ताला ही लगा रहता था और त्योहारों के मौके पर ही इनका ताला खुलता था।

अब यहां रौनक लौट आई है लेकिन बेरोजगारी की चिंता गांव लौटी गेंदाबाई, मुकेश, प्रेमचंद, गंगू, सुनीता, हल्के, रामबाबू सबके चेहरों पर झलकतीहै।

सागर स्थित डॉ. हरीसिंह गौर विवि के समाजशास्त्र विभाग के प्रोफेसर दिवाकर सिंह राजपूत कहते हैं कि बुंदेलखंड सूखा और बेराजगारी की मार से सालोंसे जूझ रहा है। यहां प्रति व्यक्ति आय भी देश कीऔसत आय का एक चौथाई ही है। उद्योग के नाम पर यहां बीड़ी उद्योग था लेकिन उस पर भी मार पड़ी और यह भी पश्चिम बंगाल और दक्षिणी राज्यों की ओर शिफ्ट हो गया है।

छतरपुर के बीड़ी कॉलोनी में बीड़ी बनाने के लिए जुगाड़ से धागा तैयार करती बुजुर्ग महिला।

बीड़ी बनाना बंद था, 77 दिन बाद सात जून को फिर से काम शुरू हुआ
मध्य प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में एक मात्र सबसे बड़ा उद्योग बीड़ी का ही हैलेकिन यह भी धीरे-धीरे कम हो रहा है। बड़ी बीड़ी कंपनी से ताल्लुक रखने वालीं सागर की मीना पिंपलापुरे कहती हैं कि सबसे पहले बीड़ी की शुरुआतबुंदेलखंड और जबलपुर के बीच में कहीं हुई है। सिगरेट तो इसके बहुत बाद में आया।

मीना पिंपलापुरे बताती हैं, बीते 10 सालमें 60 फीसदी कारोबार कम हो गया है। तेंदुपत्ता संग्राहक और बीड़ी मजदूरों की संख्या यहां करीब चार लाख से अधिक होगी। जो मजदूर आए हैं उन्हें हम पश्चिम बंगाल और दक्षिण भारत की तरह अच्छी बीड़ी बनाने का प्रशिक्षण देने पर भी विचार कर रहे हैं।

बड़ी संख्या में बीड़ी बनाने का काम महिलाएं करती हैं।

छतरपुर की टूटी और संकरी सड़क वाली बीड़ी कॉलोनी में 35 साल से बीड़ी बना रहीं पाना कहती हैं कि 1500 बीड़ी बनाने के बाद 180 रुपए मिलता है। धागा और तेंदुपत्ता उनका ही होता है। हम तीन दिन में 1500 बीड़ी बना पाते हैं। सूप में तंबाकू दिखाते हुए पाना कहती हैं कि ठेकेदार 350 ग्राम तंबाकू देता है, अगर इससे ज्यादा लग जाती है तो हमारी मजदूरी में से पैसा काट लेताहै। लॉकडाउन में 22 मार्च से बीड़ी बनाना बंद था,77 दिन बाद सात जून को फिर से बीड़ी बनाना शुरू किया है।

वर्तमान में देश कोरोना से जूझ रहा है लेकिन बुंदेलखंड में लड़ाई दोहरी है। सरकार स्किल्ड मैपिंग ऐप के जरिए कर रही है लेकिन उसके आंकड़े अभी तक सामने नहीं आए हैं। कोई भी अधिकारी कितने लोगों को जॉब दिया गया इसका सीधा जवाब नहीं देते हैं। मनरेगा में रोजगार की बात हर कोई करता है। सागर के अतिरिक्त बुंदेलखंड के किसी भी जिले में कोरोना की गंभीर स्थिति नहीं है। सागर में 230 से अधिक कोरोना मरीज हैं, वहीं अन्य जिलों में कहीं भी 40-50 से ज्यादा मरीजनहीं है। ज्यादातर जिलों के शहरी हिस्सों में मरीज नहीं है लेकिन प्रवासी मजदूरों के कारण गांवों में कोरोना मरीज जरूर मिल रहेहैं।



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मऊ सानिया गांव के जगतसागर मोहल्ला में बैठे प्रवासी मजदूर। (फोटो: ओ पी सोनी)


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