किसी ने कहा है ‘बस्ती बसना खेल नहीं, बसते बसते बसती है।’ आज पूरी दुनिया नए क़िस्म की परेशानी में है। ये आज़माइश का वक़्त है, लेकिन सब सही होगा। साल दो साल में हम फिर पनप जाएंगे। इंसान अपने हौसलों से इस वक़्त को भी हरा देगा। इससे पहले दुनिया में इस तरह की बीमारियां आई हैं, जिन्होंने सबको हिला दिया है।
चाहे वो स्पैनिश फ़्लू हो या प्लेग वगैरह। इस बीमारी की भी कोई वक़अत नहीं बचेगी। इंसान की फ़ितरत ऐसी है कि उसने दुनिया की बड़ी-बड़ी बीमारियों को मिटा कर रख दिया है। हम ऐसे ही कोरोना को भी शिकस्त दे देंगे। लेकिन याद रखिए कि ये वक़्त खुद को बदलने का है। हमको एहतियात बढ़ाने होंगे, सबसे पहले सफ़ाई। सिर्फ़ सरकार पर सवाल न उठाएं।
क्या हम अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं? हमारे यहां ग़रीब से ग़रीब आदमी के घर में सफ़ाई की संस्कृति है। उसका एक कमरे का घर होगा, लेकिन हर चीज़ क़ायदे से रखी होगी। लेकिन कचरा वो गली में ही फेंक देगा। मुंबई की बड़ी जगमग करती दुकानें, शीशे के दरवाज़े-खिड़कियां। अंदर रोशनी ही रोशनी। लेकिन, दुकान के सामने फुटपाथ पर कचरा पड़ा है।
ये बेहद ग़लत बात है। हमें ज़िम्मेदारी समझनी होगी। हमें देश से प्यार है, लेकिन ये जो नाली बह रही है, ये भी तो देश में ही है। आप इसका ख़्याल क्यों नहीं करते। हमारा चौराहा, नुक्कड़, गली, जो भी ज़मीन हमारे हिस्से आई है, उसे हम साफ़ रखें। जितनी सफ़ाई होगी उतनी कम बीमारी।
लोग कह रहे हैं कि बीमारी के कारण दूरी बढ़ी है, लेकिन मेरे हिसाब से फ़ासला घटा भी है। यह इस हालात का सबसे ख़ुशनुमा पहलू है। वहीं, ये मज़दूर जो लाखों की तादाद में घर जा रहे हैं, वे माइग्रेंट नहीं हैं। ये देश उनका ही है। ये जिन गांवों से गुज़रे हैं, जिन शहरों से निकले हैं, वहां आम आदमी ने सड़क पर आकर इन्हें खाना खिलाया।
यही हिंदुस्तान का दिल है, यही सच्चा हिंदुस्तान है। इंसान के दिल छोटे नहीं होने चाहिए, उसे पत्थर मत बनने दीजिए। यह देश ने इस मुश्किल घड़ी में साबित भी किया है।
युवाओं ने ग़ज़ब का काम किया है। सबसे बड़ी बात उनके अंदर सही और ग़लत की तमीज़ है। ग़रीब और आम आदमी की समझ में यह बात आ गई है कि उसकी कोई भी जाति-धर्म हो, उसे कोई नहीं बचा सकता है। अब आम आदमी का तजुर्बाये है कि बाक़ी सब बातें ठीक हैं, लेकिन पहले हमारी आर्थिक व्यवस्था ठीक होनी चाहिए।
ग़रीब की कोई गारंटी, सिक्योरिटी होनी चाहिए। बस ये समझना होगा कि जब हम इस संकट से उबरें तो पुराने ढर्रे पर न लौटें। मुझे उम्मीद है कि बड़ी तादाद में ऐसे लोग ज़रूर होंगे जो धर्म-जाति की लड़ाई छोड़कर इंसानियत, अस्पतालों और पढ़ाई-लिखाई को तवज्जाे देंगे। कोरोना ने इंसान को समझाया है कि जब बीमारी आई तो अमीर-ग़रीब सब एक लाइन में खड़े हो गए। सब पर ख़तरा बराबर है। हम सब एक कश्ती में है।
हमारा देश नहीं बल्कि पूरी दुनिया एक बड़ी कश्ती है। इस कश्ती में कहीं भी कोई छेद होगा तो वो सबको डुबोएगा। इसलिए हमें एक-दूसरे का ध्यान रखना होगा। ऐसा नहीं है कि ग़रीब को रोटी नहीं मिली, उसके सिर पर छत नहीं है तो वो अकेले परेशान है।
इस बीमारी ने तो बड़े-बड़े सेठ-साहूकारों को तकलीफ़ में डाल दिया है। ग़रीब के पास जान होती है, इसलिए उसे जान का नुक़सान है, अमीर के पास पैसा भी है तो उसे पैसों का नुक़सान हो रहा है। हमें पूरे समाज को संभालना है, सिर्फ़ अपनी सोचकर चलेंगे तो बात नहीं बनेगी।
हमें पर्यावरण और तरक़्क़ी में भी तालमेल की ज़रूरत है। अगर हम ऐसे ही पर्यावरण बिगाड़ते रहे तो फिर कोई दूसरा वायरस पैदा होगा। हक़ीक़त ये है कि दुनिया में कहीं न कहीं दो ग्रुप बन गए हैं। ये दोनों ही एक्स्ट्रीमिस्ट हैं। एक विकास की बात करता है, जो सही है। दूसरा समूह पर्यावरण की बात करता है, वो भी सही है।
लेकिन इनमें ऐसे दुश्मनी है कि ये एक-दूसरों को पूरी तरह ग़लत मानते हैं। सच्चाई कहीं बीच में है। एन्वॉयर्नमेंट की जानकारी इंजीनियरिंग कॉलेजों में पढ़ाई के वक़्त ही मिलनी चाहिए। ये चीज़ें अलग नहीं चल सकती हैं।
एक बात और देखिए कि आज सबसे अमीर मुल्क है अमेरिका। कहते हैं कि उसकी आर्मी की ताक़त अपने सबसे निकट प्रतिद्वंद्वी मुल्क से 15 गुना ज़्यादा है। ये तैयारी उनकी जंग की है। लेकिन बीमारी की क्या तैयारी है? ये आज दिखाई दे गया। उससे अच्छा तो हम कर रहे हैं। दुनिया में जो महत्व स्वास्थ्य, अस्पताल और इलाज आदि को मिलना चाहिए वो नहीं मिल रहा है।
भारत की बात करें तो दुनिया के बेहतरीन डॉक्टर, बेहतरीन अस्पताल इस मुल्क में है। लेकिन, परेशानी ये है कि इसी देश में ग़रीब आदमी के पास दवा-इलाज नहीं है। होता ये है कि जब अमीरों की परेशानी ख़त्म हो जाती है तो वो मुद्दा नहीं रहता है। अब स्वास्थ्य सिर्फ़ ग़रीब का मामला है। इसलिए इस पर ध्यान नहीं दिया जाता। उम्मीद है कि इस संकट में बाद ऐसा दोबारा न हो, इसके लिए कोशिश की जाएगी।
(जैसा शादाब समी को बताया)
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