क्या वायरस का कोई धर्म होता है? क्या महामारी की कोई विचारधारा होती है? और क्या हाइड्रोक्सिक्लोरोक्वीन जैसी मामूली दवा पर राजनीति हो सकती है? दुर्भाग्य से तीनों प्रश्नों का उत्तर ‘हां’ है। यह बताता है कि आज के हमारे समय में कितना जहर घुल चुका है। और यह भी बताता है कि इस कोरोना के खिलाफ लड़ाई में पूरी दुनिया में और अब भारत में भी इतनी अराजकता क्यों है।
जो लड़ाई संपूर्ण लॉकडाउन से शुरू हुई थी और जिसमें सभी शामिल थे, उसका हश्र सत्ता पक्ष, विपक्ष, केंद्र सरकार और गैर-भाजपा शासित राज्यों के बीच सियासी तू-तू-मैं-मैं के रूप में निकला है।
इससे भी निराशाजनक यह है कि हमारी अधिकतर सार्वजनिक बहसों का हश्र यही होता है, जबकि हमें इस संकट के बहाने अपनी दलगत भावनाओं, अंधभक्ति, नफरत, आशंकाओं या कल्पनाओं में ना उलझकर इससे निपटने पर ध्यान देना चाहिए था। हमारे देश में वायरस को बहुत पहले ही मजहब से जोड़ दिया गया, जब इसके फैलाव के लिए तबलीगी जमात वालों को जिम्मेदार ठहरा दिया गया।
इस बीच दूसरी खबरें भी आईं। महाराष्ट्र के नांदेड़ से लौटे सिख तीर्थयात्रियों द्वारा भी वायरस फैलाने की बात उठी। वायरस का किसी धर्म से लगाव नहीं होता, बेशक धार्मिक जमावड़े से जरूर होता है। लेकिन हमारे बेईमानी भरे तर्कों के लिए उसे किसी एक धर्म से जोड़ना बहुत मुफीद लगता है।
इस महामारी के बारे में लॉकडाउन से लेकर इसके इलाज-उपचार, संक्रमण और मौतों तक तमाम मुद्दों पर बहस विचारधारा के आधार पर बंटी रही है। अगर आप नरेंद्र मोदी या डोनाल्ड ट्रम्प को पसंद करते हैं, तो आप मानेंगे कि उन्होंने कुछ गलत नहीं किया। अगर आप उन्हें नापसंद करते हैं तो उन्हें लाखों की मौत का जिम्मेदार मानेंगे।
अगर आप उन्हें पसंद करते हैं तो उन महामारी विशेषज्ञों को भी पसंद करेंगे, जो कह रहे हैं कि महामारी सितंबर तक खत्म हो जाएगी। अगर आप इन लोगों को नापसंद करते हैं तो उन लोगों पर यकीन करेंगे, जो पूरी दुनिया में करोड़ों के मरने की आशंका जता रहे हैं।
करीब सात दशकों से मलेरिया से लड़ रही पुरानी, सस्ती दवा हाइड्रोक्सिक्लोरोक्वीन या एचसीक्यू के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। लेकिन ट्रम्प ने पूरी दुनिया को इस दवा की सिफ़ारिश एक ‘गेमचेंजर’ (बिना किसी वैज्ञानिक प्रमाण के) के तौर पर बताकर क्या की और मोदी ने इसे भेजना क्या शुरू किया, यह सियासी फुटबॉल बन गई। मजा यह कि इन तमाम दावों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।
इसका इतना राजनीतिकरण हो गया कि ‘द लैंसेट’ जैसा गंभीर मेडिकल जर्नल भी जाल में उलझ गया और उसने आपाधापी में इस दवा को खारिज करने वाला एक ऐसा शोध प्रकाशित कर दिया जिसे कोई सब-एडिटर भी इसलिए खारिज कर देता कि यह अस्पष्ट आंकड़ों पर आधारित है।
इस संकट पर ‘हिंदू’ अखबार का एक संपादकीय मुझे खासतौर से पसंद आया और मैं सोचने लगा कि काश मैं भी इतनी अच्छी बात लिख पाता। उसमें लिखा था, ‘कोविड के बाद दुनिया दहशत में काम करने वाली हो गई है और कोई भी संस्था, कोई भी मूल्यांकन प्रक्रिया इससे अछूती नहीं रह गई है। इसका मुख्य सबक यह है कि किसी वैज्ञानिक प्रक्रिया को सत्ता, विशेषाधिकार, पैसे और सियासत के प्रभावों से अछूता मानना एक गलती होगी।’
लेकिन क्या इन दिनों हर चीज़ का राजनीतीकरण, ध्रुवीकरण नहीं हो गया है? तो फिर महामारी इससे क्यों अछूती रहे? इस सवाल का जवाब एक सवाल ही है। अगर आपका देश (इस मामले में पूरी दुनिया) इसी बात के लिए लड़ पड़े कि दुश्मन की परिभाषा क्या है, तब सवाल है कि किससे लड़ें और किस हथियार से लड़ें?
राजनीति कभी बंद नहीं होती, लेकिन आप पक्षपात को कुछ समय के लिए टाल सकते हैं और मसले को विशेषज्ञों के भरोसे छोड़ सकते हैं। उनका उपहास उड़ाने से कुछ नहीं मिलेगा, जैसा कि नई दिल्ली में मीडिया ब्रीफिंग करने वाले कोविड टास्क फोर्स के अधिकारियों का उड़ाया जाता है। अगली बार जब उन्हें, खासकर आईसीएमआर के महानिदेशक डॉ. बलराम भार्गव को, पर्दे पर देखें तो उनकी आंखों के चारों ओर उभर आए काले धब्बों पर भी ध्यान दें। दूसरों का भी यही हाल है।
आपको समझना होगा कि इन दिनों गूढ़ बातें करना खुदकुशी करने जैसा ही है (तर्क करने वालों के लिए, स्तंभ लिखने वालों के लिए नहीं)। यह सबक मुझे मेरे पिछले स्तंभ पर मिली कुछ प्रतिक्रियाओं से फिर मिला, जिसमें मैंने बताने की कोशिश की थी कि मोदी सरकार आर्थिक सुधारों को लागू करने में पिछड़ क्यों रही है।
इसलिए इस बार मैं सावधानी बरत रहा हूं ताकि यह बवाल ना खड़ा हो कि मैं लोगों को मोदी सरकार पर कोई सवाल उठाने से रोक रहा हूं। अमित शाह समेत तमाम भाजपा नेता अगर महामारी का इस्तेमाल राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारों को गिराने की कोशिश में करते हैं तो यह अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए एक गंभीर संकट का फायदा उठाना ही माना जाएगा।
इस टकराव के चलते एक-दूसरे को काटने वाले जो काम हो रहे हैं, उसके नतीजे सामने आ रहे हैं। और फिलहाल ऐसा ही लगता है कि कोविड संकट किसी के काबू में नहीं आ रहा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
from Dainik Bhaskar https://ift.tt/2B6rJvb
https://ift.tt/30HBUkJ
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
If you have any doubt, please let me know.