शनिवार, 4 जुलाई 2020

12 दिन बाद आज फिर मंदिर में प्रवेश करेंगे भगवान जगन्नाथ, रथों को तोड़कर उनकी लकड़ियां जलाई जाएंगी मंदिर की रसोई के चूल्हों में

पुरी (उड़ीसा) में 1 जुलाई को खत्म हुई रथयात्रा के बाद अब भगवान जगन्नाथ शनिवार को मुख्य मंदिर में आएंगे। गुंडिचा मंदिर से लौटने के बाद से ही भगवान अभी तक मंदिर के बाहर ही रथ पर ही विराजित थे। शनिवार शाम 5 बजे उन्हें रथ से उतारकर मंदिर में लाया जाएगा। इसके बाद तीनों रथों को तोड़ दिया जाएगा। इनकी लकड़ियों को भगवान की रसोई में सालभर तक ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा।

रथयात्रा लौटने के बाद भी तीन दिन भगवान को मंदिर के बाहर ही रखा जाता है। यहां कई तरह की परंपराएं होती है। शनिवार शाम को भगवान को रथ से उतारकर मंदिर के भीतर रत्न सिंहासन तक लाया जाएगा। यहां भगवान जगन्नाथ और लक्ष्मी के विवाह की परंपराएं पूरी होंगी। इसके बाद फिर भगवान को गर्भगृह में स्थापित कर दिया जाएगा।

रथयात्रा मुख्य मंदिर में लौटने के बाद से यहां कर्फ्यू जैसी स्थिति थी। वैसे तो परंपरा ये है कि भगवान तीन दिन मंदिर के बाहर रहकर अलग-अलग रूपों में जनता को दर्शन देते हैं, लेकिन इस साल लॉकडाउन के कारण बिना भक्तों के सारी परंपराएं सिर्फ मंदिर समिति के सदस्यों और पुजारियों की उपस्थिति में हुईं। शनिवार को रथयात्रा की अंतिम परंपराएं पूरी की जाएंगी, इसमें भी बाहरी लोगों का प्रवेश नहीं हो सकेगा।

रथ को जब खोला जाता है तो कुछ चीजें जैसे सारथी, घोड़े और कुछ प्रतिमाएं सुरक्षित रखी जाएंगी। रथ के कुछ हिस्से कारीगर अपने साथ ले जाएंगे। इसे वे अपना मेहनताना और भगवान का आशीर्वाद मानते हैं। कुछ लोग हवन के लिए भी रथों की लकड़ियां ले जाते हैं। इस तरह शनिवार को रथयात्रा का समापन हो जाएगा।

रथों का निर्माण अक्षय तृतीया से शुरू होता है। वसंत पंचमी पर पेड़ों की कटाई शुरू होती है। करीब 150 विश्वकर्मा सेवक रथ निर्माण का काम करते हैं। इस साल रथ निर्माण 12 दिन देरी से शुरू हुआ था लेकिन समय पर पूरा हुआ।
  • 2000 से ज्यादा पेड़ों से बनता है रथ

रथ के निर्माण के लिए हर साल लगभग 2000 पेड़ों की लकड़ियां लगती हैं। जो पुरी के पास के जंगलों से ही लाई जाती है। मंदिर के पुजारी पं. श्याम महापात्रा के मुताबिक, रथ की लकड़ियां सालभर तक भगवान की रसोई में जलाई जाती हैं। कुछ लकड़िया मठों में हवन के लिए ले जाई जाएंगी। भगवान जगन्नाथ की रसोई दुनिया की सबसे बड़ी रसोई मानी जाती है, जिसमें 752 चूल्हें हैं। इसी में रोज भगवान का भोग बनता है।

  • शुक्रवार को अधरपाणा में सैंकड़ों किलो दूध-मक्खन का भोग

शुक्रवार की शाम को अधरापाणा नाम की परंपरा पूरी की गई। इसमें भगवान जगन्नाथ के साथ उनके भाई-बहन को 3-3 मटकों में दूध, माखन, घी, पनीर आदि का भोग लगाया जाता है। तीनों प्रतिमाओं के सामने 3-3 मटके रखे जाते हैं, ये मटके 3 से 4 फीट के होते हैं, जो भगवान के होंठों तक आते हैं। एक मटके में लगभग 200 किलो दूध, मक्खन आदि होता है। भगवान को भोग लगाने के बाद इन मटकों को रथ पर ही फोड़ दिया जाता है, जिससे सारा दूध-मक्खन रथ से बहकर सड़क पर आ जाता है।

भगवान जगन्नाथ को रथयात्रा लौटने के दूसरे दिन स्वर्ण आभूषण पहनाए जाते हैं। इस परंपरा को सुनाबेसा कहा जाता है। इसे देखने बड़ी संख्या में लोग आते हैं, लेकिन इस साल इस परंपरा के दौरान पुरी शहर में कर्फ्यू लगाया गया था।
  • 200 किलो सोने के गहने पहनते हैं भगवान

गुरुवार को भगवान को सोने के गहनों से सजाया गया था। इस परंपरा में करीब 200 किलो सोने के गहने भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा देवी को पहनाए गए थे। ये गहने मंदिर के परंपरागत गहने हैं, जिनकी कीमत करोड़ों में है। सालभर में एक बार ही इन गहनों का उपयोग किया जाता है। भगवान के इस स्वरूप के दर्शन करने लाखों लोग आते हैं, लेकिन इस साल ये परंपरा पुरी में कर्फ्यू लगाकर निभाई गई।



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भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा 23 जून को गुंडिचा मंदिर पहुंची थी। 1 जुलाई को यात्रा फिर मुख्य मंदिर लौटी लेकिन भगवान को तीन दिन रथ पर ही मंदिर के बाहर रखने की परंपरा है। इस दौरान पुरी के लोग दर्शन के लिए आते हैं।


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