भारत और चीन के बीच मौजूदा सीमा संकट भारत के चीन और अमेरिका के साथ संबंधों को प्रभावित कर सकता है। असर कितना होगा, यह संकट की अवधि और नतीजे पर निर्भर करेगा। यह इस पर भी निर्भर करेगा कि भारत के अमेरिका और रूस जैसे सहयोगियों का इस संकट पर क्या रुख है और वे भारत की मदद के अनुरोध पर क्या प्रतिक्रिया देते हैं।
चीन के प्रति भारत का नजरिया और नीतियां, दोनों ही सीमा संकट की वजह से सख्त हो गई हैं। सरकार ने संकेत दिए हैं कि संकट का भारत-चीन संबंधों पर ‘गंभीर असर’ होगा, खासतौर पर अगर चीनी सेना यथास्थिति पर वापस नहीं जाती है। दिल्ली ने पहले ही चीन के आर्थिक और तकनीकी हितों पर प्रतिबंध लागू कर दिए हैं।
व्यापक रणनीतिक समुदाय में यह भावना है कि बीजिंग ने सीमा समझौतों का उल्लंघन किया है और चीन से संबंधों की समीक्षा होनी चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि दिल्ली बीजिंग के साथ संपर्क या कार्य बंद कर देगा, लेकिन इस पर असर होगा कि कैसा, कितना संपर्क रखा जाए और भारत इस संपर्क से क्या उम्मीद रखेगा।
सीमा संकट भारत-अमेरिका संबंधों को भी प्रभावित कर सकता है। यह साझेदारी इसलिए भी बढ़ी क्योंकि दोनों देशों की चीन के व्यवहार और मानसिकता को लेकर साझा चिंताएं हैं। पिछले कुछ सालों में भारत-अमेरिका के डिफेंस संबंध काफी मजबूत हुए हैं। अमेरिका मामले के बढ़ने को लेकर चिंतित है और उसने चीनी हरकतों की आलोचना की है।
सेक्रेटरी ऑफ स्टेट माइकल पॉम्पिओ ने चीन पर लगातार आक्रामक होने का आरोप लगाया और कहा कि चीनी सेना ने भारत के साथ तनाव बढ़ाया है। अमेरिका में इसे लेकर भी चिंता है कि बीजिंग सिर्फ भारत में ही नहीं, हांगकांग, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जापान, ताइवान और दक्षिण चीन सागर में भी (मलेशिया, फिलीपीन्स, वियतनाम) अकड़ दिखा रहा है।
यूएस कांग्रेस के सदस्यों, डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन्स दोनों ने ही चीन की आलोचना की है। जून की शुरुआत में सदन में फॉरेन अफेयर्स कमिटी के प्रमुख एलियट एंगेल ने कहा कि वे भारत के विरुद्ध ‘चीनी आक्रमकता’ से चिंतित हैं और घोषणा की, ‘चीन फिर दिखा रहा है कि वह अंतरराष्ट्रीय कानूनों के मुताबिक मतभेदों को सुलझाने की जगह पड़ोसियों के साथ दादागीरी चाहता है।’
20 भारतीय सैनिकों के मारे जाने के बाद कांग्रेसमैन शरमैन ने चीनी सेना की हरकत को ‘सोची-समझी आक्रमकता’ बताया था। अमेरिकी सीनेट में बहुमत दल के नेता मिच मैक्कॉनेल ने कहा कि ऐसा लगता है कि इलाका हथियाने के लिए चीनी सेना ने ही 15 जून के टकराव को भड़काया था।
सहायक बयानों के अलावा ऐसा लगता है कि वाशिंगटन भारत की मदद करना चाहता है, लेकिन वह भारत-चीन मामले को और खराब नहीं करना चाहता। वह जानता है कि दिल्ली नहीं चाहेगी कि सीमा संकट अमेरिका-चीन मुकाबले में उलझे। चीनी हरकतों की आलोचना के अमेरिकी बयानों के अलावा खबर है कि अमेरिका ने भारत को अपनी इंटेलीजेंस दी है। सीमा पर सेना सी-17 ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट और चिनूक हेलिकॉप्टर्स इस्तेमाल कर रही है, जो उसने अमेरिका से लिए थे।
ऐसा हो सकता है कि यह संकट भारत को अमेरिका के और नजदीक ले आए। इसका मतलब औपचारिक गठबंधन नहीं होगा। दिल्ली ऐसा नहीं चाहती और वाशिंगटन का भी ऐसा प्रस्ताव नहीं है। लेकिन ऐसे कई तरीके हैं जिससे भारत और अमेरिका अपनी साझेदारी ज्यादा मजबूत कर सकते हैं। इससे भारतीय क्षमताएं मजबूत हो सकती हैं, चीन के बुरे बर्ताव पर रोक लगा सकते हैं और यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि बीजिंग एशिया पर धौंस न जमाए।
इस तरह भारत का अमेरिका के साथ द्विपक्षीय, त्रिपक्षीय (जापान के साथ) और चार-पक्षीय (ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ) स्तरों पर और अतंरराष्ट्रीय संगठनों में बेहतर सहयोग बनेगा। लेकिन भारत केवल अमेरिका पर निर्भर होना नहीं चाहेगा। सरकार को अमेरिकी विश्वसनीयता को लेकर अब भी कुछ चिंताएं हैं।
सवाल यह भी है कि क्या चीन के प्रति मौजूदा अमेरिकी नीतियां बदलेंगी। इसलिए दिल्ली, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और जापान जैसे देशों और दक्षिणपूर्व एशिया के इंडोनेशिया, सिंगापुर, वियतनाम जैसे देशों के साथ संबंधों को बढ़ाना जारी रखेगी।
दिल्ली रूस के साथ साझेदारी भी जारी रखेगी, भले ही रूस चीन के ज्यादा नजदीक जा रहा हो। चीन-रूस साझेदारी ही बड़ा कारण है कि मॉस्को ने भारत के खिलाफ चीन की हरकतों की अब तक आलोचना नहीं की। फिर भी रूस भारत के लिए अब भी सैन्य उपकरणों और स्पेयर पार्ट्स का बड़ा स्रोत है। वह कुछ ऐसी सैन्य तकनीकें देने को तैयार है जो अन्य देशों से नहीं मिल सकतीं।
इसके अलावा, भारत को उम्मीद है कि भविष्य में चीन-रूस की दोस्ती कमजोर होगी। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह इसलिए मॉस्को गए थे, ताकि वे यह सुनिश्चित कर सकें कि भारत को मिल रही डिफेंस सप्लाई में कोई बाधा न आए। लेकिन दिल्ली इस पर भी नजर रखेगी कि क्या मॉस्को चीन के साथ दोस्ती के कारण भारत की मदद करने के लिए कम तैयार होगा।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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