शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

भारत में 1429 लोगों पर अस्पतालों में एक बेड, 1167 लोगों के लिए एक डॉक्टर; हम अपनी जीडीपी का 1% खर्च करते हैं, अमेरिका 17%

भारत में 8 लाख कोरोना केस होने वाले हैं। महाराष्ट्र, तमिलनाडु और दिल्ली में संक्रमितों का आंकड़ा एक लाख से भी ज्यादा हो चुका है। दिल्ली के मुख्यमंत्री को यह कहते हैं कि जिन कोरोना संक्रमितों की स्थिति ज्यादा गंभीर नहीं है, उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती करने की जरूरत नहीं है। ऐसे लोगों कोघर पर ही इलाज मुहैया कराया जाएगा। ये बयान भारत के पब्लिक हेल्थ सिस्टम की हालत बताने के लिए काफी है।

इस रिपोर्ट में हम आपको भारत से पब्लिक हेल्थ सिस्टम की स्थिति, देश के हर नागरिक को बेहतर स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने के लिए हमारी जरूरत क्या है?, बीमारियों की रोकथाम में हमारी परफॉर्मेंस के बारे में बताएंगे।

रूरल हेल्थ सिस्टम में 80% सुधार के बाद भी 20% से कम लोगों को मिल रही सुविधा
केंद्र सरकार की ओर से जारी होने वाला नेशनल हेल्थ पॉलिसी ड्रॉफ्ट पिछली बार 2015 में आया था। इसके मुताबिक पांच साल में हमने अपनी ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधा को 80% ज्यादा मजबूत किया। लेकिन इतना करने के बाद भी हम 20% से कम लोगों की स्वास्थ्य सुविधा को ही कवर कर पा रहे हैं। ड्राफ्ट के मुताबिक, एनआरएचएम के पूरे ढांचे को दुरुस्त करने के लिए केंद्र सरकार से जितने बजट की जरूरत थी, केंद्र सरकार ने उसका 40% खर्च किया।

भारत में 39.1% नॉन-कम्युनिकेबल और 24.4% कम्युनिकेबल डिजीज
हमारे देश में नॉन-कम्युनिकेबल डिजीज यानी ऐसी बीमारियां जो एक से दूसरे को हो सकती हैं, कुल बीमारियों में 39.1% हैं। कम्युनिकेबल डिजीज की दर 24.4% है। मेंटल और नॉन-मेंटल बीमारियों की दर 13.8% है। ड्राफ्ट में सरकार ने माना है कि राष्ट्रीय स्तर पर नॉन-कम्युनिकेबल बीमारियों के रोकथाम के लिए हमारी व्यवस्था बहुत छोटी है।

दुनियाभर के टीबी के मरीजों का एक-चौथाई भारत में
2001 में देश की कुल बीमारियों में एचआईवी (HIV) का औसत 0.41% था, 2011 में ये घटकर 0.27% हो गया। इसके बावजूद 2011 में एचआईवी के 21 लाख मामले थे। इनमें 1.48 लाख नए मामले 2011 में आए। भारत में 1 लाख लोगों पर 219 लोगों को टीबी है। एक लाख लोगों में 19 की मौत टीबी के चलते होती है। दुनियाभर में टीबी के 24% मरीज भारत से होते हैं।

90% गर्भवती महिलाओं की डिलीवरी से पहले सिर्फ एक बार जांच होती है
WHO के मुताबिक, सभी गर्भवती महिलाओं के लिए डिलीवरी से पहले कम-से-कम तीन बार जांच जरूरी है। लेकिन, भारत में 2015 तक 90% गर्भवती महिलाओं की डिलीवरी से पहले केवल एक जांच हो पाती थी। 13% को टिटनेस का टीका भी नहीं लग पाता। 79% को जरूरी एएफए टैबलेट नहीं मिलती। 12 से 33 महीने के बच्चों में से 39% का पूरा टीकाकरण नहीं हो पाता। जर्नल ऑफ कम्युनिटी हेल्थ के मुताबिक, अभी भी गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चों की देख-रेख में पिछले 15 सालों से बड़ा बदलाव नहीं आया है।

स्वास्थ्य पर जितना खर्च करना जरूरी हम उसका आधा भी नहीं करते
नेशनल हेल्थ अकाउंट एस्टीमेट 2015-16 के मुताबिक, भारत की सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था पर गवर्नमेंट हेल्थ एक्सपेंडिचर (GHE) 1,62,863 करोड़ है, जो कि जरूरी खर्च का महज 30% है। पिछले 15 साल से हम इतना ही खर्च करते आए हैं।2004 में केंद्र सरकार ने स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाने का वादा दिया।

सरकार ने पांच साल में इसे GDP का 2-3% करने का दावा किया लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 2017 में एक बार फिर नेशनल हेल्थ पॉलिसी में सरकार ने 2025 तक वह स्वास्थ्य पर हो रहे खर्चे को जीडीपी 2.5% करने की बात कही है। लेकिन, पिछले 15 साल से भारत पब्लिक हेल्थ पर अपने जीडीपी का औसतन 1% खर्च कर रहा है।

ये हर नागरिक पर स्वास्थ्य पर किया जाने वाले खर्च के हिसाब से श्रीलंका और इंडोनेशिया से भी कम है। भारत दुनिया के उन देशों में से एक है, जो पब्लिक हेल्थ पर सबसे कम खर्च करते हैं।

सोर्स - नेशनल हेल्थ पॉलिसी ड्राफ्ट 2015

WHO की हेल्थ फाइनेंसिंग प्रोफाइल 2017 के मुताबिक, भारत के लोग अपने कुल खर्च का दो-तिहाई हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं। दुनिया के लोगों का औसत 18.2% है। 63% भारतीय हर साल इसके चलते गरीबी का सामना करते हैं। विश्व बैंक के मुताबिक, भारत के अस्पतालों में 1429 लोगों पर एक बेड, देश में 1167 लोगों के लिए एक डॉक्टर है। भारत में हर चार में एक आदमी पर नॉन-कम्युनिकेबल डिजीज से मरने का खतरा रहता है।

(यह रिपोर्ट नेशनल हेल्थ पॉलिसी ड्राफ्ट 2015,नेशनल हेल्थ अकाउंट 2015-16,नेशनल हेल्थ पॉलिसी 2017,विश्व स्वास्थ्य संघटन के हेल्थ फाइनेंसिंग प्रोफाइल2017और विश्व बैंक के फाइंडिंग के आधार पर तैयार की गई है।)



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