रविवार, 5 जुलाई 2020

एलओसी पर भारत-पाकिस्तान की पोजिशन साफ है, लेकिन एलएसी पर 23 इलाकों में भारत-चीन के अलग-अलग दावे हैं, इन्हीं इलाकों में आमने-सामने आ जाती हैं दोनों सेनाएं

भारत की जमीनी सीमा करीब 15 हजार किमी है और यह 6 देशों से लगती है। इनमें से पाकिस्तान और चीन ही हैं, जिनसे हमारा हमेशा से सीमा विवाद रहा है। पाकिस्तान के साथ जो अनसुलझी सीमा का हिस्सा है, उसे लाइन ऑफ कंट्रोल (एलओसी) कहा जाता है और चीन के साथ जहां सीमा विवाद है, उसे लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) कहते हैं। एलएसी की लंबाई करीब 3500 किमी है।

क्या है एरिया ऑफ डिफरिंग परसेप्शन?

भारत-पाकिस्तान के बीच एलओसी की स्थिति पूरी तरह स्पष्ट है। यहां दोनों देशों के साइन, तारों की फैंसिंग और पोजिशन साफ-साफ देखे जा सकते हैं। जबकि चीन के साथ लगी एलएसी पर कई जगह न तो तारों की फैंसिंग है और न ही किसी तरह का साइन। ऐसी ही कुछ जगहों पर दोनों देशों के अपने-अपने दावे हैं। दोनों ही देशों ने इस तरह की 23 जगहों को चिन्हित कर रखा है। इन्हें एरिया ऑफ डिफरिंग परसेप्शन (एडीपी) कहा जाता है।

कहां-कहां हैं एरिया ऑफ डिफरिंग परसेप्शन?

एलएसी से सटे पश्चिमी लद्दाख, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के मध्य हिस्से, सिक्किम और पूर्वी अरुणाचल में 23 इलाके एरिया ऑफ डिफरिंग परसेप्शन में आते हैं। इन इलाकों में दोनों ही देश एक-दूसरे की सेनाओं को अपने-अपने दावे वाली सीमा पर पेट्रोलिंग करने की इजाजत देते रहे हैं। पिछले दशक में जब भी यहां दोनों ओर की सेनाएं पेट्रोलिंग के दौरान आमने-सामने आई तो तनाव बढ़ा है। कभी-कभी ये घटनाएं धक्का-मुक्की तक सीमित रहीं तो कभी-कभी यह मुक्केबाजी तक भी पहुंची हैं।

छोटी-बड़ी झड़प के बाद एलएसी पर हालात सामान्य कैसे हो जाते हैं?

एलएसी पर कई बार छोटी-बड़ी झड़पें हुईं, लंबे दिनों तक तनाव रहा। लेकिन दोनों ही देश स्थिति को फिर से पूरी तरह नियंत्रण में लाते रहे हैं। यही कारण रहा है कि सीमा पर मुक्केबाजी तो हो जाती है लेकिन करीब 50 सालों से यहां गोली नहीं चली।

तनाव को कम करने के लिए दोनों ही देशों ने आपसी रजामंदी से सिस्टम और प्रोटोकॉल तय किए हैं और यह अब तक कारगर साबित हुएहैं। इसके तहत बॉर्डर पर तैनात दोनों ओर के अधिकारियों की बातचीत का दौर चलता है। इनमें कर्नल लेवल के कमांडिंग ऑफिसर या ब्रिगेड कमांडर लेवल के अधिकारी शामिल होते हैं।

कभी-कभी मेजर जनरल स्तर की मीटिंग भी होती है। इसके बाद राजनयिक स्तर पर बातचीत की प्रक्रिया भी होती है। मिलिट्री लेवल से लेकर राजनयिक स्तर पर सालभर होने वाली इन मीटिंग्स के जरिए सीमा पर उठने वाले मुद्दों का समाधान होता रहता है।

एलएसी पर शांति के लिए कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स कितने मददगार?

दोनों ही आर्मी एलएसी पर पेट्रोलिंग के दौरान पहले से तय कुछ उपायों का पालन करतीहैं। इन्हें कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स (सीबीएमएस) कहा जाता है। अलग-अलग दावों वाले 23 इलाकों में इनका खास तौर पर ध्यान रखा जाता है।

उदाहरण के तौर पर दोनों ओर के सैनिक पेट्रोलिंग के दौरान हथियार तो रख सकते हैं लेकिन इन्हें इस तरह से पीठ के पीछे लटकाया जाता है, जिससे कि दूसरी ओर खड़े सैनिकों को खतरा महसूस न हो। दोनों ही देश की आर्मी युद्ध वाली पोजिशन नहीं बना सकती, न ही इन इलाकों में किसी तरह का निर्माण कार्य कर सकती है। इन कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स के कारण ही 1967 के बाद भारत-चीन सीमा पर गोली नहीं चली है।

गलवान घाटी एरिया ऑफ डिफरिंग परसेप्शन में नहीं, फिर भी यहां झड़प क्यों हुई?

लद्दाख की 857 किमी लंबी बॉर्डर में से 368 किमी का हिस्सा अंतरराष्ट्रीय बॉर्डर है। बाकी बची 489 किमी लंबी सीमा एलएसी है। इस बार गर्मी में लद्दाख के तीन अलग-अलग इलाकों में भारतीय और चीनी सैनिकों की पेट्रोलिंग के दौरान कभी छोटी तो कभी बड़ी झड़प हुई। ये तीन इलाके थे- पैंगॉन्ग त्सो (फिंगर एरिया), हॉट स्प्रिंग्स और गलवान घाटी।

गलवान घाटी उन 23 इलाकों में शामिल नहीं है, जिन्हें दोनों ही देशों ने अलग-अलग मत वाली जगह के नाम पर चिन्हित कर रखा है। यानी यह इलाका दोनों ही देशों की रजामंदी के साथ भारत का हिस्सा माना जाता रहा है। इसके बावजूद गलवान में चीनी सैनिक घुसे और भारत द्वारा बनाई जा रही सड़क पर आपत्ति उठाने लगे।

6 जून को तनाव कम करने पर रजामंदी हुई, फिर 15 जून को खूनी झड़प का क्या कारण रहा?
6 जून को हुई लेफ्टिनेंट जनरल स्तर की मीटिंग के दौरान लद्दाख के इन तीनों इलाकों में तनाव कम करने पर रजामंदी हो गई थी। इसके तहत स्टेप बाय स्टेप धीरे-धीरे दोनों सेनाओं के पीछे हटने से लेकर हर तरह से तनाव कम किया जाना था। यह प्रक्रिया काफी लंबी चलती है। इस प्रक्रिया की प्रोग्रेस जांचने के दौरान ही 15 जून की रात को झड़प खूनी हो गई और दोनों ओर से कई सैनिक मारे गए।

गलवान में अब क्या स्थिति है?

मिलिट्री लेवल पर 2 राउंड की बातचीत हुई है और दोनों ही आर्मी तनाव कम करने के लिए अपनी पुरानी पॉजिशन पर लौटने को राजी हो चुकी हैं। अब क्योंकि यह एक स्टेप बाय स्टेप और धीरे-धीरे चलने वाली प्रक्रिया है तो बस यह ध्यान रखने की जरूरत है कि इस दौरान इसी प्रक्रिया के दौरान कोई नया विवाद शुरू न हो जाए।

भारतीय सेना कितनी तैयार?

भारतीय सेना पहाड़ियों पर लड़ने के लिए पूरी तरह से प्रशिक्षित, अनुभवी और आत्मविश्वास से भरी हुई है। सेना पूरी तरह तैयार है और अपनी सीमाओं की रक्षा करने में सक्षम भी है। आर्मी हमेशा बुरे से बुरी स्थिति से निपटने के लिए अपनी योजना बनाकर रखती है, जबकि उसकी उम्मीद सबसे बेहतर स्थिति की होती हैं।

हालांकि, कुछ और भी फैक्टर हैं जिनका खयाल रखा जाना बेहद जरूरी होता है। जैसे- अगर झड़प होती है तो इसके एक बड़े ऑपरेशन में बदलने की आशंका रहेगी। और फिर यह सिर्फ इस इलाके तक ही सीमित नहीं रहेगी, इसका दायरा बढ़ सकता है। ऐसे में हाई लेवल मीटिंग में ही यह तय होगा कि देश हित में सेना किस रेंज तक काएक्शन ले सकती है।

मोदी के लेह जाकर जवानों से मिलने का क्या असर होगा?

प्रधानमंत्री मोदी का लद्दाख जाना सिर्फ सेना के लिए नहीं बल्कि पूरे देश का हौसला बढ़ाने वाला कदम है। फील्ड में जाकर जवानों से मिलने से पीएम को ऑपरेशन और सैनिकों के मनोबल का सीधा फीडबैड मिला है। इसके अलावा ये दुनिया और चीन को मजबूत जवाब है।

सरहद तक जानेवाली सड़कों को सुधारने और हथियार-लड़ाकू विमान की खरीद की उनकी इच्छाशक्ति बेहद अहम है। इस सबके बीच जो सबसे ज्यादा कड़ा संदेश है वो ये कि भारत शांति से ये मसला सुलझाना चाहता है लेकिन हमारी जमीन को खतरा होता है तो हम उसे और देशहित को बचाने को कुछ भी करेंगे।



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