कटरा में लोग पीढ़ियों से घोड़ा-खच्चर चलाने का काम कर रहे हैं। कई यही काम करते-करते होटलों और रेस्टोरेंट के मालिक बन गए। कुछ अब भी यही कर रहे हैं। इन लोगों के लिए घोड़ा-खच्चर सिर्फ कमाई का जरिया नहीं हैं, बल्कि परिवार का हिस्सा हैं। इनका जीवन इन्हीं से चलता है। इन्हें चौबीसों घंटे आंखों के सामने ही रखते हैं। घर में जिस तरह बच्चों के लिए एक कमरा होता है, उसी तरह ये लोग अपने घोड़े-खच्चर के लिए एक कमरा या बाड़ा रखते हैं। घोड़े के मर जाने पर ऐसे शोक मनाते हैं, जैसे इंसानों के न रहने पर मनाया जाता है।
लॉकडाउन में कटरा में करीब 15 घोड़ों और खच्चरों की भूख के चलते मौत हो गई। 18 मार्च से यात्रा बंद होने के बाद से ही इन लोगों का कामधंधा भी बंद हो गया था। एक घोड़े-खच्चर की डाइट पर एक दिन में 400 से 500 रुपए खर्च होते हैं। इन्हें चना और फल खिलाए जाते हैं। लेकिन, लॉकडाउन में मालिक अपने जानवरों को यह डाइट दे नहीं पाए, क्योंकि उनके तो खुद ही खाने-पीने के लाले पड़ गए थे। इसी के चलते अप्रैल से जुलाई के बीच में एक-एक करके करीब 15 घोड़े-खच्चर मारे गए। जानवरों के इस तरह मारे जाने का मामला हाईकोर्ट तक पहुंचा। इसके बाद प्रशासन और श्राइन बोर्ड हरकत में आए और जानवरों के लिए डाइट दी गई। हालांकि, पिछले 6 माह में दो बार ही बोर्ड से यह मदद इन लोगों को मिल पाई।
माता के ट्रैक पर 20 सालों से घोड़ा चला रहे अजय कुमार का घोड़ा भूख के चलते अप्रैल में मर गया। उनके पास एक ही घोड़ा था। कहते हैं, हमारे लिए तो ये बच्चों की तरह होते हैं, क्योंकि हमारा जीवन इन से ही चलता है। हम बाड़ा ऐसी जगह बनाते हैं, जहां से चौबीसों घंटे हमारा घोड़ा हमें दिखे। जब उसे प्यास लगे तब तुरंत पानी दे पाएं। बहुत से लोग कमरे में घोड़ा रखते हैं। मेरा घोड़ा मर गया, अभी तक कुछ मदद तो मिली नहीं। अब नया घोड़ा खरीदने की हैसियत भी नहीं है। इसलिए किराये का घोड़ा चलाऊंगा। हम पीढ़ियों से यही काम करते आ रहे हैं। कटरा के ही मांगीराम का घोड़ा भी लॉकडाउन में मर गया। उनके पास भी अब नया घोड़ा खरीदने के पैसे नहीं हैं और वो भी बेरोजगार हो गए हैं।
2015 के पहले 16-17 हजार घोड़े-खच्चर ट्रैक पर दौड़ते थे। इनसे गंदगी भी फैलती थी। इसी का मुद्दा बन गया और इसके बाद प्रशासन ने घोड़े-खच्चर की लिमिट 4500 तय कर दी। अब इससे ज्यादा घोड़े-खच्चर ट्रैक पर नहीं दौड़ सकते। अभी जो घोड़े-खच्चर ट्रैक पर दौड़ रहे हैं, उनका एक तरफ का किराया 1100 रुपए तय किया गया है। यह नीचे से भवन तक का है। इस तरह एक घोड़ा-खच्चर संचालक 30 से 40 हजार रुपए महीना कमा लेता है। इसमें से करीब 10 हजार रुपए घोड़े की डाइट पर खर्च हो जाते हैं। कटरा वार्ड नंबर 9 के काउंसलर वीके राय कहते हैं कि अभी तो इन लोगों के हालात ऐसे हैं कि कोई एक किलो आटा भी दे तो यह भागकर आटा लेने चले जाते हैं, क्योंकि श्राइन बोर्ड की तरफ से एक ही बार राशन दिया गया।
घोड़ा-खच्चर एसोसिएशन के मेंबर सोहन चंद ने बताया कि घोड़े-खच्चर वालों का पूरा परिवार ही ट्रैक से कमाई करता है। इनके बच्चे माता रानी के सिक्के और पट्टी बेचते हैं। बुजुर्ग ट्रैक पर ढोल बजाते हैं। कुछ लोग पिट्टू का काम करते हैं। कुछ पालकी उठाते हैं। यह एक पूरी कम्युनिटी है, जो ट्रैक पर ही निर्भर है। यात्रा बंद होने से ये सब बेरोजगार हैं। घोड़ा चलाने वाले कालिदास के मुताबिक, श्राइन बोर्ड ने दस किलो आटा, एक लीटर तेल, एक किलो दाल दी थी। एक किलो दाल को पंद्रह दिन पानी डाल-डालकर चलाया। बोले, सोनू ठाकुर ने हम लोगों की मदद नहीं की होती तो भूखे मर जाते। उन्होंने चार माह तक हमें मुफ्त राशन दिया।
कालीदास करीब 35 सालों से मां के दरबार में घोड़ा चलाने का काम कर रहे हैं। अब बुजुर्ग हो गए हैं इसलिए अर्ध कुमारी तक ही जाते हैं। वरना पहले भवन तक जाया करते थे। कहते हैं कि घोड़ों पर ही हर महीने 10 से 12 हजार रुपए खर्च हो जाते हैं। जब से काम बंद हुआ है, तब से तो उन्हें खिलाने की ही बड़ी दिक्कत हो गई है। कुछ लोगों से मदद मिली। उन्होंने हमारे और जानवरों के लिए खाने को दिया। लेकिन, अब झूठी अफवाहें फैलाई जा रही हैं ताकि हमें राशन मिलना बंद हो जाए। ऐसा कहा जा रहा है कि हमारे घरों में राशन भरा पड़ा है। यदि सच देखना है तो एक बार हमारे घर में आएं, तब पता चलेंगे हमारे हालात।
आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
from Dainik Bhaskar https://ift.tt/2Eej5MA
https://ift.tt/315TJty
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
If you have any doubt, please let me know.