जिंदगी और मौत के बीच जूझ रही रसीना खातून की आपबीती बिहार के पूरे ग्रामीण समाज की ही कहानी है। उनके परिवार के सभी मर्द रोजगार के लिए पलायन करने को मजबूर हैं। गांव में उनके साथ रहने वालों में सिर्फ उनकी अधेड़ सास और अविवाहित ननद ही हैं।
सुपौल जिले की सोहटा पंचायत में रहने वाली 19 साल की रसीना तीन महीने पहले ही मां बनी हैं। इस मौके पर उनके पति मोहम्मद इजहार भी गांव लौटे जो दिल्ली की एक फर्नीचर मार्केट में मजदूरी करते हैं। घर आए काफी समय हो चुका था, लिहाजा इजहार को अब वापस काम पर लौटना था।
रसीना चाहती थी कि इजहार उन्हें भी इस बार अपने साथ दिल्ली ले चलें। लेकिन, दिल्ली में दस बाई दस के कमरे में तीन अन्य मजदूरों के साथ रहने वाले इजहार के लिए ऐसा करना मुमकिन नहीं था लिहाजा वो इसके लिए तैयार नहीं हुए।
इजहार को बीते रविवार लौटना था तो इससे एक दिन पहले वो कुछ जरूरी काम निपटाने ब्लॉक मुख्यालय गये हुए थे। घर लौटने पर उन्होंने पाया कि उनका तीन महीने का बेटा लगातार बिलख रहा है और रसीना न तो दरवाजा खोल रही हैं, न ही कोई जवाब दे रही हैं।
दरवाजा तोड़ा गया तो इजहार के पैरों तले जमीन खिसक गई। रसीना जमीन पर बेहोश पड़ी थी, उनके मुंह से झाग निकल रहा था और कमरे में बिखरी ‘बारूद’ नाम के कीटनाशक की तेज गंध बता रही थी कि रसीना ने वही पीकर आत्महत्या की कोशिश की है।
मोहम्मद इजहार कहते हैं, ‘उसे जहर पिए लगभग दो घंटे हो चुके थे। उसकी आंख की पुतलियां भी स्थिर हो गई थी। सरकारी अस्पताल जाने का कोई फायदा नहीं था क्योंकि वहां इस तरह के मामले देखने वाला कोई नहीं है। जिला अस्पताल जाते तो वहां तक पहुंचते-पहुंचते ही ये दम तोड़ देती। इसलिए हम सीधा ही उसे लेकर इकबाल भैया के पास आ गए। भैया ने ही जहर उतारा है।’
इकबाल आलम सुपौल जिले की रामपुर पंचायत में रहते हैं। इस पूरे इलाके में वो डॉक्टर इकबाल के नाम से मशहूर हैं। हालांकि, इकबाल के पास डॉक्टर की कोई डिग्री नहीं है। बल्कि वे सिर्फ 12वीं तक ही पढ़े हैं और असल में झोलाछाप डॉक्टरों की उसी जमात में शामिल हैं जिनके कंधों पर बिहार की पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था टिकी हुई है।
इकबाल आलम बताते हैं, ‘मैं बीते 15 सालों में करीब आठ सौ जहर के मामलों को देख चुका हूं, जिनमें से सिर्फ तीन या चार मामलों में ही मरीज की मौत हुई है। बाकी सभी मामले ठीक हो गए। मेरे पास 50-60 किलोमीटर दूर से भी इस तरह के मामले आते हैं।’
अपने डॉक्टर बनने के बारे में वे बताते हैं कि उनसे पहले उनके पिता ये काम किया करते थे। यानी उनके पिता भी झोलाछाप डॉक्टर थे जिन्होंने कुछ साल किसी एमबीबीएस के साथ बतौर कंपाउंडर काम करने के बाद अपनी ही डॉक्टर की दुकान शुरू कर दी थी।
इकबाल कहते हैं, ‘मैं जब 12वीं में पढ़ता था तब से ही एक डॉक्टर के साथ काम करने लगा था। पिता को देखते हुए मुझे इंजेक्शन लगाना और ग्लूकोस चढ़ाना तो छोटे से ही आता था। मैंने करीब पांच साल एमबीबीएस डॉक्टर के साथ काम किया और फिर गांव आकर अपना काम करने लगा। कई बार तो सरकारी अस्पताल वाले भी मुझे मदद के लिए अपने यहां बुलाते हैं।’
जहर के मामलों में वो मरीज का इलाज कैसे करते हैं? इस सवाल पर वो कहते हैं, ‘मरीज को देखकर ही अंदाजा हो जाता है कि वो किस स्थिति में है। सबसे पहले उसका जहर निकालने के लिए उसकी आंतों की सफाई करते हैं। इसके लिए हम सक्शन करते हैं। यानी एक पाइप मरीज की आंतों तक डालते हैं, उसमें पानी भरते हैं और उसके साथ फिर आंतों में मौजूद जहर बाहर खींच लेते हैं। उसके बाद मरीज को स्थिति के हिसाब के ग्लूकोस लगाते हैं फिर दवा या इंजेक्शन देते हैं।’
जो प्रोसेस इकबाल बता रहे हैं कि वह कानून किसी डॉक्टर और विशेषज्ञ की गैर-मौजूदगी में नहीं की जा सकती। ये करना अपराध भी है और मरीज की जान से खिलवाड़ भी। इसमें थोड़ी भी चूक होने पर मरीज की मौत हो सकती है। इकबाल खुद भी इस बात को समझते हैं।
वो कहते हैं, ‘ये प्रोसेस खतरनाक तो है लेकिन अब हमें इसका काफी अनुभव हो गया है। जिन मामलों में हमें लगता है कि हमसे नहीं होगा उन्हें हम पहले ही माना कर देते हैं। बाकी चूक तो एमबीबीएस डॉक्टर से भी हो सकती है।’
इकबाल आलम ऐसे अकेले व्यक्ति नहीं हैं जो बिना किसी डिग्री या पढ़ाई के ‘डॉक्टर’ बन गए हैं। बिहार के ग्रामीण इलाकों में ऐसे लाखों ‘डॉक्टर’ हैं और गांवों में स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह से ऐसे ही लोगों के भरोसे चल रही है।
बिहार झोलाछाप डॉक्टरों पर किस हद तक निर्भर है इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि कोरोना के बढ़ते मामलों के बीच सिवान जिले के सिविल सर्जन ने सभी जन स्वास्थ्य केंद्रों को सरकारी आदेश जारी करते हुए झोलाछाप डॉक्टरों की मदद लेने के लिए लिखा था। इस आदेश में बाकायदा ‘झोलाछाप चिकित्सक’ शब्द का इस्तेमाल किया गया था।
इन झोलाछाप डॉक्टरों में कई तरह के लोग शामिल हैं। एक वो हैं जिन्होंने कुछ समय किसी एमबीबीएस के साथ कंपाउंडर का काम किया और फिर अपनी ही दुकान खोल ली, कुछ वो हैं जो दूसरी पीढ़ी के झोलाछाप हैं और कुछ वो भी हैं जो किसी झोलाछाप के कंपाउंडर रहने के बाद ख़ुद झोलाछाप डॉक्टर बन गए।
सिर्फ डॉक्टर ही नहीं बल्कि गावों में अब पूरा स्वास्थ्य महकमा ही झोलाछाप बन चुका है। इनमें केमिस्ट से लेकर पैथोलॉजी और रेडियोलॉजी तक सभी काम शामिल हैं। झोलाछाप डॉक्टर दवाई लिखकर खुद तो गैर-कानूनी काम कर ही रहे हैं साथ ही अब उन्होंने अपनी केमिस्ट की दुकानें, पैथोलॉजी लैब और रेडियोलॉजी केंद्र भी खोल लिए हैं।
(झोलाछाप डॉक्टरों का ये व्यापार कैसे फल-फूल रहा है, कैसे इसी के भरोसे बिहार की ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था चल रही है और क्या ये इन चुनावों में एक अहम मुद्दा होगा? इस बारे में पढ़िए झोलाछाप डॉक्टरों पर इस विशेष रिपोर्ट की अगली कड़ी में।)
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