शनिवार, 27 जून 2020

भारत और नेपाल के बीच समस्या भले ही चीन ने न खड़ी की हो लेकिन वह नेपाल को उकसा सकता है

चीन के साथ टकराव के बाद स्वाभाविक है कि भारत का फोकस लद्दाख पर है, जहां गतिरोध अभी जारी है। लेकिन भारत को इस बारे में भी चिंता करनी चाहिए कि नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव समेत अन्य पड़ोसी देशों में भी चीन का प्रभाव बढ़ रहा है।

यह वह क्षेत्र है जहां भारत के खास हित हैं और उसे चीन पर निगाह रखनी होगी। लेकिन भारत को अपनी ‘पड़ोसी पहले’ नीति पर ज्यादा ध्यान देते हुए मजबूत आर्थिक संबंधों और संपर्कों पर ध्यान केंद्रित करना होगा।
कई विश्लेषकों ने भारत-नेपाल के बीच समस्या पैदा करने का दोष चीन को दिया। मई की शुरुआत में भारत के रक्षामंत्री द्वारा उत्तराखंड के कालापानी इलाके में कैलाश पर्वत को जाने वाली सड़क बनाने की घोषणा के बाद से काठमांडू में प्रधानमंत्री के.पी. ओली के नेतृत्व वाली सरकार भारत के प्रति आलोचनात्मक है।

इसकी प्रतिक्रिया में भारत के सेनाध्यक्ष ने कहा कि नेपाल ने चीन के ‘इशारों’ पर सीमा मुद्दा उठाया है। यह कहना गलत है कि चीन ने समस्या खड़ी की, जो पहले ही कई दशकों से थी। लेकिन यह संभव है कि चीन ने नेपाल को उकसाया हो। 2017-18 के दौरान भूटान, मालदीव और श्रीलंका में हुए सकंट बताते हैं कि चीन को भारत और उसके पड़ोसियों के बीच तनाव बढ़ाना अच्छा लगता है।
इस क्षेत्र में चीन का राजनीतिक प्रभाव भी बढ़ा है। इसमें चीन के एक-पार्टी तंत्र की झलक दिखती है जो लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान नहीं करता। उदाहरण के लिए नेपाल में चीन ने विभिन्न गुटों के बीच मध्यस्थता कर दखल दिया ताकि प्रधानमंत्री ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल सत्ता में बनी रहे।

काठमांडू में चीनी दूतावास ने नेपाली अखबारों पर तिब्बत और हांगकांग पर आलोचनात्मक रिपोर्टिंग न करने का दबाव बनाया। भारत भी अक्सर नेपाल में दखल देता रहा है, लेकिन इसे हमेशा लोकतांत्रिक नेपाल के हित में देखा गया। पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने 2006 में जोर दिया कि ‘नेपाल में स्थिरता भारत के हित में है और नेपाल में लोकतंत्र ही ऐसी स्थिरता की गांरटी है।’

इसका मतलब है कि नेपाल जितना लोकतांत्रिक होगा, तराई क्षेत्र के मधेसियों और अन्य अल्पसंख्यकों की स्थिति उतनी बेहतर होगी। यह चिंताजनक है कि नेपाल संसद किसी भी सांसद के हिन्दी में बात करने पर रोक लगाने पर विचार कर रही है।
कुछ विश्लेषक भारत-नेपाल के बीच समस्याओं को मोदी की ‘पड़ोसी पहले’ नीति की विफलता मान रहे हैं। यह गलत है। भारत के लिए नेपाल और अन्य छोटे पड़ोसियों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखना कभी आसान नहीं रहा है क्योंकि भारत कुछ भी कहे या करे, ये असुरक्षित ही महसूस करते हैं।

भारत के बेहतरीन रणनीतिक चिंतक और मौजूदा विदेश मंत्री एस. जयशंकर के पिता स्वर्गीय के. सुब्रमण्यम ने चेताया था कि भारत को ऐसी भावनाओं से परेशान नहीं होना चाहिए। उन्होंने 1981 में कहा कि ‘किसी भी बड़े देश को उसके पड़ोसी प्यार नहीं करते, बल्कि डरते हैं और कभी-कभी सम्मान भी करते हैं।’

उन्होंने यह भी कहा था कि भारत को ‘छोटे देश के लक्षण’ नहीं दिखाने चाहिए क्योंकि ‘एक हाथी, खरगोश या हिरण की तरह व्यवहार करेगा तो उसे उस तरह स्वीकार नहीं किया जाएगा।’ इसका मतलब यह नहीं है कि हाथी हमेशा आक्रामक रहे। उसे कोई नहीं सहेगा।
हाल के वर्षों में भारत का नेपाल के प्रति यही दृष्टिकोण रहा है। अपनी 2018 की नेपाल यात्रा के दौरान मोदी ने कहा था कि भारत नेपाल का शेरपा बनेगा और सफलता की ऊंचाइयों पर ले जाएगा। नेपाली यही सुनना चाहते हैं, भारतीय ‘सेवा कूटनीति’ जो उसके हितों का समर्थन करे।

अगर भारत आक्रामक रुख अपनाता है तो नेपाली केवल चीन को ही गले लगाएंगे। इसलिए भारत के लिए जरूरी है कि वह नेपाल को बेहतर और तेजी से समर्थन देने पर ध्यान दे। कई उदाहरण सकारात्मक भारतीय दृष्टिकोण को दर्शाते हैं।
अब उत्तर भारत और नेपाल के बीच नई रेलवे और रोड लिंक्स हैं। एक इलेक्ट्रॉनिक कार्गो सिस्टम है, जिससे नेपाली व्यापार के लिए भारतीय पोर्ट हलदिया और विजाग से परिवहन आसान हुआ है। भारत और नेपाल अब नदियों के जरिए व्यापार बढ़ाने की योजना बना रहे हैं। भारत ने इलाके में पहली सीमापार तेल पाइपालाइन का काम भी पूरा कर लिया है, जो बिहार के मोतीहारी को नेपाल के अमलेखगंज से जोड़ती है।
अगर भारत सीमापार संपर्कों की सफलताएं जारी रखता है, अर्थव्यवस्था, इंफ्रास्ट्रक्चर और तकनीक पर ध्यान देता है तो भारत और नेपाल के बीच के खास रिश्ते को चीन नुकसान नहीं पहुंचा पाएगा। भारत की पड़ोसी पहले की नीति में हमें राजनीति कम और अर्थशास्त्र ज्यादा देखना होगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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डॉ. कॉन्सटैनटिनो ज़ेवियर, फॉरेन पॉलिसी स्टडीज में रिसर्च फेलो, ब्रूकिंग्स इंडिया


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