रविवार, 26 जुलाई 2020

यूरोप के प्रदूषण से हिमालय में सितंबर में होने वाला हिमपात जनवरी से मार्च तक पहुंचा, विंटर लाइन भी 50 मीटर खिसकी

यूरोपीय देशों का प्रदूषण हजारों किलोमीटर दूर हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं की सेहत बिगाड़ रहा है। शोध में सामने आया है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते हिमालय में सितंबर से दिसंबर तक होने वाला हिमपात शिफ्ट होकर जनवरी से मध्य मार्च तक चला गया है, जिसके कारण जनवरी से मध्य मार्च तक पड़ी बर्फ अप्रैल और मई में गर्मी आते ही पिघल रही है।

वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी का शोध बताता है कि इस प्रदूषण से उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर, हिमाचल, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में विंटर लाइन (हिम-रेखा) लगभग चालीस से पचास मीटर तक पीछे चली गई है। कई वनस्पतियां और सेब की प्रजातियां गोल्डन डिलीशियस और रेड डिलीशियस भी खत्म होने के कगार पर है। वैज्ञानिक अब इस मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध दर्ज कराने की तैयारी कर रहे हैं।

सितंबर में शुरू हो जाता था हिमपात

डॉ. डीपी डोभाल कहते हैं पहले हिमालय की पहाड़ियों में हिमपात सितंबर से ही शुरू हो जाता था। सितंबर और अक्टूबर में गिरी बर्फ मार्च तक ठोस हो जाती थी। नवंबर से फरवरी के बीच भी हिमपात होता था। ऐसे में, बर्फ की चादर की मोटाई काफी ज्यादा हो जाती थी। लेकिन अब सितंबर से दिसंबर तक होने वाला हिमपात जनवरी से मार्च में शिफ्ट हो गया है।

ऐसे में जो बर्फ गिरती भी है, उसे ठोस बनने का समय नहीं मिलता, क्योंकि मार्च के बाद गर्मी आ जाती है। स्नोलाइन पीछे खिसकने का मुख्य कारण भी यही है। वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ पीएस नेगी बताते हैं कि इस समय हिमालय में दो तरह का प्रदूषण बायोमास प्रदूषण (कार्बन डाइऑक्साइड) और तत्व आधारित प्रदूषण पहुंच रहा है। ये दोनों ही ब्लैक कार्बन बनाते हैं जिससे 15 हजार ग्लेशियर पिघल रहे हैं।

अभी तक उत्तराखंड के लोगों को माना जाता था जिम्मेदार

वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक डॉ. नेगी के मुताबिक, शोध से यह साफ हो गया है कि यूरोप से जनवरी में जब पश्चिमी विक्षोभ बारिश लेकर आता है, उसी के साथ जहरीली गैसें भी आती हैं। यह शोध का विषय था कि जनवरी में ग्लेशियरों में जमे ब्लैक कार्बन का स्तर कैसे बढ़ जाता है।

अभी तक माना जाता था कि उत्तराखंड के लोगों द्वारा खाना बनाने के लिए लकड़ियां जलाने और बड़े पैमाने पर जंगलों में आग लगने से निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड के चलते ब्लैक कार्बन बनता है और इसी के कारण बर्फ पिघलने की रफ्तार बढ़ जाती थी। डॉ. नेगी के मुताबिक, जनवरी में उत्तराखंड में लोग ग्लेशियरों से लगभग सौ किमी पीछे चले जाते हैं और न ही जनवरी में जंगलों में आग लगती है।



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वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक डॉ. नेगी के मुताबिक, शोध से यह साफ हो गया है कि यूरोप से जनवरी में जब पश्चिमी विक्षोभ बारिश लेकर आता है, उसी के साथ जहरीली गैसें भी आती हैं।


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