खून में लथपथ सैनिक मिलिट्री हॉस्पिटल पहुंचते थे और वो बाकी आर्मी वाइव्स के साथ मिलकर उनके लिए कपड़े से लेकर शेविंग किट जुटाती थीं। फिर जब सर्वोच्च बलिदान दे चुके सैनिकों के शव आने लगे तो उन्होंने शहीद की पत्नी ‘वीर नारी’ के साथ खड़े होकर न केवल उन्हें हौसला दिया बल्कि उनकी हर जरूरत का ख्याल रखा।
ये मामला है करगिल युद्ध का। जब जनरल वेद मलिक सेना प्रमुख थे और उनकी पत्नी रंजना मलिक आर्मी वाइव्स एसोसिएशन की मुखिया। जब सरहद और सैनिकों का जिम्मा जनरल वेद मलिक संभाले हुए थे तो उन्हीं सैनिकों की पत्नी, बच्चों और परिवारों का हौसला बनी हुई थी खुद रंजना मलिक। फिर चाहे उनकी छोटी-मोटी जरूरतों को पूरा करना हो या फिर शहीदों के शव घर पहुंचने पर उनकी पत्नी के साथ हिम्मत बनकर खड़े रहना।
रंजना मलिक खुद एक डॉक्टर हैं, सेना में रह चुकी हैं। आर्मी वाइव्स वेलफेयर एसोसिएशन की मुखिया का काम तब संभाल रहीं थीं, जब वो सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण था। शहीदों की पत्नी खुद सेना में अफसर बन पाएं ये उन्हीं की कोशिशों का नतीजा था। यहीं नहीं 'वीर नारी' को पहले सेना में 'वॉर विडोज' कहा जाता था, रंजना मलिक ने ही उन्हें 'वीर नारी' कहने की परंपरा शुरू की। और सेप्रेटेड फैमिली एकोमोडेशन को फील्ड एरिया फैमिली एकोमोडेशन नाम भी उन्होंने ही दिया है।
करगिल में सोल्जर्स को मिठाई और चिट्ठियां भेजने से लेकर शहीदों के परिवारों से उनके घर जाकर मुलाकात करने वाली हर याद उन्होंने हमसे साझा की .....
करगिल युद्ध और आर्मी वाइव्स की मुखिया, क्या कुछ जिम्मे था आपके?
वो वक्त मुश्किल भी था और बहुत व्यस्त भी। आर्मी वाइव्स एसोसिएशन ‘आवा’ का बहुत सारा काम था। जिनके पति करगिल में लड़ रहे थे, यहां हम पर उनका जिम्मा था। परिवार बैचेन थे, डरे हुए थे। तब हम उनके पास जाते थे, उनके सवालों के जवाब देते थे। उनको हिम्मत दिलाते थे, उनके बच्चों की दिक्कतें सुलझाते थे। मैं भी बार-बार इन क्वार्टर्स में जाती थी ताकि उन सबसे बार-बार मिल सकूं।
जिनके लोग शहीद होकर आते थे, उनके साथ भी हम भी खड़े रहते थे। मैं और मेरे पति सभी शहीदों के परिवारों से मिले, उनके घर गए, उन्हें बताना होता था कि उन्हें कहां रहना है, उनकी फाइनेंशियल दिक्कतों का क्या करना है।
यहीं नहीं करगिल से जो घायल सैनिक आने शुरू हुए, वो खून में लथपथ आते थे। तो हम उनसे मिलिट्री हॉस्पिटल में जाकर मिलते थे, उनके लिए सामान जुटाते थे। कपड़े, शेविंग किट लाकर देते थे। इन घायल सैनिकों से जब पूछो कि कैसे हो? तो सावधान होकर कहते थे, ‘हम ठीक हैं’। लेकिन, उनकी आंखों में सवाल होते थे। मेरी बाजू कट गई मेरा क्या होगा, मेरी आंख चली गई, उन सबको हौसला देना बड़ी जिम्मेदारी थी।
कई लोग आते थे कि हम सैनिकों के लिए कुछ देना चाहते थे। तब फोन भी नहीं होते थे। मेरे पास भी नहीं था। तो हम उन लोगों से जिनके पास फोन हैं, कहते थे कि आप हॉस्पिटल में आकर घायल सैनिकों की उनके परिवारों से बात करवा दो। कोशिश यही रहती थी कि सबसे जुड़े रहें।
करगिल में तैनात सैनिकों को हाथ से लिखी चिट्ठियां और पौष्टिक मिठाई पहुंचाई थीं आपने और बदले में सरहद से चिट्ठियां आई थीं आपके पास?
जुलाई 1999 की बात है, हमने सोचा कि जो सैनिक सरहद पर तैनात हैं, उनके लिए कुछ मिठाई भेजते हैं। हम कुछ लेडीज मिलकर गए, दिल्ली की कलेवा स्वीट्स की दुकान पर गए। हमने चुनीं वो पौष्टिक मिठाई जो लंबे समय तक रह सकती है। मैंने सभी लेडीज से कहा कि हर सैनिक को हम एक हाथ से लिखी चिट्ठी भेजेंगे, ये लिखकर कि हमारी शुभकामनाएं उनके साथ हैं। लगभग 5000 पैकेट्स हर हफ्ते एयरफोर्स के प्लेन से लेह जाते और फिर वहां से सैनिकों के पास।
कुछ समय बाद हमें सरहद से चिट्ठियां आने लगीं। कोई कलेवा स्वीट्स पर आती थीं, कुछ बंगला साहेब गुरुद्वारे पर, कुछ आर्मी वाइव्ज एसोसिएशन के नाम पर। घूम फिरकर सभी चिट्ठियां हम तक पहुंची। इसमें कुछ चिट्ठी यंग ऑफिसर्स की थीं। कुछ यंग सोल्जर्स की। उन्हें पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा। कुछ जवान ये भी नहीं जानते थे कि आवा यानी आर्मी वाइव्ज एसोसिएशन क्या होता है।
एक चिट्ठी हमें आवा मैनेजर के नाम पर मिली। उस चिट्ठी में लिखा था- ‘हम करगिल की पहाड़ियों पर चढ़ रहे थे कि अचानक आपका भेजा मिठाई का डिब्बा मिला। इतनी खुशी मिली जैसे हमारे घर से मिठाई आई हो। हम जब पहाड़ पर चढ़ते- चढ़ते थक कर चूर हो जाते तो हम वो मिठाई निकालकर खा लेते और हमें फिर ताकत मिल जाती। हमने अपने काम में विजय पाई।’
आपका डॉक्टर होना और घायल सैनिकों से मिलना, या फिर आर्मी ऑफिसर के अनुभवों के साथ शहीदों के परिवारों को संभालना, सचमुच किसी और से बेहतर कर पाई होंगी आप?
मैं एक डॉक्टर भी थी। डॉक्टर होने से इंसान ज्यादा कॉन्फिडेंट होता है, ज्यादा हिम्मत दिला सकता है। जब भी पीएम से या सरकार से बात हुई तो मैंने यही कहा कि हमें अपने घायल सैनिकों के इलाज के लिए बेस्ट फेसिलिटी मिलनी चाहिए। मैं आर्मी ऑफिसर तो थी लेकिन इस वक्त डॉक्टर होने का सबसे ज्यादा फायदा मिला। सबको कॉन्फिडेंस देना, सबको संभालना, सही राय देना बेहद जरूरी था।
जब शहीदों के शव करगिल से लौटते थे, उस वक्त सारे ऑफिसर होते थे, शहीद का शव होता था, सेरेमनी चल रही होती थी। शहीद की पत्नी, बच्चे और परिवार वाले भी। ऐसे समय में किसी के कंधे पर हाथ रखकर सहारा देना बहुत जरूरी बात होती है। ‘हीलिंग टच’ बहुत जरूरी होती है। उनका दर्द समझने के लिए। उन्हें ये समझाना कि तुम अकेली नहीं हो, पूरी फौज तुम्हारे साथ है। हर समय तुम्हारी मदद करेगी।
हम उन शहीदों के परिवारों से हमेशा मिलते रहे। जिस भी शहर में गए तो जो परिवार उस शहर में थे, मैं और जनरल मलिक उनके घर जाते थे। हम अनुज नैय्यर के घर भी गए। अमित भारद्वाज, विक्रम बत्रा और सौरभ कालिया के घर भी गए। मेजर सुधीर कुमार भी करगिल में शहीद हुए थे, उन्हें अशोक चक्र मिला था। वो जनरल वीपी मलिक के एडीसी भी रह चुके थे, हमारा उनसे खास लगाव था। जिस भी स्टेशन में हम गए टूर पर हम वहां शहीदों के परिवार से मिलते रहे।
पूरा देश शहीदों के लिए कुछ करना चाहता था, आप उनके परिवारों के साथ मौजूद थीं, सरहद से दूर यहां दिल्ली में तब क्या चल रहा होता था?
मेरा दिन बहुत व्यस्त रहता था, मेरे ऑफिस में दिनभर लोग आते रहते थे। लोग सैनिकों को कुछ देना चाहते थे थे, स्कूली बच्चे अपनी पॉकेट मनी देते आते थे। शाम को न्यूज ब्रीफिंग होती थी तो उसका इंतजार करते थे।
मैं प्रार्थना करती थी कि सब ठीक हो जाए। हर किसी की जिंदगी में कोई न कोई तरह की प्रार्थना होती है। जरूरत होती है कि हम अपने इमोशन कंट्रोल में रखें, दूसरों को हौसला दिखाएं। जो लड़ रहे हैं उन्हें ये तसल्ली हो कि हमारा परिवार और बच्चे ठीक हैं तो वो हिम्मत से काम कर पाते हैं। ये हमारी सेना की ताकत है। हम आर्मी वाइव्स ने टीम बनकर यही काम किया।
करगिल हीरो योगेंद्र यादव से अस्पताल में मुलाकात और उन्हें परमवीर चक्र देने की बात बताने का वाकया सुनाना चाहेंगी?
योगेंद्र यादव से मिलने मैं अपने पति जनरल मलिक के साथ गई थी। वो बुरी तरह घायल था। तब छोटा सा 22-23 साल का लड़का था। इसकी शादी भी शायद तभी हुई थी। जब जनरल मलिक ने योगेंद्र यादव से कहा कि उसे परम वीर चक्र मिला है तो उसे नहीं पता था कि परमवीर चक्र क्या होता है। उस वक्त हम सबके चेहरे पर मुस्कान थी। अब वो बड़े हो चुके हैं। हम जहां भी फंक्शन में जाते हैं तो वो बड़े प्यार से आकर मिलते हैं।
आप खुद सेना में, पति आर्मी चीफ और बेटा भी सेना में, इन गुजरे 21 साल में सेना में क्या बदलाव की गवाह बनीं आप?
पिछले साल 20 साल हुए थे, तब हम करगिल गए थे। इससे पहले भी कई बार गए हैं। मैं लड़ाई से ठीक एक साल पहले भी गई थी करगिल। पूरा इलाका मैंने देखा है। बहुत कुछ बदल गया है। सेना में बहुत कुछ बदला है, कितनी आधुनिक हो गई है। मेरा बेटा सेना में ही ब्रिगेडियर है, पिछले साल तक वह कश्मीर में ही पोस्टेड था।
जब बेटा और जनरल मलिक बात करते हैं तो मैं बस सुन ही सकती हूं। बेटे को बहुत कुछ पूछना और बताना होता है अपने पिता को। उस पर हमें बहुत गर्व है कि उसने सेना में जाने का फैसला लिया। इन दिनों बहुत सारी फील्ड्स हैं, बच्चे अपना फैसला कर सकते हैं। लेकिन हमारा बेटा हमेशा से सेना में जाना चाहता था।
फील्ड में तैनात सैनिकों की फैमिली से जुड़ा एक किस्सा आप बता रहीं थीं?
हमारे यहां सेना में सेप्रेटेड फैमिली एकोमोडेशन होते थे। ये वो इलाके थे जहां सरहद पर फॉर्वर्ड लोकेशन पर तैनात ऑफिसर-जवानों की फैमिली रहती थीं। एक बार जालंधर में एक लेडी ने मुझे बताया कि वो ऑटो ढूंढ रही थी तो ऑटो वाले ने उनके इलाके को कहा, ‘जित्थे छडियां हुआ औरतां रहेंदी या...’। ये सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा। तो हमनें उसका नाम फील्ड एरिया फैमिली एकोमोडेशन कर दिया।
शहीदों की पत्नियों को सेना में ऑफिसर बनाने की शुरुआत आपने की, क्या है उसकी कहानी?
1998 में दो यंग लेडीज साउथ ब्लॉक में मेरे ऑफिस आईं। एक रविंदर जीत विजय रंधावा की पत्नी थी। उनके पति कुछ महीनों पहले कश्मीर में शहीद हुए थे और उन्हें कीर्ति चक्र भी मिला था। दूसरी सबीना सिंह थीं जिनके पति नॉर्थ ईस्ट में एयरक्राफ्ट क्रैश में शहीद हुए थे। दोनों के छोटे बच्चे थे।
वो मुझसे बोलीं हमें पता चला है कि हमें पूरी पेंशन मिलेगी, हम देश के लिए कुछ काम करना चाहते हैं, मुफ्त में पेंशन नहीं लेना चाहते। मैं ये सुनकर हैरान रह गई, पूछताछ भी की। उनकी उम्र ज्यादा थी, शादीशुदा थी, बच्चे भी थे। फिर मैंने आर्मी हेडक्वार्टर से पता किया, जनरल वीपी मलिक ने भी बात की।
तो हमको परमिशन मिली की ये लेडीज एग्जाम देकर, इंटरव्यू देकर फौज में जा सकती हैं। ये चेन्नई ऑफिसर्स ट्रेनिंग एकेडमी चलीं गई। जब ये पास होने वाली थीं तो इन्होंने कॉल किया कि आप हमें रैंक लगाने आइए।
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