रविवार, 26 जुलाई 2020

एक के बाद एक हमले करते गए, हर दिन, और सब के सब युवा, जवान भी युवा थे और उनके लीडर्स भी युवा ऑफिसर्स थे, वो युद्ध था जिसे युवाओं ने लड़ा

करगिल विजय दिवस पर मैं उन तमाम वीरों को सैल्यूट करना चाहता हूं, जिन्होंने सर्वोच्च बलिदान दिया। और उन्हें भी जो उन वीरों को वापस लेकर आए। करगिल ऐसा युद्ध था जो युवाओं ने लड़ा अपने युवा लीडर्स के बूते। वहां युद्ध कंपनी और प्लाटून के बीच हो रहा था।

और उसका जिम्मा संभाले हमारे युवा फौजी ही थे जिनके बूते देश बच गया, जिन्होंने दुश्मन को करगिल से खदेड़कर हम सबको गौरवान्वित किया। मैं तब कर्नल था और जम्मू कश्मीर में लाइन ऑफ कंट्रोल पर ब्रेवेस्ट ऑफ द ब्रेव बटालियन को कमांड कर रहा था। नियंत्रण रेखा पर हर जगह गोलीबारी चल रही थी।

घुसपैठ की तमाम कोशिशें भीं। जिसके चलते कई सारे ऑपरेशन चलाए जा रहे थे। लेकिन, वहां करगिल में पूरा का पूरा युद्ध जारी था। हर दिन हम ऑपरेशन से जुड़ी जानकारी का इंतजार करते थे। खबर के लिए सिटरेप्स यानी सिचुएशनल रिपोर्ट सुनते। हर दिन खबर मिलती कि एक और चोटी पर हमने कब्जा कर लिया है, एक और पहाड़ी अब सुरक्षित है।

रिटायर्ड ले. जनरल सतीश दुआ करगिल के समय कर्नल थे और जम्मू कश्मीर में लाइन ऑफ कंट्रोल पर ब्रेवेस्ट ऑफ द ब्रेव बटालियन को कमांड कर रहे थे।

वो बंजर पहाड़ियां थीं जो 12 हजार से लेकर 20 हजार फीट की ऊंचाई पर थीं। मैं करगिल में पहले तैनात रह चुका था, समझ सकता था कि उस इलाके में जहां ऑक्सीजन की कमी से इंसान हांफता है, वहां ऑपरेट करना कितना मुश्किल होगा। उस ऊंची चोटी पर हमला करना जहां माउंटेनियरिंग एक्सपिडिशन पर रस्सियों के सहारे चढ़ाई करते हैं, कितना चुनौतीपूर्ण होगा।

फिर भी भारतीय जांबाजों का कोई मुकाबला नहीं। एक के बाद एक हमले करते गए, हर दिन, और सब के सब युवा, युवा जवान जिनके लीडर्स भी युवा ऑफिसर्स थे। वो युद्ध था जिसे युवाओं ने लड़ा, सबकी उम्र 20-30 के बीच रही होगी।

प्वाइंट 5140 को दुश्मन के कब्जे से छुड़ा लेने के बाद कैप्टन विक्रम बत्रा ने कहा, ये दिल मांगे मोर और वो सारे देश के युवाओं के बीच मशहूर हो गया, उनका नारा बन गया। फिर वो प्वाइंट 4875 को जीतने निकले और एक जख्मी ऑफिसर को बचाते अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी। वो यूं भी पहले कह चुके थे, मैं या तो तिरंगा फहराकर आऊंगा या फिर उसी में लिपट कर।

कैप्टन विक्रम बत्रा 7 जुलाई 1999 को शहीद हुए। उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।

सूबेदार योगेंद्र सिंह यादव के हिस्से है सबसे कम उम्र में युद्ध का सर्वोच्च पदक, परमवीर चक्र। उन्हें जब उस अदम्य साहस के लिए ये पदक मिला तो वो बस 19 बरस के थे। टाइगर हिल पर हमले के वक्त दुश्मन ने उन पर कई बार हमला किया, लेकिन उन्होंने अपने हाथ को बेल्ट से बांधा और पैर में बंडाना लपेट रेंगकर दुश्मन का बंकर तबाह कर दिया। आमने-सामने की लड़ाई में चार दुश्मनों को मार गिराया। और अपनी प्लाटून की टाइगर हिल जीतने में मदद की। उन्हें 15 गोलियां लगीं और वो उस हमले में जीवित बचे इकलौते गवाह थे।

कैप्टन मनोज पांडे ने खालूबार हिल के जुबार टॉप पर हुए हमले में सर्वोच्च बलिदान दिया। वो कहते थे, यदि मौत पहले आई और मैं अपने खून का कर्ज नहीं चुका पाया तो कसम खाता हूं मैं मौत को मार डालूंगा।

कैप्टन विजयंत थापर ने तोलोलिंग फतह पर निकलने से पहले अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी। शायद उन्हें आभास हो गया था। उन्होंने लिखा था, ‘जब तक आपको ये खत मिलेगा मैं आपको आसमान से देख रहा होऊंगा और अप्सराएं मेरी खातिरदारी कर रही होंगी। मुझे कोई पछतावा नहीं है। और अगर में फिर से इंसान पैदा होता हूं तो मैं सेना में जाऊंगा और अपने देश के लिए लडूंगा। हो सके तो आप वो जगह आकर देखना जहां भारतीय सेना ने लड़ाई लड़ी।’

कैप्टन विजयंत थापर 29 जून 1999 को शहीद हुए थे। उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र दिया गया था।

ऐसे कई हैं, बहुत सारे हीरो। कैप्टन अनुज नायर, मेजर राजेश अधिकारी, मेजर विवेक गुप्ता, राइफलमैन संजय कुमार, कैप्टन नौंगरू और बहुत से। सबका नाम यहां लिखना मुमकिन नहीं। अपनी जिंदगी के बमुश्किल 20 बरस देखने वाले वो तमाम युवा जिन्होंने युद्ध लड़ा। भारतीय सेना के अफसरों की शहादत इसलिए सबसे ज्यादा होती है क्योंकि वो हर ऑपरेशन में सबसे आगे होते हैं।

जब भी मैं सर्वोच्च बलिदान देनेवाले इन योद्धाओं के माता-पिता से मिलता हूं तो बातों-बातों में जो एक बात हर जगह पता चलती है वो ये कि उनके बेटे बहादुर थे। वो इसलिए क्योंकि उनके परिवार और माता-पिता ने उन्हें ये संस्कार दिए थे। हर परिवार और परिवार के हर सदस्य के भीतर उन्हें लेकर गर्व है अफसोस नहीं। यही तो है जो हमारे देश को महान बनाता है।

भारत ने 527 योद्धाओं को करगिल युद्ध में खोया है। हम सैल्यूट करते हुए न सिर्फ उन सभी को जिन्होंने बलिदान दिया बल्कि उन्हें भी जो उन्हें लेकर वापस आए। वो भी कम बहादुर नहीं थे जो जिंदा रहे हमें अपने साथी की शहादत की कहानी सुनाने को। हमारा सलाम उन्हें जिन्हें वीरता पदक से नवाजा गया लेकिन उन्हें भी सलाम जो गुमनाम रहे या जिनके हिस्से मेडल नहीं आया। वो किसी भी लिहाज से कम बहादुर नहीं थे।

सूबेदार मेजर योगेंद्र यादव ने टाइगर हिल को जीतने में अहम भूमिका निभाई थी। योगेंद्र को उनकी बहादुरी के लिए सेना का सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।

सच तो ये है कि हर ऑपरेशन में, हर युद्ध में, दुनिया में हर जगह ये गुमनाम सोल्जर्स ही होते हैं जो जीत दिलाते हैं। एक सच्चे सैनिक के लिए पदक महत्व नहीं रखते। कोई भी सोल्जर मेडल के लिए नहीं लड़ता। ये तो जिंदगी और मौत का मसला है।

हमें गर्व है अपने सैनिकों पर और अपने यंग ऑफिसर्स पर। भारत को गर्व है, फिर चाहे वो करगिल हो या कश्मीर, इन जांबाजों ने हमेशा सीने पर गोली खाई है। हमारा सलाम भारत के हर नागरिक को। उन सभी को जिन्होंने भारतीय सेना का साथ दिया। भारतीय सैनिक के पीछे उसका साथ खड़ा पूरा देश जो है।

और किसी सोल्जर के लिए इससे ज्यादा भरोसा दिलाने वाला आखिर क्या होगा कि वह जिस देश के लिए जिंदगी दांव पर लगाता है, उसका वह देश उसकी परवाह करता है। फिर चाहे कश्मीर हो करगिल हो या लद्दाख, देश सलाम करता है बहादुर भारतीय सैनिकों को, देश के बहादुर युवाओं को।
जय हिंद।
(रिटायर्ड ले. जनरल सतीश दुआ, कश्मीर के कोर कमांडर रह चुके हैं, इन्ही के कोर कमांडर रहते सेना ने बुरहान वानी का एनकाउंटर किया। जनरल दुआ ने ही सर्जिकल स्ट्राइक की प्लानिंग की और उसे एग्जीक्यूट करवाया था। वे चीफ ऑफ इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ के पद से रिटायर हुए हैं।)

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