क्या कांग्रेस बिना गांधियों के चल सकती है? या कांग्रेस का गैर-गांधी प्रमुख होना चाहिए? ये दोनों सवाल तब से चर्चा में हैं, जब से 23 असंतुष्ट नेताओं ने सोनिया गांधी को पार्टी सुधारों, जवाबदेही और ‘पूर्ण-कालिक’ नेतृत्व को लेकर चिट्ठी लिखी है। इन सवालों का जवाब राजनीतिक है, कांग्रेस परिवार में ही है, न कि टिप्पणीकारों के काल्पनिक शब्दों में।
यह याद रखा जाना चाहिए कि राहुल गांधी, नेहरू-गांधी परिवार के पहले सदस्य हैं, जिन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष का पद बीच में छोड़ा है। वरना आखिरी 42 सालों में 35 वर्ष राजीव, सोनिया और राहुल ही पार्टी प्रमुख के पद पर रहे हैं। सोनिया ने समझदारी पूर्वक अगले कुछ महीनों में पार्टी चुनाव कराने के फैसले की घोषणा की है।
असंतुष्टों के पास पार्टी चुनावों का सामना करने का मुश्किल काम है, जो कि काफी हद तक आधिकारिक पार्टी उम्मीदवारों के पक्ष में हैं। शायद यही कारण है कि प्रियंका गांधी ने खुद को उप्र में रखा है, जहां से एआईसीसी/पीसीसी के करीब 17% प्रतिनिधि आते हैं। हालांकि, अगर राहुल पार्टी अध्यक्ष का चुनाव नहीं लड़ते हैं तो यह देखना रोचक होगा कि ये चुनाव कैसे लड़े जाते हैं।
पीसीसी प्रतिनिधि कांग्रेस अध्यक्ष के लिए मतदाता हैं, जबकि एआईसीसी प्रतिनिधि कार्यसमिति के लिए वोट देंगे। मौजूदा सत्ता संघर्ष नेहरू गांधी परिवार के लिए दशकों में आई सबसे बड़ी चुनौती है। एक सामान्य कांग्रेस कार्यकर्ता की नेहरू गांधी परिवार में आस्था मजबूत है।
उनके मन में 2004 और 2009 में पार्टी की जीत के लिए सोनिया गांधी के प्रति कृतज्ञता का भाव है और वे प्रियंका गांधी को उम्मीद की दृष्टि से देखते हैं। लेकिन राहुल का शीर्ष पद संभालने का फैसला न ले पाना, उनके काम करने की शैली, संवाद, सामाजिक कौशल की कमी आदि दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।
अब भी कांग्रेस में कोई इस बात को लेकर सुनिश्चित नहीं है कि क्या सभी मुख्य पदों पर वफादारों को बैठाने के बावजूद राहुल नेतृत्व का जिम्मा लेना चाहते हैं। सभी तरह के कांग्रेसी गांधी परिवार के सदस्यों को निर्विवाद नेता के रूप में देखते हैं और बदले में चुनावी सफतला, सत्ता आदि चाहते हैं। नेहरू से इंदिरा तक, राजीव से सोनिया गांधी तक, कोई भी इसमें असफल नहीं रहा।
नतीजतन कांग्रेस नेता आंख बंदकर उनका अनुसरण करते रहे और उन्होंने गांधियों से परे जाने की इच्छा नहीं जताई। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी के दौर में 10 जनपथ (सोनिया गांधी) दोनों के लिए बराबर संतुलन के रूप कार्य करता था। इस तरह सैद्धांतिक रूप से गैर-गांधी अध्यक्ष हो सकता है, लेकिन व्यवहारिक रूप से यह संभव नहीं लगता।
जिस तरह प्रियंका और राहुल ने राजस्थान का संकट सुलझाया, पार्टी नेताओं को गांधियों पर भरोसा है। अगर एक गैर-गांधी हर फैसले के लिए राहुल, प्रियंका और सोनिया के पास जाएगा, तो उसकी छवि एक परोक्ष अध्यक्ष की बन जाएगी। अगर वह अपनी मर्जी से फैसले लेगा तो पार्टी के हर राज्य और विधानमंडल खंडों में उसे प्रतिरोध झेलना होगा।
केसरी के शासन में 1997 में सोनिया के करीबी वी जॉर्ज और ऑस्कर फर्नांडीज को केसरी के बंगले पर उन फैसलों पर हस्ताक्षर के लिए फाइल ले जाते हुए देखा जाता था, जो शायद 10 जनपथ में बैठी महिला ने लिए थे। चुनावों में गांधियों की बतौर प्रचारक सबसे ज्यादा मांग रहती है।
कोई भी अनुभवजन्य अध्ययन बता सकता है कि गांधियों के बाद ही नवजोत सिंह सिद्धू, राज बब्बर, गोविंदा आदि की पहुंच पूरे भारत में है, वह भी इसलिए क्योंकि वे सेलिब्रिटी हैं। जबकि 23 असंतुष्टों में ज्यादातर की उनके राज्य या निर्वाचन क्षेत्र के बाहर शायद ही कोई मांग रहती है (जैसे शशि थरूर, कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा आदि)। कांग्रेस जल्द बिहार, बंगाल, असम आदि राज्यों में चुनाव का सामना करेगी।
इन 23 असंतुष्टों में एक भी ऐसा नेता नहीं है जो इन चुनावों में प्रचार में सक्रिय भूमिका निभा सके। संयोग से यह पहला मौका नहीं है, जब गांधी ऐसे विद्रोह का सामना कर रहे हैं। इंदिरा ने 1969 और 1977 में यह झेला और बाजी पलटी। 1969 में सिंडिकेट क्लिक नाम के वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं के समूह ने इंदिरा को कांग्रेस से निकाल दिया, जिससे पार्टी का बंटवारा हुआ।
भावुक इंदिरा ने कांग्रेस की सदस्यता का ‘जन्मसिद्ध’ अधिकार होने पर जोर दिया। 1971 के आम चुनावों में उन्होंने कहा, ‘मुझे कोई कांग्रेस से बाहर नहीं निकाल सकता।’ आपातकाल और 1977 में चुनावी हार के बाद जनवरी 1978 में बंटवारे पर इंदिरा के पास कुछ नहीं बचा। लेकिन उन्होंने 1980 में बहुमत के साथ वापसी की तो उन्होंने 7, जंतर मंतर स्थित कांग्रेस पार्टी कार्यालय पर दावा करने से इनकार कर दिया।
उन्होंने कहा, ‘मैंने पार्टी को दो बार शून्य से खड़ा किया है। नया पार्टी कार्यालय दशकों तक पार्टी कार्यकर्ताओं को जोश बनाए रखेगा।’ 1978 से कांग्रेस 24, अकबर रोड, नई दिल्ली से काम कर रही है। इस साल दिसंबर में कांग्रेस के 136वें स्थापना दिवस पर इस पुरानी पार्टी को दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर जाने की उम्मीद है, जहां नजदीक ही भाजपा का राष्ट्रीय मुख्यालय है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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