मंगलवार, 17 नवंबर 2020

चीन को लेकर मोदी ने नेहरू जैसी रणनीतिक भूल की है

पूर्वी लद्दाख को चिंतित नजरों से देखते हुए यह कठोर सच कहना जरूरी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल के पहले पांच वर्षों में वैसी ही रणनीतिक भूल की जैसी भूल जवाहरलाल नेहरू ने की थी। साथ ही हम यह भी बताएंगे कि मोदी की भूल नेहरू की 1955-62 वाली भूल की तुलना में आधी क्यों है?

हम एक सोची-समझी धारणा बनाकर चल रहे हैं कि 2014 में मोदी जब पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आए तब उन्हें पूरा आत्मविश्वास था कि उनके दौर में कोई युद्ध नहीं होगा। एक बार जब आप वैश्विक व्यवस्था का हिस्सा बन जाते हैं और देशों के हित एक-दूसरे की बॉन्ड कीमतों से जुड़ जाते हैं तब उनमें लड़ाई नहीं होती। जब देश वैश्विक अर्थव्यवस्था के अहम भागीदार बन जाते हैं, जैसे भारत-चीन बन चुके हैं, तब युद्ध के सैन्य से ज्यादा आर्थिक कु-परिणाम होते हैं। चूंकि कोई युद्ध नहीं होगा इसलिए मोदी के छह साल में जीडीपी में रक्षा बजट का प्रतिशत बढ़ने की बजाए घटा है।
भारत सैन्य शक्ति में चीन की बराबरी निकट भविष्य में नहीं कर सकता। लेकिन भारत पर चीन का आर्थिक दांव भारी व्यापार सरप्लस के कारण ऊंचा होता गया है। 2017 की गर्मियों तक, जब तक उसने डोकलाम में उलटफेर नहीं किया था तब तक ऐसा ही लगता था कि वह अपना ही खेल खराब करने की मूर्खता नहीं करेगा। शुरू में मोदी ने पाकिस्तान और चीन, दोनों की तरफ हाथ बढ़ाया। लेकिन जल्दी ही उन्हें गलती का एहसास हुआ कि पाकिस्तान में असली सत्ता निर्वाचित नेता के हाथ में नहीं बल्कि किसी और के हाथ में होती है। इसके बाद मोदी ने एक रणनीतिक सुधार किया और पाकिस्तान को शाश्वत शत्रु के खांचे में डाल दिया। उरी, पुलवामा-बालाकोट इस के सबूत थे कि यह राजनीतिक चाल कारगर है।
चीन के मामले में उन्होंने दूसरा रवैया अपनाया। उन्होंने राष्ट्रपति शी जिनपिंग को गुजरात आमंत्रित किया। मोदी ने तब यह हिसाब लगाया था कि निजी समीकरण, गहरी दोस्ती, व्यापार व निवेश से होने वाले लाभों का आकर्षण चीनी खतरे को खत्म कर सकता है। लेकिन चीनी सेना ने लद्दाख के चूमर में एलएसी का उल्लंघन करके साबित कर दिया कि चीन अपनी आदत से बाज नहीं आएगा। इसके बावजूद एक के बाद एक शिखर वार्ताएं चलीं।

डोकलाम एक चेतावनी तो थी, मगर वुहान ने फिर इस धारणा को मजबूत किया कि चीन से सीधा सैन्य खतरा नहीं होने वाला है। इसलिए सेना पर खर्चों को अभी टाला जा सकता है। लेकिन शायद कोई नई चिंता उभरी, जिसने रफाल हासिल करने की प्रक्रिया में तेजी ला दी। इसके बावजूद, हासिल किए जाने वाले उन विमानों की संख्या 36 कर दी गई जबकि भारतीय वायुसेना ने न्यूनतम 65 की मांग की थी। और यह मांग भी इसी विश्वास के बूते की गई थी कि युद्ध की कोई आशंका नहीं है। लेकिन यह रणनीतिक भूल थी।

बालाकोट हमला और इसके बाद की झड़पों ने पहली चेतावनी दे दी थी कि भारत ने अपनी बढ़त अपने हाथ से निकल जाने दी है। हालांकि सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास में कुछ तेजी आई लेकिन यह चीन पर मुख्य ध्यान देते हुए नहीं किया जा रहा था। यह तेजी भी 20 अप्रैल से पहले नहीं आई थी, जब तक कि चीनी सेना ने बड़े पैमाने पर फौजी घुसपैठ करके झटका नहीं दिया। चीन ने ऐसा क्यों किया? क्या कश्मीर में फेरबदल व अक्साई चीन फिर से हासिल करने के भारतीय दावों ने ही उसे उकसाया?
यहां आकर हम अपने मूल मुद्दे को उठाते हैं कि मोदी ने वैसी ही रणनीतिक भूल की जैसी नेहरू ने की थी। मोदी ने यह मान लिया कि अभी युद्ध नहीं होने वाला और चीन अपने आर्थिक हितों को खतरे में डाल कर भारत के लिए खतरा बनने की कोशिश नहीं करेगा। लेकिन हमने इसे नेहरू की भूल के मुकाबले आधी भूल क्यों कहा? इसलिए कि यह मान लेना ठीक तो है कि कोई पारंपरिक युद्ध लगभग असंभव है। लेकिन शांति की गारंटी जिन वजहों से मानी जा रही है वह सही नहीं है।

भारत को यूपीए राज में एक दशक तक अनिश्चय में झूलते रहने के बाद रक्षा पर खर्चों को बढ़ाना पड़ा। हमारे इस कठिन क्षेत्र में शांति की शर्त यह है कि पाकिस्तान को दंड देने की ताकत बनाए रखी जाए और चीन को चेतावनी देने के तेवर बनाए रखे जाएं। लेकिन सेना पर निवेश में कटौती के कारण ये दोनों रणनीतियां कमजोर पड़ीं।
चीन तो हमेशा नज़र गड़ाए ही रहा है। वाजपेयी-ब्रजेश मिश्र की दबाव की कूटनीति के सिद्धांत को याद कीजिए। इसमें पाकिस्तान पर भारत के निर्णायक व दंडात्मक फौजी वर्चस्व की नीति भी जुड़ी थी। उनका यह भी कहना था कि दबाव की कूटनीति तभी कारगर हो सकती है जब युद्ध का खतरा इतना वास्तविक हो कि हम उसे सच्चा मान लें।
संभव है कि इसी वजह से चीन हमारे साथ लद्दाख में यह सब कर रहा है। वह दबाव की कूटनीति के लिए अपनी सैन्य बढ़त का लाभ उठा रहा है। भारतीय सेना ने कैलाश क्षेत्र में जो साहसिक जवाब दिया उसने दिखा दिया है कि भारत अब 1962 वाला भारत नहीं है। लेकिन हाल के रक्षा समझौते के बाद जब हम अमेरिका से जाड़ों के लिए जरूरी पोशाकों की आपात खरीद करते हैं, तब हम अहम रूप से गलत आकलन करते हुए फिर एक भारी भूल कर रहे होते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’।


from Dainik Bhaskar https://ift.tt/3nwnsEo
https://ift.tt/2ID6GUN

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

If you have any doubt, please let me know.

Popular Post