मंगलवार, 9 जून 2020

बड़े विचारों के बावजूद मोदी सुधारों को लागू करने में सफल क्यों नहीं हो पाए?, क्या नौकरशाहों की वजह से असफल हो रहे हैं पीएम?

तीन प्रश्न हैं- पहला, क्या नरेंद्र मोदी एक आर्थिक सुधारक हैं? दूसरा, भारत के आर्थिक सुधारकों की पीवी नरसिम्हा राव, डॉ. मनमोहन सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी की सूची में मोदी कहां है? और तीसरा, वे अपने आर्थिक सुधारों को लागू करने में कितने सफल रहे हैं?

अगर पहले सवाल का जवाब हां है, तो सवाल उठता है कि मोदी जब प्रधानमंत्री के रूप में सातवां साल शुरू कर रहे हैं तो उनकी उपलब्धियां क्या हैं? 2010 में जब यूपीए-2 खुद धीमी खुदकुशी की ओर बढ़ गई, उसके बाद कई घोषणाएं हुईं, जिनका हम लोगों ने स्वागत किया जो 10 साल के सूखे के बाद सुधारों का इंतजार कर रहे थे।

रेलवे से लेकर कृषि, बैंकिंग, मैनुफैक्चरिंग, श्रम कानून, बिजली, नागरिक उड्डयन, नए सेक्टरों में एफडीआई, कोयला, खनन, टैक्सेशन तक, सूची प्रभावित करने वाली है। लेकिन नतीजा शून्य रहा है। इससे हम सीधे तीसरे प्रश्न पर आ जाते हैं। क्या मोदी में अपने बड़े आर्थिक सुधारक विचारों को लागू करने की क्षमता है?

इसका जवाब ना में देने के लिए बस नोटबंदी और चार घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन के फैसले याद कर लीजिए। तो फिर उन्हें आर्थिक सुधार के अपने विचारों को लागू करने में दिक्कत क्यों हो रही है?
मोदी सरकार के आर्थिक फैसलों में एक पैटर्न है। फैसलों पर अगली कार्रवाई, योजना के डिजाइन और कार्यान्वयन में इतना समय लगता है कि जब तक यह पूरा होता है, इसमें इतना नौकरशाही घालमेल हो चुका होता है कि जो हासिल होता है वह कटोरे में परोसी गई जली दाल जैसा लगता है।

उदाहरण के लिए पीएसयू बैंकों में सुधार का क्या हाल है? बिजली क्षेत्र में सुधारों के दो प्रयास तो हादसे ही साबित हो चुके हैं। अब तीसरा प्रयास किया जा रहा है। यही हाल कोयला सेक्टर का है। छह साल में एक भी पीएसयू नहीं बेची जा सकी। मोदी के पहले कार्यकाल में उनकी टीमों ने जो सेल डॉक्यूमेंट तैयार किया वह इतना जटिल था कि उसे समझना लगभग नामुमकिन था।

इसलिए, पहले दो सवालों का जवाब तीसरे में ही है। इन दोनों मोर्चों पर मोदी कमजोर दिखते हैं। वे अपने ही विचारों को लागू करने में विफल रहे हैं।अब जरा 1991 को याद कीजिए। सुधारों के लिए राजनीतिक दिशा राव की अल्पसंख्यक सरकार ने तय की थी, लेकिन उस सरकार के साथ बेहतरीन नौकरशाहों की टीम थी। यह 2009 तक जारी रहा लेकिन इसके बाद कांग्रेस की अंदर की राजनीति ने सुधारों के विचार तक की हत्या कर दी।

उन शेरपाओं की सूची देखिए जिन्होंने सुधारों को स्वरूप प्रदान किया। उनमें तीन श्रेणियां थीं। ‘नौकरशाह-अर्थशास्त्री’ श्रेणी में एनके सिंह, वायवी रेड्डी, डी सुब्बाराव, केपी गीताकृष्णन (सभी आईएएस), ‘अर्थशास्त्री-नौकरशाह’ श्रेणी में मनटेक सिंह अहलुवालिया, बिमल जालान, विजय केलकर, राकेश मोहन थे, तो एएन वर्मा, नरेश चंद्रा जैसे कुछ पक्के ‘नौकरशाह-नौकरशाह’ वाली श्रेणी में थे।

वर्मा और चंद्रा उन दो दशकों में सुधारों से संबंधित हर अहम कमिटी के मुखिया रहे। उनके निर्देश में लिखे जाने वाले मेमो स्पष्ट होते थे और संशोधन के लिए कई मेमो जारी नहीं करने पड़ते थे, जैसा कोरोना काल में हो रहा है।

वे लोग तीन तरह से अलग थे। एक, जो कॅरिअर मुखी नौकरशाह थे वे ‘माई-बाप’ वाली सरकार में अपनी चलाते रहे। दूसरे, अपना अधिकांश जीवन सुधारों से पहले के वर्षों में बिताने के कारण देख चुके थे कि लाइसेंस-कोटा राज ने कैसे तकलीफों को जन्म दिया।

मनटेक और एनके सिंह बताते हैं कि सेक्रेटरी के पद पर होने के बावजूद किस तरह उन्हें न्यूयॉर्क के एक होटल में नहीं ठहरने दिया गया था क्योंकि भारतीय क्रेडिट कार्ड वहां मान्य नहीं थे या जेनेवा के एक होटल में गए इन लोगों को यह एहसास हुआ कि लोग लिफ्ट में पेट्रोल की गंध से पहचान लेते थे कि उसमें कोई भारतीय शख्स चढ़ा था, क्योंकि भारत मेंआधुनिक ड्राइक्लीनिंग मशीन के आयात पर रोक थी। ऐसी यादों ने सुधारों को गति दी।

तीसरे, इस आईएएस ग्रुप को आजीवन अर्थशास्त्री-नौकरशाह रहे लोगों से जोड़ने पर बौद्धिक पलड़ा भारी हुआ। हरेक को आर्थिक मंत्रालय में लंबे समय तक रहने दिया गया। एनके सिंह इसकी मिसाल हैं। आज केवल रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ही अर्थशास्त्री-नौकरशाह हैं।

सिविल सर्विस का मौजूदा नेतृत्व 1985-87 बैच के अधिकतर सचिवों के हाथ में है। इन्हें पता नहीं है कि सुधारों से पहले हम किन चीजों से वंचित रहे। इनमें सुधारों के लिए जज्बा नहीं है, ये लॉकडाउन काल में पुरानी सत्ता का मजा लेना सीख रहे हैं।

जरा एक सिविल सरवेंट की ताकत का अंदाजा लगाइए, जो यह फरमान जारी करता है- ऐ 138 करोड़ बच्चो! तुम्हें रात 9 से सुबह 5 बजे तक कर्फ़्यू में रहना है। और यह भी सुन लो, अगर तुम ग्रीन जोन में हो तो टूटीफ्रूटी आइसक्रीम खा सकते हो, अगर ऑरेंज जोन में हो तो स्ट्राबेरी, और रेड जोन में हो तो वनीला आइसक्रीम ही खा सकते हो और वह भी तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा देंगे। शुक्रिया कहो, जान है तो जहान है! और सुधार, तुम चाहते हो कि मैं अपने अधिकार छोड़ दूं? अभी तो मैंने स्पष्ट मेमो लिखना भी नहीं सीखा है।’
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)



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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’


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