सोमवार, 22 जून 2020

सेरिंग के पति को करगिल में गोली लगी, वीरचक्र मिला, अभी गलवान में तैनात हैं; डिस्किट के पति करगिल में शहीद हुए, अब बेटा चीन सरहद पर ड्यूटी कर रहा है

लेह में एक ‘वॉर हीरो कॉलोनी’ है। सेना और सरकार ने मिलकर ये कॉलोनी बनाई है और युद्ध में लड़नेवालों को यहां पर घर दिए हैं। इनमें करगिल युद्ध में शहीद हुए सैनिकों के परिवार और वीरचक्र, महावीर चक्र, अशोक चक्र पाने वाले वीर खुद अपने परिवारों के साथ रहते हैं। इसके अलावा यहां एवरेस्ट फतह करने वालों को भी कुछ प्लॉट्स दिए गए हैं। इसी कॉलोनी में कुछ ऐसे परिवार भी हैं, जिनके अपने इन दिनों गलवान घाटी और चीन से सटे बाकी इलाकों में पोस्टेड हैं।

सेरिंग के पति सूबेदार दोरजे करगिल युद्ध के दौरान नुब्रा सेक्टर में तैनात थे। पिछले एक महीने से वे गलवान इलाके में हैं, लेकिन सेरिंग के चेहरे पर इसकी जरा भी शिकन नहीं है। सेरिंग कहती हैं, ‘मैंने टीवी पर देखा कि गलवान में कुछ हो रहा है। मेरे पति वहीं पोस्टेड हैं। लेकिन टेंशन नहीं है, खुशी है कि वो देश के लिए काम करने गए हैं।’सेरिंग के तीन बच्चे हैं।एक 18 साल, एक 12 साल और एक 7 साल का है।

सेरिंग ठीक से हिंदी नहीं बोल पातीं। थोड़ी हिंदी-थोड़ी लद्दाखी में वह बताती हैं, ‘एक महीने पहले जब वो घर से निकले थे, उसके बाद से फोन पर भी बात नहीं हुई।’

करगिलयुद्ध के दौरान सूबेदार दोरजे उस पलटन में शामिल रहे थे जो सबसे पहले पेट्रोलिंग पर निकली थी। करगिल युद्ध के लिए वीरचक्र पाने वाले ऑनररी कैप्टन ताशी चैपल सूबेदार दोरजे के बारे में बताते हुए कहते हैं, ‘दोरजे और उनके साथ पैट्रोलिंग पर गए लोगों पर ऊंची पहाड़ियों पर बैठे घुसपैठियों ने अचानक फायरिंग कर दी। उसमें हमारा सूबेदार छोटक शहीद हो गया। सूबेदार दोरजे के पैर में भी गोली लगी। वो बैटल कैजुअल्टी हैं, लेकिन फिर भी गलवान में लड़ने के लिए गए हुए हैं ये हमारे लिए बहुत गर्व की बात है।’

ताशी के मुताबिक, लद्दाख के 500 से ज्यादा लोग चीन बॉर्डर पर लड़ने गए हैं। वो कहते हैं, ‘लद्दाख में हमारा रेजिमेंटल ट्रेनिंग सेंटर है। यहां सेंटर में कुछ लोगों को छोड़कर सारे के सारे फिलहाल गलवान से लेकर देमचोक, पैन्गॉग और बाकी इलाकों में चीन से मुकाबले को तैनात हैं।’

ताशी बताते हैं कि यहां लोग एक-दूसरे से पूछते हैं कि सीमा पर लड़ाई शुरू तो नहीं हो गई? ज्यादातर को यह लगता है कि चीन सीमा के इस पार काफी आगे तक आ चुका है।

ताशी कहते हैं, ‘लद्दाख स्काउट की 5 बटालियन है, उनमें से ज्यादातर उसी इलाके में हैं। हम चाहते भी हैं, हमारे लोगों को वहां पोस्टिंग मिले। क्योंकि हम यहां के रहने वाले हैं। हमें एक्लेमेटाइजेशन करने की जरूरत नहीं है। हम यहीं पैदा हुए हैं, पहाड़ी में चढ़ सकते हैं, हम दक्षिण भारत के लोगों से ज्यादा सर्दी बर्दाश्त कर सकते हैं। इसलिए हमारे लोगों की पोस्टिंग वहां होना भी चाहिए।’

एयरफोर्स ने लेह में मौजूद मीडियावालों को फाइटर प्लेन के वीडियो बनाने से रोका

आसमान में उड़ते फाइटर प्लेन लेह के लोगों को कैसे करगिल युद्ध की याद दिला रहे हैं?

नीलजा अन्गमो के पति सूबेदार जोलवन भी एक महीने पहले गलवान गए हैं। वे 4-लद्दाख स्काउट में पोस्टेड हैं। नीलजा की उनसे एक महीने से कोई बात नहीं हुई। वे बताती हैं, ‘वो लोग जब एक महीने पहले गलवान के लिए निकले तो हमें बताया भी नहीं। जल्दबाजी में निकले। पहले बोल रहे थे नहीं जाऊंगा, लेकिन फिर चले गए। वैसे हमने रोका नहीं।’

नीलजा (लाल सूट में) कहती हैं, "मेरे चार बच्चे हैं, वो दिन में कई बार पूछते हैं कि पापा फोन क्यों नहीं कर रहे? मेरे पास इसका जवाब नहीं होता।"

नीलजा बताती हैं, "उधर तो फोन भी नहीं चल रहा तो बात नहीं होती। वरना जहां भी पोस्टिंग जाते थे तो दिन में कम से तीन बार घर पर फोन करते थे। ये पहली बार है, जब इतने साल की नौकरी में एक महीने तक फोन नहीं किया। वहां क्या हो रहा है हमको नहीं पता, टीवी पर जो देखते हैं वही पता होता है।"

हमारे 20 सैनिक शहीद हुए ये खबर मालूम हुई तो इस वॉर हीरो कॉलोनी में अजीब मायूसी छा गई। नीलजा कहती हैं, 'वह खबर सुनकर यहां सन्नाटा पसर गया था। बहुत दुख हुआ कि हमारे सैनिक शहीद हो गए।'

रसूल गलवान की चौथी पीढ़ी को अपने दादा के अब्बा की पूरी कहानी पिछले हफ्ते ही पता चली है

लद्दाख के टूरिज्म को 400 करोड़ का नुकसान, इतना तो करगिल युद्ध के वक्त भी नहीं हुआ था

शहादत इस कॉलोनी के लिए नई बात नहीं। डिस्किट डोलमा के पति करगिल में शहीद हुए थे। वे गर्व से बतातीं हैं कि बेटा अभी चुशूल में चीन सीमा पर पोस्टेड है। पति को याद करते हुए कहती हैं, ‘मेरे पति की लद्दाख से बाहर पोस्टिंग थी। छुट्‌टी में आए थे, लेकिन जम्मू पहुंचकर बोले कि मुझे करगिल लड़ाई में जाना है। ऐसा बोलकर करगिल चले गए और फिर लौटे ही नहीं।’

डिस्किट के बेटे को आर्मी में भर्ती हुए 5 साल हो गए हैं, जब भर्ती हुआ तो उम्र सिर्फ 17 साल थी। पिता शहीद हुए उसके पंद्रह साल बाद बेटा सेना में भर्ती हो गया। वे कहती हैं, ‘बेटा बोलता था मैं पापा की जगह लेना चाहता हूं। मेरे पति शहीद हुए और अपने पापा के लिए बेटा भी आर्मी में चला गया। मेरे लिए ये बहुत गर्व की बात है।’

डिस्किट को भी अपने बेटे से बात किए एक महीना बीत चुका है।

डिस्किट बताती हैं, ‘बेटा पैन्गॉन्ग पहुंचा तो उसने फोन किया कि मैं ऊपर पोस्ट पर जा रहा हूं इसके बाद फोन बंद हो जाएगा। इसके बाद उसका अभी तक फोन नहीं आ रहा। मुझे चिंता होती है, तो जो आर्मी वालों की फैमिली है उनको फोन करके पूछती हूं। आपको फोन आया क्या? सब बोलते हैं हमें तो फोन आया लेकिन जहां आपका बेटा है वहां फोन नहीं है। मैंने तो अब सबकुछ ऊपर वाले पर छोड़ रखा है।’

ऑनररी कैप्टन सोनम वांगचुक परतापुर, ग्लेशियर, देमचोक, चुमूर में 30 साल ड्यूटी कर चुके हैं। इन इलाकों में चीन और भारतीय सेना आमने-सामने है। वेबताते हैं, "पहले भी वहां चीनी पेट्रोलिंग करने आते थे। वो पहले आते तो हम चुपचाप बैठ जाते थे। फिर हम जाकर उनकी तरह ही पैट्रोलिंग करते थे। कभी-कभी दोनों मिलते भी थे लेकिन कोई टेंशन नहीं होता था। कभी वो रुक जाते थे, कभी हम।"

सोनम वांगचुक बताते हैं, "30 साल मैं फौज में रहा, 2007 में रिटायर हुआ, लेकिन पहली बार सुना कि हमने वहां 20 सैनिक खो दिए हैं।"

सोनम कहते हैं, "दोनों सेना थोड़ी बहुत मिलती थी आमने-सामने, चुशूल में फ्लैग मीटिंग होती थी लेकिन मुक्केबाजी नहीं होती थी। अपने अफसर और चाइना के अफसर बात करते थे। फिर वो चले जाते थे। मुठभेड़ मैंने तो नहीं देखी।"

पुरानी बात: चीनी सैनिक लाउडस्पीकर पर ‘तन डोले मेरा मन डोले’ गाना बजाते थे और फिर कहते थे- सर्दी आने वाली है, पोस्ट छोड़ दो

गलवान में 15 जून की रात की कहानी: जब भारतीय कर्नल को चीन के जवान ने मारा तो 16 बिहार रेजिमेंट के 40 जवान उस पर टूट पड़े थे

फिलहाल गलवान की तरफ जाने वाले रास्ते आम लोगों और मीडिया के लिए बंद है। गलवान जाना हमारे लिए संभव नहीं इसलिए हमनेउन लोगों से वहां की आबोहवा और बनावट की जानकारी लेने की कोशिश की जो वहां पोस्टेड रह चुके हैं।

गलवान के लिए पहले सड़क नहीं थी, 200 किमी चलना पड़ता था

कैप्टन ताशी ने 30 साल की सर्विस में 16 साल गलवान नाले के आसपास सरहद पर ड्यूटी की है। वे कहते हैं, ‘पहले सड़क नहीं थी पैदल 200 किमी चलना पड़ता था। खच्चर पर सामान लेकर जाते थे। परतापुर से वहां तक पहुंचने में 21 दिन लगते थे। सियाचीन ग्लेशियर में सबसे बुरी हालत थी। उस समय स्पेशल राशन और कपड़े नहीं मिलते थे। हम बर्फ में सोते थे, सुबह उठें तब-तक बर्फ में धंस जाते थे।’

ऑनररी कैप्टन ताशी चैपल की यह तस्वीर परमवीर चक्र लेने के दौरान खींची गई थी।

ताशी कहते हैं, ‘हम जब रास्ते में जाते थे तो गलवान नाले के आसपास खच्चर के लिए घास का खुला मैदान मिल जाता था। तंबू लगाकर 2-3 दिन खच्चरों को वहीं रखते थे, आराम करते थे। अभी सुना है वहां चाइना बैठा है, कब से ये हमें नहीं पता।’

ताशी यह भी बताते हैं, ‘गलवान नाला दोनों ओर से खुला है, बीच में नाला है, नीचे श्योक नदी बहती है। अब वहां सड़क भी बन गई है। अब गाड़ी जाती है। सुबह लेह से निकलो तो 4 घंटे में गलवान पहुंच जाते हैं।’

ताशी बताते हैं कि लोग बोल रहे हैं गलवान में फिंगर 8 तक चीन आ गया है। ऐसे ही चुमूर में भी चीनी आ गए हैं। सच है कि झूठ है वो देखेंगे तो पता चलेगा। ताशी के मुताबिक, पहले और आज के वक्त में जमीन आसमान का अंतर हो गया है। ये 1962 नहीं है। इंडिया के पास सबकुछ है। न्यूक्लियर हथियार है, चीन के पास भी है। किसी चीज की कमी नहीं है। यदि चीन हरकत करेगा तो हम जमकर मुकाबला करेंगे।



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
war hero colony of leh story of soldiers posted in galwan valley india china border


from Dainik Bhaskar https://ift.tt/2NirjES
https://ift.tt/2NuUSTX

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

If you have any doubt, please let me know.

Popular Post