बुधवार, 15 जुलाई 2020

लोकतंत्र और सभ्य समाज में न्यायिक प्रक्रिया के वास्तव में चार उद्देश्य होने चाहिए- रोक, दंड, सुधार और पुनर्वास

महिला सुरक्षा पर बात होने पर परिवार की बुजुर्ग महिलाओं ने मुझे समझाने की कोशिश की कि जब तक घृणित अपराधों के लिए मृत्युदंड जैसी कड़ी सजा नहीं दी जाएगी, तब तक समाधान नहीं होगा। उनकी धारणा है कि आजीवन कारावास कोई सजा ही नहीं है। मैंने कहा अपने लिए आजीवन कारावास की कल्पना करें, तब उन्हें एहसास हुआ कि वह कितना भयावह होगा।

लोकतंत्र और सभ्य समाज में न्यायिक प्रक्रिया के वास्तव में चार उद्देश्य होने चाहिए- रोक, दंड, सुधार और पुनर्वास। आम लोगों की सोच में दो पहलू ही सामने आते हैं। तीसरे और चौथे पहलू को समझने के लिए तीन उदाहरण ले लीजिए। पहला उदाहरण है शाहिद (आजमी) नाम के वकील का, जिसकी जिंदगी पर फिल्म भी बनी।

मुंबई में 1992 के हिंदू-मुस्लिम फसाद के बाद उसे झूठे केस में फंसाया गया और सबूत के अभाव में छोड़ दिया गया। कुछ साल बाद टाडा के तहत उसे दिल्ली की तिहाड़ जेल में सात साल बिताने पड़े। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरी होकर उसने वकालत की पढ़ाई की। फिर झूठे मामलों में फंसे लोगों के केस लड़े और 17 लोगों को रिहा करवाया। 2010 में उसकी हत्या कर दी गई। हत्यारों को अब तक सजा नहीं मिली।

अगला किस्सा है फूलन देवी का। पति द्वारा उत्पीड़ित दलित महिला डाकुओं के गिरोह में शामिल हो गई। कुछ समय बाद उसके साथ दुष्कर्म हुआ। एक साथी ने उसे बचाया और दोनों साथ हो लिए। फिर झगड़ा होने पर गिरोह के कुछ लोगों ने हफ्तों उसके साथ दुष्कर्म किया। जब वह बचकर निकली तो 22 लोगों की हत्या कर दी। 11 साल जेल में रही। रिहा होकर दो बार सांसद बनी।

2001 में फूलन देवी की हत्या हो गई। हत्यारे को 2014 में उम्रकैद दी गई। फूलन ने गुनाह जरूर किया, लेकिन जिन परिस्थितियों में अपराध हुए, उसके चलते सज़ा के साथ-साथ, नए सिरे से जिंदगी जीने का मौका मिलना चाहिए था।

मनोरंजन ब्यापारी की कहानी प्रेरक है। गरीब दलित होने के कारण वे पढ़ नहीं पाए और शोषण झेला। फिर जेल में डाल दिए गए जहां किसी ने पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। ब्यापारी आज प्रसिद्ध बंगाली लेखक हैं। जेलों में कई ऐसे मनोरंजन, शाहिद, फूलन हो सकते हैं, जो परिस्थितिवश वहां पहुंचे। कहीं इसका कारण झूठे इल्जाम, कहीं बदला तो कहीं अन्याय के खिलाफ गैरकानूनी लड़ाई है।

इनमें कई लोग ऐसे हैं, जिन्हें मौका मिले तो समाज में बड़ा योगदान दे सकते हैं, बशर्ते सामाजिक स्तर पर हम उन्हें दूसरा मौका देने के लिए तैयार हों। इस तरह के छोटे प्रयोग कई जगह हो रहे हैं। जैसे शिमला में कैदी कैफे चला रहे हैं और केरल में कैदी मास्क बना रहे हैं।

पिछले दिनों यूपी में हमने देखा कि सरकार और प्रशासन इसे खुद कमज़ोर बना रहे हैं। यदि यूपी में हुई घटनाओं को सामाजिक स्वीकृति देते हैं, न्यायोचित ठहराते हैं तो देश में जंगलराज फैलने का डर है। इसका त्वरित जवाब ज़रूर मिलेगा, लेकिन वह शिकार ज्यादा और न्याय कम होगा। आज पुलिसकर्मी मारे जाएंगे, कल कोई अपराधी और परसों?

कुछ लोग मानते हैं कि विशेष प्रकार के लोग (किसी वर्ग, जाति, धर्म, लिंग, इत्यादि) हिंसा और जुर्म करते हैं। यदि यह धारणा सही है, तो निष्कर्ष यह है कि उस एक व्यक्ति को फांसी देने या एनकाउंटर करने से समस्या हल नहीं होगी। हमें उन सामाजिक और राजनैतिक कारणों को समझना होगा जिनसे लोग जुर्म की ओर जाते हैं।

हमें ऐसी न्यायिक प्रक्रिया की मांग करनी चाहिए जिसे हम अपने खिलाफ स्वीकार करने को तैयार हों। यानी, यदि हम खुद कटघरे में हों, जुर्म के आरोपी या अपराधी हों, तो न्यायिक व्यवस्था से हमें क्या उम्मीद होगी? अपना पक्ष रखने के मौके से पहले ही एनकाउंटर? अपराधी करार दिए जाने के बाद मृत्युदंड? या शाहिद, फूलन देवी या मनोरंजन ब्यापारी की तरह सुधार और पुनर्वास का अवसर भी?

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)



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रीतिका खेड़ा, अर्थशास्त्री, दिल्ली आईआईटी में पढ़ाती हैं


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