अदालतों और जजों की अवमानना मामले में दोषी वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण के खिलाफ आज सुप्रीम कोर्ट सजा का ऐलान कर सकता है। कोर्ट ने प्रशांत भूषण को माफी मांगने के लिए तीन दिन का वक्त दिया था जो सोमवार को खत्म हो गया। उधर, प्रशांत भूषण ने माफी मांगने से इनकार कर दिया है। उन्होंने कहा कि मैंने जो कहा, वह हकीकत है। अब शर्त के साथ या बिना शर्त माफी मांगी तो यह गलत होगा। अगर बेमन से माफी मांगी तो अंतरात्मा की अवमानना हो जाएगी। इस पूरे मामले को लेकर उनके सहयोगी और स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव से हमने विशेष बातचीत की। विस्तार से पढ़िए उन्होंने पूरे मामले को लेकर क्या कुछ कहा....
सवाल: ये मामला इतना बड़ा क्यों बन गया? प्रशांत भूषण ने जिस मामले को लेकर ट्वीट किया था वो अदालत के बाहर का मामला था फिर भी इस पर सुनवाई हुई, उन्हें दोषी भी करार दिया गया और अब सजा सुनाने की तैयारी है।
जवाब: आपका प्रश्न बहुत अच्छा है, लेकिन आप गलत व्यक्ति से पूछ रहे हैं। मैं समझता हूं इस प्रश्न का उत्तर सुप्रीम कोर्ट से पूछना चाहिए। जब सुप्रीम कोर्ट ने सभी हियरिंग रोक रखी है, केवल बहुत अहम मामलों की सुनवाई हो रही है। वैसे समय में दो ट्वीट को लेकर, कहीं से गड़े मुर्दे उखाड़कर लाना, बारह और आठ साल से जिस मामले की सुनवाई नहीं हुई है, उस पर सुनवाई शुरू करना। इसको लेकर इतनी जल्दी और क्या जरूरत थी वो तो सुप्रीम कोर्ट ही बता सकता है। सुप्रीम कोर्ट एक ऐसे याचिका पर सुनवाई कर रहा है जिसे अगर आप अपने वेब पोर्टल पर छाप दें तो आपके पाठक हंसते-हंसते लोटपोट हो जाएंगे।
उस पिटीशनर को ये नहीं पता कि प्रशांत भूषण आदमी है या औरत। वह जिस तरह की भाषा का प्रयोग करता है, अगर वैसी भाषा में 11वीं का कोई छात्र कुछ लिखकर अपने शिक्षक के पास ले जाए तो वो शिक्षक उससे कहेगा- इस साल तुम 12वीं की परीक्षा में मत बैठना। अगर इस तरह का कोई पिटीशन सेशन कोर्ट में आप लगाएंगे तो जज उसे आपके मुंह पर फेंक देगा। मैंने देखा है, जजों को ऐसा करते हुए।
ऐसी एक पिटीशन पर सुप्रीम कोर्ट विचार क्यों कर रहा है वो तो आपको जज साहब ही बताएंगे। जब कानून ये कहता है कि अवमानना से जुड़ी हर पिटीशन को पहले अटॉर्नी जनरल के पास ले जाना अनिवार्य है तो ये मामला क्यों उनके पास नहीं ले जाया गया? ये तो कोर्ट ही बताएगा। जिस कोर्ट में 31 जज हैं, वहां जस्टिस अरुण मिश्रा के पास ही ये केस क्यों गया? दूसरा केस भी इन्हीं जज साहब के पास क्यों लगा? तीसरा, अरूण शौरी और एन राम का केस भी इनके पास ही क्यों आया? इन सभी प्रश्नों के उत्तर तो माननीय न्यायधीश ही बता पाएंगे।
सवाल: दोषी ठहराए जाने के बाद जब प्रशांत भूषण ने कह दिया कि वो माफी नहीं मांगना चाहते। उसके बाद भी अदालत ने दो दिन का समय दे दिया। इस दरियादिली का क्या मतलब है?
जवाब: मैंने माफी मांगने वाले को तो गिड़गिड़ाते हुए देखा है,लेकिन माफी मंगवाने वाले को पहले कभी इस मुद्रा में नहीं देखा। मुझे लगता है कि इस मामले में भी कुछ-कुछ वैसा ही हुआ जैसा महात्मा गांधी के ट्रायल के वक्त हुआ था। उनका ट्रायल पहले बिहार के चंपारण में हुआ था, फिर चौरीचारा वाले कांड में हुआ। उस वक्त एक अद्भुत बात हुई थी। थोड़े ही समय बाद गांधी की ट्रायल के बजाए अंग्रेजी राज की ट्रायल हो गई थी।
कटघरे में कौन खड़ा है, ये बदल चुका था। गांधी बाहर थे और पूरी अंग्रेजी हुकूमत कटघरे में थी। मैं समझता हूं कि प्रशांत भूषण वाले इस मामले में 20 सितंबर को जो हुआ वो यही था। प्रशांत भूषण बेंच पर बैठे थे और कटघरे में पूरी ज्यूडिशियरी आ गई और उन्हें पता लग गया कि ऐसा कुछ हो गया है। यहीं आपके सवाल का जवाब है। इस मामले में जो पक्ष कटघरे में खड़ा था वो मोहलत मांग रहा था या आप कहें कि मना करने के बाद भी मोहलत दे रहा था।
सवाल: अगर प्रशांत भूषण को सजा होती है या उन्हें जेल पाना पड़ता है तो सड़क पर कोई आंदोलन होगा? ये सवाल इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि प्रशांत भूषण भी माफी नहीं मांगने पर अड़े हुए हैं।
जवाब: पहली बात तो हमें ये समझनी होगी कि प्रशांत भूषण अड़े नहीं हैं। प्रशांत भूषण ने उस दिन अपनी चिट्ठी में क्या कहा? उन्होंने कहा कि अगर मैं किसी बात को सच मानता हूं। उस दिन मानता था जब वो बात कही। आज मानता हूं जब मुझसे माफी मांगने के लिए कहा जा रहा है तो ऐसे में अगर मैं माफी मांग भी लेता हूं तो वो एक झूठी माफी होगी। देश की सर्वोच्च अदालत के सामने झूठी माफी मांगना उसकी असल तौहीन है। अवमानना है और ये मैं नहीं कर सकता।
हम सब जानते हैं कि बचने के लिए झूठी माफी मांगना इस देश की परम्परा बन चुकी है। बड़े-बड़े लोग खुल्लम खुल्ला झूठी माफी मांगते रहते हैं, लेकिन प्रशांत भूषण ने यही कहा है कि वो केवल सजा से बचने के लिए झूठी माफी नहीं मागेंगे। मुझे खुशी है कि वो ये बात कह रहे हैं।
अब आते हैं सवाल के दूसरे हिस्से पर कि क्या इससे कोई आंदोलन पैदा होगा? मेरे हिसाब से अभी ये कहना जल्दबाज़ी होगी कि इससे कोई बड़ा आंदोलन खड़ा हो जाएगा। हां, इस पूरे वाकये से इतना तो हुआ है कि बड़ी संख्या में लोगों ने कहना शुरू किया कि इस देश में कोई तो रेजिस्टेंस (प्रतिरोध) है। लोगों ने कहना शुरू किया कि एक ऐसा व्यक्ति तो है जो बोल रहा है। कुछ मीनिंगफुल बोल रहा है।
प्रशांत भूषण के बोलने में सिर्फ शब्दों का महत्व नहीं है। शब्द का असल महत्व तब होता है जब बोलने वाला उसे सही मायने में धारण करता है। प्रशांत भूषण केवल उन शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, वो उन्हें धारण कर रहे हैं और इसी वजह से उनका ये बोलना देश के सैकड़ों, हजारों या लाखों लोगों को एक ताक़त देता है। उन्हें ऊपर उठाता है तो इसका जरूर असर होगा और इस वक्त हमारे देश में लोकतंत्र की जो हालत है उसमें ये एक टर्निंग प्वाइंट हो सकता है।
सवाल: क्या योगेन्द्र यादव इस पूरे मामले को एक मौके के तौर पर भी देख रहे हैं? क्या स्वराज इंडिया के बैनर तले आंदोलन होगा?
जवाब: संगठन की तरफ से तो हम इसे एक मौके की तरह तो बिलकुल नहीं देखते। हमारे लिए तो ये एक आपदा थी। इस वजह से एक बात हुई है। देश के एक बड़े हिस्से में प्रतिरोध की आवाज़ उठी है। इसे मैं प्रतिरोध की एक किरण मानता हूं जो घोर अंधकार के माहौल में दिखाई दे रही है। ऐसे में ये सोचने की जरूरत नहीं है कि इसमें स्वराज इंडिया के लिए लिया क्या अवसर है या योगेन्द्र यादव क्या करेंगे। अभी ये सोचा जाना चाहिए कि आज जिस तरह से देश में लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा, उसके प्रतिरोध के लिए क्या अवसर है।
सवाल: इस मौके पर आप लोगों को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की तरफ से से कोई संदेश, कोई समर्थन मिला है क्या?
जवाब: मेरी तो उनसे कई वर्षों से कोई बात नहीं हुई है…
सवाल: ये तो एक तरह से जगजाहिर है। मैं इस प्रकरण के संदर्भ में पूछ रहा हूं।
जवाब: नहीं। बिलकुल नहीं। ऐसे मसलों पर प्राइवेट सपोर्ट का तो कोई मतलब ही नहीं होता। यहां कोई दिलासा थोड़े ना दिलाना है। न ऐसा कोई संदेश आया है और न ही इसका कोई मतलब है। ऐसे मौकों पर जो सार्वजनिक तौर से बोलता है वही सपोर्ट है। अगर प्राइवेट में फोन करके कोई बोल भी दे तो उसका कोई अर्थ नहीं है। यहां मैं एक बार और साफ कर दूं कि ऐसा कोई फोन या संदेश नहीं आया। ये फिर एक ऐसा सवाल है जो आपको उनसे पूछना चाहिए।
इस दौरान मैंने एक भी ऐसे व्यक्ति का समर्थन या बयान नहीं दिखा जो खुद को प्रशांत भूषण का सहयोगी बताते थे। एक समय में ख़ुद को उनके बहुत नजदीकी समझते थे। ये कैसी राजनीति है जिसमें न्यूनतम अधिकारों के हनन पर भी उन्हें चुप्पी साधनी पड़ रही है? ये तो रहने दीजिए। वो दिल्ली के दंगों पर नहीं बोल सकते हैं। सीएए जैसा एक क़ानून आता है उसके बारे में नहीं बोल सकते। कश्मीर पर तो बोल ही नहीं सकते हैं। भगवान ही जाने कि ये उनकी कैसी राजनीति है।
सवाल: सोशल मीडिया पर कुछ लोग उनके पुराने ट्वीट को शेयर कर रहे हैं जिसमें जस्टिस कर्णन को सजा मिलने पर उन्होंने ख़ुशी ज़ाहिर की थी। क्या आपको लगता है कि तब प्रशांत भूषण का स्टैंड गलत था?
जवाब: मैं हैरान हूं उन चीजों को पढ़ते हुए। देखते हुए। अगर प्रशांत भूषण ने कभी ये कहा हो कि इस देश में कोर्ट की अवमानना का कोई कानून होना ही नहीं चाहिए तब आप जरूर उन्हें दोषी ठहरा सकते हैं। मैं खुद ये मानता हूं कि इस देश में अवमानना का कानून होना चाहिए। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं? वो इसलिए क्योंकि अगर कल को सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले को सरकार ने या उसके किसी अंग ने मानने से मना कर दिया तो कोर्ट क्या करेगा?
ऐसे में कोर्ट के पास कोई तो पावर होनी चाहिए कि वो ऐसा करने वाले को दंड दे सके। मान लीजिए, कल को किसी राज्य का पुलिस प्रमुख कहता है कि भले सुप्रीम कोर्ट ने अमुख व्यक्ति को छोड़ने का आदेश दे दिया है लेकिन हम नहीं छोड़ेंगे तो कोर्ट के पास कोई एक ऐसी पावर तो होना चाहिए जिसकी मदद से वो अपने फैसले को लागू करवाए। ‘अदालत की अवमाना’ एक अंतर्निहित शक्ति है जो कोर्ट के पास होनी चाहिए। इस शक्ति का मुख्य प्रयोजन ये है कि जहां कोर्ट को अपने किसी आदेश को लागू करवाने में अरचन आ रही हो वहां वो इसका प्रयोग करे और अपने आदेश को लागू करवाए।
जस्टिस कर्णन वाले केस में समस्या केवल इतनी नहीं थी कि वो दूसरे जजों पर आरोप लगा रहे थे। इस मामले में भी मेरा मानना है कि ऐसा उन्हें अपने पद पर रहते हुए ऐसा नहीं करना चाहिए था। वो पहले अपने पद से हटते फिर आरोप लगाते। सबसे बड़ी बात ये थी कि वो ऐसे आदेश पास कर रहे थे जो सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू होने से रोक रहे थे। वो जज की हैसियत से पुलिस के अधिकारियों को आदेश दे रहे थे कि जाओ और सुप्रीम कोर्ट के जज को गिरफ्तार करो।
ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट को तो अपने पावर का इस्तेमाल करना ही पड़ेगा नहीं तो कौन करेगा? अभी जो लोग ऐसा कह रहे हैं मैं उन्हीं से पूछ रहा हूं- एक हाईकोर्ट के जज पुलिस को आदेश दे रहे हैं कि मैंने सुप्रीम कोर्ट के जज को पांच साल की सजा सुनाई है। जाओ और उसे गिरफ़्तार करो। क्या पुलिस कह सकती है कि हम आदेश नहीं मानेंगे? जो लोग अभी जस्टिस कर्णन का मामला उठा रहे हैं वही बताएं कि इस हालात से कैसे निपटा जा सकता था? मैं उनके विवेक पर ही इस मसले को छोड़ना चाहता हूं।
सवाल: पिछले दिनों कथित तौर पर शाहीन बाग आंदोलन से जुड़े कुछ लोगों ने बीजेपी की सदस्यता ली। इसके बाद आम आदमी पार्टी ने कहा कि शाहीन बाग का पूरा आंदोलन बीजेपी द्वारा पोषित था। आप इन मंचों पर गए हैं। क्या आप एक ऐसे आंदोलन का हिस्सा थे जिसे पर्दे के पीछे से बीजेपी चला रही थी?
जवाब: मैं बारी-बारी से दोनों पार्टियों से पूछना चाहता हूं। सबसे पहले बीजेपी से। जब हम किसी आंदोलन से जुड़े लोगों को, चेहरों को अपनी पार्टी में शामिल करवाते हैं तो हम मानते हैं कि अमुक आंदोलन सही था। जरूरी था और उसके होने से देश को फायदा हुआ है। अब अगर बीजेपी वाले कह रहे हैं कि जिन लोगों ने उनकी पार्टी की सदस्यता ली है वो आंदोलन से जुड़े थे तो इसका मतलब हुआ कि वो देशभर में सीएए और एनआरसी के खिलाफ चले आंदोलनों का समर्थन कर रहे हैं। अगर वो ऐसा कर रहे हैं तो मुझे व्यक्तिगत तौर पर ख़ुशी है। वो खुलकर सामने आएं और इसका समर्थन करें। अगर बीजेपी सीएए और एनआरसी पर अपना स्टैंड बदलती है तो किसे ऐतराज होगा?
अब आते हैं आम आदमी पार्टी पर। अगर वो ये कह रहे हैं कि चुकी कुछ लोगों ने बीजेपी ज्वॉइन कर ली है तो पूरा आंदोलन ही बीजेपी के द्वारा चलाया जा रहा था तो क्या वो इस बात का कोई प्रमाण देंगे? अगर मुझे ठीक से याद है तो जब ये आंदोलन चल रहा था तो इसी पार्टी के एक-दो नेताओं ने वहां जाकर समर्थन भी दिया था तो क्या ये माना जाए कि उनके माध्यम से तब आम आदमी पार्टी, बीजेपी के साथ संपर्क बना रही थी?
या फिर ये सब एक घटिया राजनैतिक पैंतरेबाज़ी है जो हमने दिल्ली दंगों के वक्त भी देखा और सीएए और एनआरसी प्रदर्शनों के दौरान भी देखा। ऐसा लगता है कि आम आदमी पार्टी हिंदू वोटों की मंडी में एक और दुकान लगाना चाहती है। अगर वो ऐसा करना चाहते हैं तो खुलकर करें। क्या वो कहेंगे कि सीएए और एनआरसी के खिलाफ जो प्रदर्शन देशभर में हुए वो राष्ट्रविरोधी थे? क्या वो सीएए का समर्थन करते हैं?
ये सारा घटनाक्रम बताता है कि हमारे देश की राजनीति में कितनी खोखली हो गई है। इस देश में जो राजनैतिक शून्य आ गया है ये सब उसी का नमूना है। पिछले कुछ समय से आम आदमी पार्टी जिस तरह की राजनीति कर रही है वो और कुछ भी हो सकता है लेकिन वैकल्पिक राजनीति तो नहीं ही है।
सवाल: देश में एक वर्ग ऐसा है जो इस वक्त की राजनीति से निराश है, उन्हें कोई उम्मीद नहीं दिखती। मैं आपको एक लाइव कार्यक्रम में सुन रहा था। आप कह रहे थे कि आपको उम्मीद दिखती है। क्या वजह है इसकी?
जवाब: जब इस देश में इमरजेंसी लगी थी तो मेरी उम्र बारह साल थी। मैं इतना बड़ा तो नहीं था कि कुछ कर पाता लेकिन इतना बड़ा ज़रूर था कि हालात को समझ सकूं। मैंने उस वक्त की निराशा देखी है। 1976 की बात बता रहा हूं हर तरफ एक ना-उम्मीदी थी। सबको लगता था कि अब इस देश में कुछ नहीं हो सकता लेकिन मुझे वो दिन भी याद हैं जिममें 1977 का चुनाव है और इस चुनाव के ठीक पहले के दिन हैं। एक अलग ही ऊर्जा आ गई। हर तरफ। पता नहीं ये शक्ति कहां थी लेकिन अचानक आई और सब कुछ बदल गया। इसीलिए मैं कहता हूं कि समाज में एक सुप्त ऊर्जा होती है।
इस ऊर्जा का आभास वैसे तो नहीं होता लेकिन किसी घटना के घटते ही ये अपना कमाल दिखा देती है। इस वक्त देश में बड़ी मात्रा में ये सुप्त ऊर्जा है, लेकिन वो मृत पड़ी है क्योंकि बीजेपी का वर्चस्व दिखाई दे रहा है। विपक्षी पार्टियों में केवल ऊर्जा की कमी नहीं है बल्कि वो पूरी तरह से दिशा विहीन दिख रहे हैं। ऐसे माहौल में जनता में एक नैराश्य बोध का आना स्वभाविक है। यही वजह है कि प्रशांत भूषण से जुड़े इस मामले में इतनी चर्चा हो रही है क्योंकि जब घोर अंधकार में एक दिया जलता है तो वो बहुत दूर से दिखाई देता है। मैं इस दीए के करीब हूं तो इतना कह सकता हूं कि ये दीया दो नंबर का नहीं है और इसमें डालडा तेल नहीं मिला है (हंसते हुए)।
सवाल: आजकल जब आप अपने लेख में या भाषणों में कहते हैं कि इस देश के सेक्युलर ने ये गलती की। इस देश में बुद्धिजीवियों ने यहां कमी छोड़ दी तो इसका क्या मतलब है? करने वाले आप ही लोग तो थे? अब आप ही कह भी रहे हैं। थोड़ा कन्फ्यूजन है। इसे साफ कीजिए।
जवाब: अब आपके इस सवाल से मुझे मेरे बुजुर्ग होने का अहसास हो रहा है। जब मैं ऐसा कह रहा हूं या लिख रहा हूं तो उसमें मेरी समझ में कोई कन्फ्यूजन नहीं है। ऐसा कहने में एक आत्मआलोचना है। मैं खुद को इससे बाहर मानकर कुछ भी नहीं कहता या लिखता। मैंने खुद इसमें उतना ही शामिल हूं जितना कोई और। मेरा मानना है कि मेरे पिताजी की पीढ़ी और मेरी पीढ़ी ने इस देश का बड़ा नुक़सान किया है। आज जो हम भुगत रहे हैं वो इन्हीं गलतियों का परिणाम है। इस देश के जो बुनियादी मूल्य थे। स्वतंत्रता आंदोलन वाली पीढ़ी यानी मेरे दादा की पीढ़ी ने लाख संघर्षों के बाद इस देश को जो संविधान दिया था, जो मूल्य दिए थे।
उस संविधान, मूल्य और आज़ादी की विरासत जैसी पूंजी को बाद की पीढ़ी ने आगे नहीं बढ़ाया। ये कोई ऐसी पूंजी नहीं है जिसे बैंक में रख दिया और वो ख़ुद ही बढ़ती रहे। इस पूंजी को हर दस-पंद्रह साल में पुनर्जीवित करना होता है। मेरे पिताजी और मेरी पीढ़ी का अपराध ये है कि हमने ये मान लिया कि ‘संविधान, मूल्यों और आज़ादी की विरासत’ की पूंजी अपने-आप बढ़ती रहेगी। जो न होना था और न हुआ।
आप कह सकते हैं कि मैं अब उसी अपराध की भरपाई करने की कोशिश कर रहा हूं। अगर मैं एक उंगली बीजेपी या आरएसएस की तरफ उठा रहा हूं जो कि बहुत ज़रूरी है क्योंकि वो देश को तोड़ने वाली राजनीति कर रहे हैं तो तीन उंगलियां मेरे ख़ुद की तरफ भी उठ रही हैं। आज के हालात बताते हैं कि हम जैसे लोग फ़ेल हुए। इसे हम जितनी जल्दी मान लेंगे और इस पर काम शुरू करेंगे उनता ही भला होगा। अब इससे किसी का नुकसान नहीं होने वाला जो होना था वो हो चुका।
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