भारत के पड़ोसियों में नेपाल ऐसा आखिरी देश होगा, जिससे भारत को कभी सुरक्षा संबंधी खतरे की आशंका होगी। ऐसा इसलिए क्योंकि भारत-नेपाल के संबंंध खास माने जाते हैं। आपको ऐसे बहुत देश नहीं मिलेंगे, जिसके पड़ोसी उन्हें उनकी सेना का हिस्सा बनने के लिए सैनिक उपलब्ध करवाते हों। भारतीय सेना में 38 इन्फैन्ट्री यूनिट्स नेपाल के मशहूर गोरखाओं की हैं।
कम से कम 38,000 नेपाली गोरखा भारतीय सेना को सेवाएं दे रहे हैं, जिसका नेपाल में भर्ती और पेंशन देने वाला ऑफिस भी है। जम्मू-कश्मीर में सीमा पर गोरखा सैनिक अब भी बलिदान देते हैं। ‘भारत-नेपाल शांति तथा मैत्री संधि, 1950’ ने संबंधों का आधार तैयार किया था। संधि के प्रावधानों के तहत नेपाली नागरिकों ने भारत में भारतीय नागरिकों जैसी सुविधाओं और अवसरों का लाभ उठाया। करीब 60 लाख नेपाली नागरिक भारत में रहते और काम करते हैं।
तो यह खास संबंध खराब कैसे हुए? इसके पीछे दो कारण थे। पहला, नेपाली राजनेताओं की नेपाल के रणनीतिक हितों पर ज्यादा नियंत्रण पाने की महत्वाकांक्षा, जो उन्हें लगता है कि भारतीय हितों के अधीन है। दूसरा, नेपाल के चीन के साथ संबंध। दो एशियाई शक्तियों के बीच स्थित नेपाल ने दोनों देशों से भरपूर लाभ उठाने में अपनी भू-रणनीतिक स्थिति का फायदा उठाया।
खासतौर पर 1975 के बाद से, जब भारत ने नेपाल के पड़ोसी राज्य सिक्किम को अपना हिस्सा बना लिया। भारत के संकोच के बावजूद नेपाल अपने क्षेत्र को ‘शांति-क्षेत्र’ घोषित करना चाहता था, जिसका भारत के लिए मतलब था 1950 की संधि का खंडन। नेपाल लगातार इस प्रस्ताव को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाता रहा और 1990 तक उसे पाकिस्तान और चीन समेत 112 देशों का समर्थन मिल गया था।
रणनीतिक रूप से भारत के लिए शांतिपूर्ण नेपाल का मतलब चीन के साथ लंबे और महत्वपूर्ण हिमालयी सीमांत का बाकी की भारत-चीन सीमा के तनाव की तुलना में स्थिर रहना रहा है। हालांकि नेपाल में बढ़ते नस्लीय राष्ट्रवाद की वजह से 1990 में व्यापार और परिवहन समझौते भंग हो गए और भारत व नेपाल की मुद्रा अलग-अलग हो गई।
इसने भारत को मजबूर कर दिया कि वह नेपाल के लिए कोलकाता बंदरगाह की सेवाएं बंद कर दे, जिससे नेपाल की जीडीपी 1988 के 9.5% के आंकड़े से गिरकर 1.5% पर आ गई। नेपाल द्वारा चीन से हथियार आयात करना भी संबंधों के कमजोर होने का कारण रहा।
हालांकि रिश्ते संभलते रहे, लेकिन खटास बढ़ती रही क्योंकि नेपाली सरकार अपनी कूटनीतिक स्वायत्तता साबित करने के लिए चीन को भी बराबर महत्वपूर्ण साझेदार दिखाने का प्रयास करती रही। हालांकि भारत भी बराबर का दोषी था क्योंकि जब चीन काठमांडू पर प्रभाव जमा रहा था, तब भारत ने नेपाल के लिए कुछ करने का प्रयास नहीं किया।
नेपाल के कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधुरा से जुड़े मुद्दे पर नेपाल का मौजूदा हठ धीरे-धीरे कमजोर होते संबंधों का ही नतीजा है। 18 सितंबर 2015 को नेपाल ने नया संविधान अपनाया जिसमें भारत समेत बड़ी संख्या में नेपालियों को लगा कि इसमें नेपाल में रहने वाले भारतीय मूल के मधेशियों का ध्यान नहीं रखा गया।
मधेशी आंदोलन से नेपाल की मुसीबत बढ़ी और वहां ऐसा माना गया कि यह भारत के इशारों पर हो रहा है। इससे नेपालियों को चीन के साथ ज्यादा व्यापक संबंधों की तरफ जाने का मौका मिला, खासतौर पर माओवादी प्रभुत्व वाली केपी शर्मा ओली की सरकार के साथ।
सीमा मुद्दा तब सामने आया जब भारत ने 10 नवंबर 2019 को नक्शे में कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधुरा को अपने हिस्से में दिखाया। इसके बाद 8 मई 2020 को लिपुलेख पास से होते हुए कैलाश मानसरोवर के लिए सड़क का औपचारिक उद्घाटन हुआ। नेपाल ने इस कदम का जोरदार विरोध किया।
प्रधानमंत्री ओली की कैबिनेट ने 18 मई 2020 को नया राजनीतिक नक्शा जारी करने का फैसला लिया, जिसमें नेपाल ने भारत के नियंत्रण वाले क्षेत्रों को शामिल किया। नेपाली संसद ने इस पर संविधान संशोधन भी पारित कर दिया। ऐसा करने का समय खासतौर पर अजीब था क्योंकि यह तभी हुआ जब चीन, भारत पर सिक्किम और खासतौर पर लद्दाख में दबाव बना रहा था।
नेपाल जोर दे रहा है कि भारत को सीमा मुद्दे पर बात करनी चाहिए, भले ही वर्चुअल मीटिंग हो। उसका तर्क है कि भारत सीमा पर संघर्ष को लेकर चीन से बात कर रहा है लेकिन भारत-नेपाल सीमा मुद्दे पर बात न करने का कारण महामारी को बता रहा है। समय का चुनाव और भारत पर दबाव बनाने के तरीके से भारत यह मानने को मजबूर है कि नेपाली सरकार चीन के बाहरी दबाव में काम कर रही है।
हालांकि नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी में आंतरिक बंटवारे से कुछ उम्मीद है, जहां पार्टी के कुछ लोग ओली द्वारा भारत से विवाद बढ़ाने की आलोचना कर रहे हैं, वह भी ऐसे समय जब दुनिया का ध्यान महामारी पर है।
नेपाल का बढ़ता राष्ट्रवाद और उसके नेताओं की इस भावना को भारतीय हित के खिलाफ इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति बाहरी मदद के साथ बनी रह सकती है। भारत को आज नहीं तो कल आगे का रास्ता तय करना होगा। सीमा मुद्दे पर नेपाल से बात करना उस समस्या को स्वीकार करना माना जाएगा, जिससे भारत ने इनकार किया है। और ऐसा न करना चीन को नेपाल पर अपना प्रभाव बढ़ाने और भारत पर दबाव बनाने का एक और मौका दे देगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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