हाल ही में दूरदर्शन द्वारा राम मंदिर भूमि पूजन के लाइव कवरेज पर रिकॉर्ड व्यूअरशिप मिलने का ढिंढोरा पीटना बताता है कि उन्मादी मीडिया के लिए टीआरपी ही सबकुछ है। देशभर के न्यूजरूम में भूमिपूजन को टीवी के लिए ही बने दृश्यों की तरह पेश किया गया। यह सब देखकर मुझे बड़ी खबर वाला ऐसा ही दिन याद आ रहा था। पांच अगस्त 2020 से बहुत पहले 6 दिसंबर, 1992 आया था।
रविवार का दिन था और मैं बॉम्बे जिमखाना में क्रिकेट खेल रहा था। तब मैं मुंबई में टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार का सिटी एडिटर था। दोपहर में खबर आना शुरू हुई कि बाबरी मस्जिद ढहा दी गई है। यह सुनकर मैं सीधे ऑफिस पहुंचा। यह 24x7 ब्रेकिंग न्यूज के दौर से पहले की बात है, जब लगातार लूप में विजुअल नहीं चलते थे। अयोध्या को ‘उत्तर’ भारतीय खबर की तरह देखा गया, जिसे दिल्ली का राष्ट्रीय ब्यूरो संभालता। रविवार की शांत दोपहर में मंदिर के शहर की नाटकीयता से अलग मुंबई किसी और दुनिया में लग रहा था।
फिर देर शाम बीबीसी पर विध्वंस की तस्वीरें आईं, तब माहौल कुछ बदला। उस रात हमें मोहम्मद अली रोड स्थित मिनारा मस्जिद पर पत्थर फेंके जाने की पहली खबर मिली। एक पुलिस वैन पर भीड़ ने हमला कर दिया। एक उत्साही 27 वर्षीय रिपोर्टर होने के नाते मुझे लगा कि मुझे वहां जाना चाहिए। रात में भी जीवंत रहने वाले उस इलाके में तनाव था। पुलिस गश्त लगा रही थी और कुछ हिस्सों में पत्थरबाजी जारी थी। अगले दिन स्थानीय मुस्लिम लीग ने बंद की घोषणा की, मुंबई में कर्फ्यू लग गया, हिंसा उपनगरों तक फैल चुकी थी। अगले तीन महीनों में मुंबई का ‘कॉस्मोपॉलिटन’ होने का भ्रम टूटने वाला था। दिसंबर में पुलिस और नाराज मुस्लिम समूहों के बीच दंगों से जो शुरू हुआ था, वह जनवरी में सड़कों पर हिन्दू संगठनों की आक्रमक लामबंदी में बदल गया और मार्च 1993 में दाऊद इब्राहिम के नेतृत्व वाले अंडरवर्ल्ड द्वारा किए गए सीरियल धमाकों पर जाकर खत्म हुआ।
बाबरी विध्वंस ने मुबंई के स्याह पक्षों को सामने ला दिया और शहर को नाराज मुस्लिम समूहों, शिवसेना के सैनिकों, अंडरवर्ल्ड गैंग और पक्षपाती पुलिस की दया पर छोड़ दिया। जब मैं साउथ मुंबई के आराम को छोड़कर बाहर निकला तो मुझे अलग ही मुबंई दिखी, अपराध, हिंसा और अभावों का शहर। हम ऐसे दर्जनों परिवारों से मिले जिन्हें घर छोड़कर भागना पड़ा, जिनकी दुकानें जला दी गईं। मुंबई के दंगों और धमाकों में 1000 लोग मारे गए, जिनमें से ज्यादातर का कोई चेहरा नहीं था, वे बस मासूम भारतीय नागरिक थे, जिन्हें उनकी धार्मिक पहचान के लिए निशाना बनाया गया।
वर्ष 1993 के आखिर में मार-काट के साक्षी के रूप में मुझे श्रीकृष्ण कमीशन के सामने गवाही देनी पड़ी, जो मुंबई दंगों की जांच के लिए बनाया गया था। पूछताछ तीन दिन तक चली। व्यक्तिगत स्तर पर मेरे पेशेवर जीवन का वह सबसे खौफनाक साल था। एक शहर जिसे मैं चाहता था, उसे शायद हमेशा के लिए घाव के निशान मिल गए थे। मुंबई सांप्रदायिक आधार पर बंट गई थी। उन महीनों में हिन्दू-मुस्लिम के बीच जो भौतिक और मनोवैज्ञानिक दरार आई, वह कभी नहीं भर पाई।
अब 28 साल बाद चक्र पूरा हुआ है। अब हम एक ‘नए’, स्पष्टरूप से ध्रुवीकृत भारत में हैं, जहां बहुसंख्यवादी राजनीति मुख्यधारा में है, जहां ‘धर्मनिरपेक्षता’ और सांप्रदायिकता, कानूनी और गैर कानूनी के बीच की रेखाएं आसानी से मिटा दी जाती हैं। शिवसेना नेता बाल ठाकरे ने 1992 में अपने ‘लड़कों’ की विध्वंस में भूमिका पर ‘गर्व’ होने की बात कही थी, वही शिवसेना अब महाराष्ट्र में सत्ता में है, जिसमें कांग्रेस एक सहयोगी है। भाजपा के लिए अयोध्या आंदोलन राजनीतिक प्रभाव का टिकट था, वह अब देश की प्रभावशाली पार्टी है।
कानून सही समय पर काम करने में असफल रहा है। मुंबई दंगों से जुड़े करीब 2000 मामले बंद हो चुके हैं। जिन्हें आरोपी माना गया, उनमें ज्यादातर जमानत पर हैं। शायद ही किसी को लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा। शिवसेना और मुंबई पुलिस अधिकारियों को दोषी ठहराने वाली श्रीकृष्ण रिपोर्ट कभी लागू ही नहीं हुई और अंतत: महाराष्ट्र सरकार द्वारा खारिज कर दी गई। बाबरी मस्जिद विध्वंस की सुनवाई अब भी लखनऊ की विशेष अदालत में चल रही है। एक एफआईआर में जिन हाईप्रोफाइल राजनेताओं का नाम था, वे अब सत्ता के संभ्रातों में शामिल हैं। बाबरी विध्वंस के बाद हुई हिंसा से पीड़ित कोई भी व्यक्ति दावा नहीं कर सकता कि उसे कमजोर सरकारी तंत्र से न्याय का कोई अहसास हुआ है।
जहां तक मेरा सवाल है, मैं अब भी दंगों, धुएं भरे आसमान और आंसुओं में डूबे मुंबईकरों के दु:ख की दर्दनाक कहानियों की तस्वीरों से डरा हुआ हूं। मैं 6 दिसंबर को नहीं भूल सकता जब संविधान के ऊपर बर्बरता की, अहिंसा के ऊपर हिंसा की जीत हुई थी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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