शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

बेंगलुरु हिंसा के मद्देनजर सवाल- सोशल मीडिया की गंदगी साफ करने की जिम्मेदारी इन कंपनियों पर ही नहीं होनी चाहिए?

अमेरिका के चुनाव, ट्रम्प के ट्वीट, भारत-चीन संबंध, सुशांत की मौत, राजस्थान में विधायकों की घोड़ा मंडी और बेंगलुरु की हिंसा के अलग-अलग सूत्रों को डिजिटल प्लेटफॉर्म के दिलचस्प माध्यम से जोड़ा जा सकता है। राजस्थान और सुशांत के मामलों में जांच के लिए मोबाइल सीडीआर से ज्यादा वॉट्सऐप कॉल और मैसेज के रिकॉर्ड पुलिस के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं।

अमेरिका के चुनावों में रूस की डिजिटल दखलअंदाजी बढ़ रही है तो भारत ने चीनी एप्स पर प्रतिबंध लगाकर करारी चोट पहुंचाई है। टिकटॉक के खिलाफ ट्रम्प के आदेश से जाहिर है कि ऐप्स और डिजिटल कंपनियां अंतरराष्ट्रीय कूटनीति, जासूसी और अर्थनीति का सामरिक हिस्सा बन गई हैं। भारत ने टिकटॉक पर कार्रवाई की पहल का दावा भले किया हो, लेकिन 2009 में बनाए गए नियमों के अनुसार चीनी कंपनियों के खिलाफ अभी तक फाइनल सरकारी आदेश पारित नहीं हुआ है।

कांग्रेस विधायक के भतीजे की भड़काऊ पोस्ट पर बेंगलुरु में हिंसा भड़काने के लिए कट्टरपंथ के मुद्दे पर टीवी डिबेट्स होने के बाद नुकसान से भरपाई के लिए पुलिसिया कार्रवाई भी होगी। बिहार पुलिस के आईपीएस अधिकारी, जिन्हें मुंबई में क्वारैंटाइन किया गया था, उनके फर्जी टि्वटर अकाउंट से कई ट्वीट हो रहे हैं। यूपीएससी में रैंक हासिल करने वाली मिस इंडिया प्रतिभागी के नाम से भी 20 फर्जी इंस्टाग्राम अकाउंट बन गए। इन मामलों में पुलिस ने मामला दर्ज कर लिया, लेकिन अरबों दूसरे मामलों में जवाबदेही कैसे सुनिश्चित होगी?

विश्व में रोजाना लगभग एक अरब फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्वीट्स के साथ 65 अरब वॉट्सऐप मैसेज और 293 अरब ई-मेल का आदान-प्रदान होता है, जिनमें औसतन एक तिहाई गलत, स्पैम और फर्जी होते हैं। स्मार्टफोन और इंटरनेट से लैस करोड़ों जनता की वजह से सोशल मीडिया कंपनियों को भारत से औसतन 20% बाजार मिल रहा है। यानी भारत में सोशल मीडिया के जरिए रोजाना औसतन 20 अरब आपत्तिजनक और आपराधिक मामले हो रहे हैं। लेकिन राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2017 में साइबर क्राइम से जुड़े सिर्फ 21,796 मामले ही पुलिस ने दर्ज किए। यानी बाकी अरबों मामलों में ना तो पुलिस और ना ही डिजिटल कंपनियां कोई कार्रवाई कर रही हैं।

एपल, फेसबुक, गूगल और ट्विटर समेत अनेक बड़ी कंपनियों के मुख्यालय होने की वजह से अमेरिका को इनका मायका कह सकते हैं। उबर ने अपने मायके राज्य कैलिफोर्निया में अपनी टैक्सियों के ड्राइवरों को अपना कर्मचारी मानने से ही इनकार कर दिया है, तो फिर भारत में इन कंपनियों से जवाबदेही की उम्मीद कैसे करें? ये कंपनियां भारत जैसे बड़े बाजार से खरबों डाॅलर की टैक्स चोरी के बाद उसे आयरलैंड जैसे टैक्स हैवन की ससुराल में सुरक्षित रखती हैं। पिछले हफ्ते फेसबुक की आयरलैंड कंपनी की सूचना के बाद दिल्ली पुलिस ने मुंबई पुलिस के सहयोग से कार्रवाई करके एक आदमी को आत्महत्या से बचाया। ऐसे एक मुखौटे से ये बहरूपिया कंपनियां लाखों-करोड़ों पोस्ट्स और ट्वीट डिलीट करती हैं और जब जवाबदेही से बचना होता है तो दूसरे मुखौटे को अदालती आदेश की दरकार होने लगती है।

ये कंपनियां स्मार्टफोन से लोगों को पूरी दुनिया से जोड़ रही हैं, उसी तर्ज पर शिकायत के लिए भारत में टोल फ्री नंबर जैसी सहूलियत बने तो पुलिस को इस डिजिटल कवायद से छुटकारा मिले। सवाल यह भी है कि आसानी से बन रहे फर्जी अकाउंट्स को बंद कराने के लिए पीड़ित व्यक्ति को पुलिस और डिजिटल कंपनियों के हजारों चक्कर क्यों काटने पड़ते हैं? अपराध शास्त्र का बड़ा सिद्धांत है, ‘जो करे सो भरे’। इसके अनुसार सोशल मीडिया में हो रही गंदगी को साफ करने की जिम्मेदारी भी इन्हीं कंपनियों पर होनी चाहिए। फेसबुक और ट्विटर जैसी कंपनियां अपने नियमित यूजर्स का ब्लू-टिक वेरिफिकेशन करें तो बेंगलुरु समेत देश के अन्य भागों में दंगों से जुड़े लोगों के डिजिटल पिरामिड का खुलासा आसान हो जाएगा।

गुटखा और माइनिंग की तर्ज पर डाटा के अवैध कारोबार पर आश्रित इन डिजिटल कंपनियों की वैल्यूएशन दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ रही है। फोर्ब्स की लिस्ट के अनुसार एपल, अल्फाबेट (गूगल), माइक्रोसॉफ्ट, अमेजन और फेसबुक विश्व की पांच सबसे बड़ी ब्रांड वैल्यू वाली कंपनियां हैं। जबकि, फॉर्च्यून ग्लोबल 500 के अनुसार आमदनी के मामले में ये कंपनियां क्रमश: 12, 29, 47, 9 और 144 वें नंबर पर हैं।

आमदनी व ब्रांड वैल्यू के बीच का यह फर्क डाटा चोरी के अवैध साम्राज्य के विस्तार को दर्शाता है, जिसका मुनाफा इन कंपनियों को वसूलना अभी बाकी है। राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश ने पिछले हफ्ते अपने लेख में कहा था कि संसद में कानून बनाने में देरी की भारी कीमत चुकानी पड़ती है। डिजिटल कंपनियों के मामले में बड़ी पेचीदगी और विरोधाभास है। नए कानून बनने में देरी के साथ पुराने कानूनों को लागू नहीं करने से पूरा देश सामाजिक और आर्थिक गुलामी की ओर बढ़ रहा है। इसपर अब देशव्यापी बहस हो तभी नए भारत के निर्माण में सफलता हासिल होगी।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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विराग गुप्ता, सुप्रीम कोर्ट के वकील


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